Sunday, 31 January 2016

कामदासप्तमी-व्रत

           कामदासप्तमी-व्रत फाल्गुन शुक्ल पक्ष सप्तमी को किया जाता है।यह सभी कामनाओं को प्रदान करने वाली है।इसीलिए इसको कामदा सप्तमी कहा जाता है।
कथा --
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          इस व्रत का वर्णन भगवान ब्रह्मा जी ने सर्वेश्वर विष्णु जी से किया था।
विधि --
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          व्रती प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास पूर्वक सूर्यदेव का पूजन करे।दूसरे दिन पुनः सूर्यदेव का पूजन और हवन करके प्रार्थना करे --
     यमाराध्य पुरा देवी सावित्री काममाप वै।
     स मे ददातु देवेशः सर्वान् कामान् विभावसुः।।
           इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन एवं दक्षिणा से सन्तुष्ट करे।इस व्रत को चार-चार महीने मे पारणा करके एक वर्ष मे समापन किया जाता है।
माहात्म्य --
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           इस व्रत को करने से मनुष्य को मनोवाँछित फल की प्राप्ति होती है।यह सप्तमी अत्यन्त पुण्यदायिनी एवं पापनाशिनी है।इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति सूर्यसदृश तेजस्वी बनकर विमान द्वारा सूर्यलोक को जाता है।जन्मान्तर मे राजा बनता है।

Saturday, 30 January 2016

स्वामी विवेकानन्द

           साहित्य ; दर्शन एवं इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान तथा आध्यात्मिक गुरु के नाम से प्रसिद्ध स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता नगर मे एक सुप्रतिष्ठित कायस्थ परिवार मे हुआ था।इनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था।इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त एवं माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था।

बचपन एवं शिक्षा ---
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         नरेन्द्र के पिता कलकत्ता हाईकोर्ट मे वकील थे।वे पश्चिमी विचारों के समर्थक थे।वे अपने बच्चे को भी अपने जैसा बनाना चाहते थे।परन्तु नरेन्द्र की माता जी बहुत आस्तिक एवं धार्मिक विचारों वाली थीं।उनके घर पर आये दिन कथा-वार्ता होती रहती थी।इसे सुनकर नरेन्द्र ने बचपन मे ही रामायण और महाभारत के अनेक प्रसंग कण्ठस्थ कर लिए थे।
          नरेन्द्र बचपन मे बहुत चंचल ; उद्विग्न एवं हठी प्रकृति के थे।वे प्रत्येक बात को तर्क की कसौटी पर कसने के बाद ही स्वीकार करते थे।वे अपने पिता जी एवं उनके मित्रों के मध्य होने वाली वार्ता मे भी भाग लेते थे।कभी-कभी अपने विचारों एवं तर्कों से सबको आश्चर्य चकित कर देते थे।नरेन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर हुई।बाद मे उन्होने अनेक विद्यालयों मे अध्ययन करते हुए स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की।इस बीच उन्होने भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति का विस्तृत एवं गम्भीर अध्ययन कर पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर लिया।धीरे-धीरे उनके मन मे सत्य को जानने की प्रबल जिज्ञासा जागृत हुई।उन्होने अनेक सन्त-महात्माओं से ईश्वर के अस्तित्व के विषय मे प्रश्न किया किन्तु कहीं पर कोई समाधान नहीं मिला।

रामकृष्ण से भेंट ---
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            नवम्बर 1881 मे वे इसी जिज्ञासा की शान्ति हेतु कोलकाता के समीपस्थ दक्षिणेश्वर मे निवास करने वाले महान सन्त स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिले।वहाँ भी वही प्रश्न किया - क्या आपने ईश्वर को देखा है ? स्वामी जी ने बड़े धैर्य एवं प्यार से उत्तर दिया कि हाँ ; बहुत स्पष्ट एवं प्रगाढ़ रूप मे देखा है।उसके बाद स्वामी जी ने उनकी सभी शंकाओं का समाधान कर दिया।फलतः नरेन्द्र उनके शिष्य बन गये और स्वामी जी के अन्तिम समय तक उनके सान्निध्य मे बने रहे।
           नरेन्द्र ने दर्शन और वेदान्त का गहन अध्ययन किया।वे इस निष्कर्ष पर पहुँच गये कि अनुरागपूर्ण साधना के द्वारा ही सत्य अथवा ईश्वर को जाना जा सकता है।सन् 1886 मे परमहंस जी का अन्तिम समय आ गया।उन्होने अपनी सम्पूर्ण शक्तियाँ नरेन्द्र को सौंप दीं।

भारत-भ्रमण --
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            परमहंस जी की मृत्यु के बाद विवेकानन्द जी 1887 मे सन्यासी बन गये।उसके बाद वे भारत-भ्रमण मे निकल पड़े।उन्होने सम्पूर्ण देश मे अपने गुरुदेव के उपदेशों का प्रचार किया।उनके मन मे दीन-दुखियों ; दलितों ; असहायों एवं शोषितों के प्रति अगाध प्रेम था।अतः उनके उत्थान के लिए स्वामी जी ने अथक प्रयास किया।उस समय बुद्धिजीवियों के मन मे धर्म के प्रति आस्था समाप्त हो रही थी।अतः अपने धर्म एवं संस्कृति की ऐसी व्याख्या करनी आवश्यक थी; जिससे समस्त भारतीय जनमानस उसे पुनः स्वीकार कर ले।स्वामी जी ने इस विषय मे बहुत उल्लेखनीय कार्य किया ; जिसमे उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली।

विश्वधर्म-सम्मेलन --
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          सन् 1893 मे अमेरिका के शिकागो नगर मे विश्वधर्म-सम्मेलन आयोजित हुआ।खेतरी-नरेश के सहयोग से स्वामी जी भी इस सम्मेलन मे सम्मिलित हुए।वहाँ सभी वक्ता भाषण आरम्भ करने के पूर्व " अमेरिकावासी महिलाओं एवं पुरुषों " कहकर सम्बोधित करते थे।जब स्वामी जी ने अपना वक्तव्य आरम्भ किया तब उन्होने " अमेरिकावासी बहनों एवं भाइयों " कहकर सम्बोधित किया।उनके इस अपनत्व भरे सम्बोधन को सुनकर सभी श्रोता अवाक् रह गये।वे स्वामी जी की ओर मंत्र-मुग्ध हो गये।स्वामी जी ने अपनी ओजस्वी वाणी एवं धाराप्रवाह अंग्रेजी से सभी का हृदय जीत लिया।उन्होने अपने सिद्धान्तों एवं विचारों को इतने प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया कि वहाँ पर उपस्थित सभी श्रोता एवं धर्माचार्य मंत्र-मुग्ध हो गये।
           स्वामी जी ने समझाया कि सनातन धर्म सर्वाधिक महान एवं उदार है।यह सभी धर्मों की विशेषताओं को समान रूप से स्वीकार करता है।इसलिए आप लोग आपसी वैरभाव को मिटाकर एक साथ चलने का प्रयास करें।मतों का खण्डन-विखण्डन त्यागकर पारस्परिक मेल-मिलाप की बात करें।इस प्रकार इस व्याख्यान के कारण वे सम्पूर्ण विश्व मे प्रसिद्ध हो गये।

विश्वभ्रमण --
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           इस सम्मेलन के बाद स्वामी जी ने अमेरिका और इंग्लैण्ड का व्यापक भ्रमण किया।उन्होंने अपने व्याख्यानो एवं लेखों के द्वारा सम्पूर्ण विश्व मे भारतीय विचारधारा का व्यापक प्रचार किया।इस कार्य मे उन्हें अनेक विदेशी विद्वानो का भी सहयोग मिला।इसी बीच उनकी भेंट सुप्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर से भी हुई।

मिशन की स्थापना --
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           विश्वभ्रमण के बाद स्वामी जी भारत वापस आये।उन्होने सन् 1897 मे रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।इस मिशन का प्रमुख लक्ष्य सर्वधर्म समभाव था।अब स्वामी जी का सम्पूर्ण समय हिन्दू समाज को जागृत करने ; सामाजिक कुरीतियों को दूर करने ; धर्मप्रचार करने और दीन-दुखियों की सेवा करने मे व्यतीत होने लगा।

अन्त ---
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          अत्यधिक परिश्रम एवं दौड़-धूप के कारण स्वामी जी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा।स्वास्थ्य-लाभ हेतु वे दार्जिलिंग चले गये।इसी बीच कलकत्ता मे प्लेग फैल गया।स्वामी जी कलकत्ता लौट आये और रोगग्रस्त लोगों की सेवा मे जुट गये।परन्तु 04 जुलाई 1902 को बेल्लूर मे वे दैनिक पूजा-पाठ करने के बाद शाम को अपने कक्ष मे विश्राम करने गये।वहीं पर ध्यानावस्था मे अपने ब्रह्मरन्ध्र को वेधकर महासमाधि ग्रहण कर ली।इस प्रकार इस महान सन्त का अन्त हो गया।
           

स्वामी रामानन्दाचार्य

           स्वामी रामानन्दाचार्य का जन्म विक्रम संवत् 1356 मे माघ मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि को प्रयाग ( इलाहाबाद ) मे एक ब्राह्मण परिवार मे हुआ था।उक्त तिथि को चित्रा नक्षत्र ; सिद्धियोग ; कुम्भ लग्न और गुरुवार का दिन था।इनके पिता का नाम पुण्यसदन एवं माता का नाम सुशीला देवी था।
बचपन --
---------      इनके जन्मकालीन ग्रहस्थिति को देखकर एक ज्योतिर्विद ने कहा कि इस बच्चे को तीन वर्ष को आयु तक बाहर निकलना शुभ नही है।इसे केवल दूध पिलाया जाय ; अन्न न दिया जाय।माता-पिता ने उसी ढंग से उनका पालन-पोषण किया।चौथे वर्ष अन्नप्राशन के समय इनके समक्ष अनेक व्यञ्जन रखे गये।इन्होने अपनी इच्छानुसार केवल खीर का प्राशन किया।अतः दीर्घकाल तक वे केवल खीर ही खाते रहे।
शिक्षा-दीक्षा ---
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           रामानन्द जी बहुत कुशाग्र बुद्धि के थे।इनकी स्मरण-शक्ति असाधारण थी।इन पिता जी जिन ग्रंथों का पाठ करते थे; वे सभी ग्रन्थ इन्हे कण्ठस्थ हो जाते थे।इसलिए बचपन मे ही इन्हे अनेक ग्रन्थ कण्ठस्थ हो गये थे।आठवें वर्ष उपनयन के समय जब काशी-गमन की औपचारिकता की गयी ।तब वे वास्तव मे काशी की ओर चल पड़े।माता-पिता के मनाने पर भी वापस नही लौटे।अतः माता-पिता भी उनके साथ जाकर काशी मे भस गये।बच्चे ने वहीं पर बारह वर्षों तक विद्याध्ययन किया।बाद मे राघवानन्द जी से दीक्षा ग्रहण कर पञ्चगंगा घाट पर तप करने लगे।
जनकल्याण ---
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            धीरे-धीरे इनकी ख्याति बढ़ती गयी।उनके दर्शन के लिए जनसाधारण के साथ-साथ बड़े बड़े सन्त महात्मा योगी सन्यासी और विद्वान भी आने लगे।इनकी शंखध्वनि मे अद्भुत शक्ति थी।जिनके कानों मे यह ध्वनि पहुँच जाती थी; उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते थे।जब भीड़ बढ़ने लगी तब उन्होने केवल चार बार शंखध्वनि करने का नियम बना लिया।इससे असंख्य लोगों का कल्याण हुआ।
सम्प्रदाय एवं शिष्य --
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           रामानन्दाचार्य जी अपने युग के महान् सन्त ; समाजसुधारक एवं आध्यात्मिक आचार्य थे।वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के अनन्य भक्त थे।उन्होने जिस सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया ; उसे श्रीरामायत अथवा श्रीरामानन्दी वैष्णव सम्प्रदाय कहा जाता है।उनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि उन्होने सभी जातियों एवं सम्प्रदायों के लोगों को दीक्षा दी थी।
          उनके शिष्यों मे कबीरदास; रैदास ; अनन्तानन्द ; सुखानन्द ; सुरसुरानन्द ; पद्मावती ; नरहरयानन्द ; पीपा ; भावानन्द ; धन्ना ; सेन और सुरसुरानन्द की पत्नी प्रमुख हैं।इन्हें द्वादश महाभागवत कहा जाता है।
रचनायें ---
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         इनकी रचनाओं मे वैष्णवमताब्ज भास्कर ; श्रीरामार्चन पद्धति ; रामरक्षास्तोत्र ; सिद्धान्त-पटल ; ज्ञानलीला ; ज्ञानतिलक ; योगचिन्तामणि और सतनामीपन्थ प्रमुख हैं।
अन्त --
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         इनके अन्त के विषय मे एक अद्भुत आख्यान उपलब्ध है।इन्होने अपने शिष्यों से कहा कि कल रामनवमी है।मै अकेला ही अयोध्या जाऊँगा।यदि वहाँ से लौट न सकूँ तो आप लोग मुझे क्षमा कर देना।ऐसा कहकर रात्रि मे विश्राम करने चले गये।दूसरे दिन देखा गया तो आचार्य जी अन्तर्धान हो गये थे।

मधूकतृतीया-व्रत

           मधूकतृतीया-व्रत फाल्गुन शुक्ल तृतीया को किया जाता है।इसमे मधूक-वृक्षाश्रया गौरी जी का पूजन होने के कारण इसे मधूकतृतीया कहा जाता है।

कथा --
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            प्रचीन काल मे समुद्र-मन्थन से निकलने वाले मधूक वृक्ष को भूलोक-वासियों ने पृथ्वी पर स्थापित किया।एक बार उसी वृक्ष का आश्रय लेकर माता गौरी जी विराजमान थीं।उस समय लक्ष्मी ; सरस्वती आदि देवियों ने उनका पूजन कर अभिमत फल प्राप्त किया।उसी समय से यह व्रत एवं पूजन आरम्भ हुआ।

विधि --
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           व्रती प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।फिर भगवती गौरी की प्रतिमा स्थापित कर गन्ध पुष्प अक्षत लालचन्दन केशर आदि से विधिवत् पूजन करे।उसके बाद अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति हेतु प्रार्थना करे --
  ऊँ भूषिता देवभूषा च भूषिका ललिता उमा।
   तपोवनरता गौरी सौभाग्यं मे प्रयच्छतु।।
    दौर्भाग्यं मे शमयतु सुप्रसन्नमनाः सदा।
    अवैधव्यं कुले जन्म ददात्वपरजन्मनि।।
             इसके बाद मधूकवृक्ष का विधिवत् पूजन कर ब्राह्मणो को दक्षिणा प्रदान करे।

माहात्म्य --

          जो कन्या इस व्रत को करती है ; उसे विष्णु के समान सुयोग्य वर की प्राप्ति होती है।यदि स्त्री करे तो वह स्वस्थ और नीरोग रहते हुए शतायुषी होती है।बाद मे वह रुद्रलोक को प्राप्त होती है।

Friday, 29 January 2016

सूर्यग्रहण - 09 मार्च 2016

            इस वर्ष फाल्गुन कृष्ण पक्ष अमावस्या बुधवार तदनुसार दिनांक 09 मार्च 2016 को ग्रस्तोदित खण्ड सूर्यग्रहण होगा।इस दिन ग्रहण लगे हुए सूर्य का उदय होगा।यह ग्रहण पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र ; कुम्भ राशि एवं अग्निमण्डल मे है।यह ग्रहण भारत के अधिकाँश भागों मे सूर्योदय के समय खण्ड सूर्यग्रहण के रूप मे दृश्य होगा।भारत के पूर्वी राज्यों मे इसका मध्य और मोक्ष दोनो दृश्य होगा।मध्य भारत मे केवल मोक्ष ही दृश्य होगा।
           इस दिन इलाहाबाद मे सूर्योदय प्रातः 06-17 बजे होगा।उस समय ग्रहण लगा रहेगा।यहाँ पर ग्रहण का मोक्ष प्रातः 06 बजकर 47 मिनट पर होगा।इस प्रकार यहाँ तीस मिनट तक ग्रहण रहेगा।सामान्य रूप से सूर्यग्रहण लगने से बारह घण्टे पूर्व वेध लगता है।परन्तु ग्रस्तोदय सूर्यग्रहण मे 04 घण्टे 48 मिनट पूर्व वेध लगता है।इस दृष्टि से उस दिन मध्य रात्रि से वेध लगेगा।उस समय भोजन आदि निषिद्ध है।

ग्रहण-फल --
-------------      इस ग्रहण का विभिन्न राशियों को इस प्रकार फल होगा --
मेष राशि = लाभ    वृष = सुख
मिथुन = माननाश   कर्क = मृत्यु तुल्य कष्ट
सिंह = स्त्रीपीडा  कन्या = सौख्य
तुला = चिन्ता  वृश्चिक = व्यथा
धनु = श्री      मकर = हानि
कुम्भ = घात  मीन = हानि

ग्रहण के कृत्याकृत्य

           मानव-शरीर पर ग्रहण का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।अतः महर्षियों ने ग्रहण-काल मे अनेक करणीय एवं अकरणीय कार्यों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है।यहाँ कुछ महत्वपूर्ण विन्दुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
1-- सूर्यग्रहण लगने के 12 घण्टे पूर्व तथा चन्द्रग्रहण लगने के 09 घण्टे पूर्व सूतक लग जाता है।सूतक-काल मे उबटन ; भोजन ; मैथुन ; जलपान ; यात्रा ; शयन ; मलमूत्र-त्याग ; देवमूर्ति-स्पर्श आदि नही करना चाहिए।परन्तु बाल ; वृद्ध और रोगी के लिए यह नियम-पालन अनिवार्य नही है।
           ग्रहण-काल मे शयन करने से मनुष्य रोगी ; लघुशंका करने से दरिद्र ; मलत्याग करने से कीट ; मैथुन करने से सूअर और उबटन लगाने से कुष्ठी हो जाता है।
          देवी भागवत के अनुसार जो मनुष्य सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के समय भोजन करता है ; वह अन्न के दानों की संख्या के बराबर वर्षों तक अरुन्तुद नामक नरक मे रहता है।उसके बाद जन्मान्तर मे उदर एवं प्लीहा रोग से पीड़ित ; काना तथा दन्तहीन हो जाता है।
2-- ग्रहण-काल मे किसी शुभ एवं नवीन कार्य का आरम्भ नही करना चाहिए।
3-- ग्रहण-काल मे गर्भवती महिलाओं को विशेष सतर्क रहना चाहिए।उन्हें सूतक लगने के पूर्व ही अपने पेट मे गोबर अथवा तुलसी की पत्ती का लेप लगा लेना चाहिए।उन्हे ग्रहण देखना नितान्त वर्जित है।ग्रहण देखने से गर्भस्थ शिशु अंगहीन हो सकता है।ऐसी महिलाओं को सिलाई ; कटाई भी नही करनी चाहिए।
4-- ग्रहण के समय कीटाणुओं की संख्या बढ़ जाती है।वे भोज्यपदार्थों मे प्रविष्ट हो सकते हैं।अतः ग्रहण के पूर्व ही दूध ; दही ; घी आदि भोज्यपदार्थों पर कुश या तुलसी-दल रख देना चाहिए।इससे वे पदार्थ दूषित नही होते हैं।पहले से पके हुए भोजन को त्याग देना चाहिए।पहले से रखे हुए जल को फेक देना चाहिए तथा ग्रहण-मोक्ष के बाद ताजा जल लेना चाहिए।
5-- ग्रहण के समय जप ; तप ; दान ; श्राद्ध ; मंत्रसिद्धि आदि करने का विधान है।इस समय इन कार्यों मे उत्तम सफलता मिलती है।भागवत महापुराण के अनुसार चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण का समय श्राद्ध एवं पुण्यकार्यों के लिए विशेष उपयुक्त होता है।यह समय कल्याण-साधना के लिए उपयोगी एवं शुभ की अभिवृद्धि करने वाला है।इस समय पूरी शक्ति लगाकर शुभ कर्म करना चाहिए।इस समय जो स्नान ; जप ; होम ; व्रत आदि किया जाता है ; उसका अक्षय फल मिलता है।
6-- ग्रहण मे आरम्भ और मोक्ष दोनो समयों मे स्नान का विधान है।ग्रहण के अन्त मे वस्त्र-सहित स्नान करना चाहिए।ग्रहण के समय जिन वस्त्रों को स्पर्श किया गया हो ; उन्हे भी धुल लेना चाहिए।
7-- हेमाद्रि के अनुसार ग्रहण के आदि मे स्नान ; मध्य मे होम ; मोक्ष होते समय दान और मोक्ष के बाद पुनः स्नान करना चाहिए।
8-- ग्रहण मे किसी पवित्र नदी मे स्नान करना चाहिए।इससे सामान्य दिनो की अपेक्षा चन्द्रग्रहण मे एक लाख गुना और सूर्यग्रहण मे दस लाख गुना पुण्यफल होता है।परन्तु गंगा स्नान करने पर चन्द्रग्रहण मे एक करोड़ गुना तथा सूर्यग्रहण मे दस करोड़ गुना पुण्य लाभ होता है।सहस्र कोटि गौओं के दान से जो फल प्राप्त होता है ; वही फल चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण मे गंगा स्नान करने से मिलता है।
            गंगा अथवा अन्य कोई नदी न मिले तो कूप ; सरोवर आदि मे स्नान करना चाहिए।स्नान करते समय गंगा ; कनखल ; प्रयाग ; पुष्कर आदि तीर्थों का नाम स्मरण कर लेने से भी पर्याप्त पुण्य प्राप्त होता है।
9-- यदि रविवार को सूर्यग्रहण और सोमवार को चन्द्रग्रहण हो तो यह चूडामणि योग कहलाता है।इसमे दिया हुआ दान अनन्त फलदायक होता है।अन्य दिनो के ग्रहण की अपेक्षा चूडामणि योग मे करोड़ो गुना पुण्यलाभ होता है।
10-- अनिष्टकारी सूर्यग्रहण मे सोने की और चन्द्रग्हण मे चाँदी का बिम्ब ; घोड़ा ; गौ ; भूमि ; तिल ; घृत आदि का दान करना चाहिए।
11-- भगवान के नाम का स्मरण ; संकीर्तन ; जप आदि तो सभी को करना चाहिए।
          

Thursday, 28 January 2016

फाल्गुनी अमावस्या

           फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि को फाल्गुनी अमावस्या कहा जाता है।
           प्रत्येक अमावस्या को सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि मे समान अंशों पर स्थित होते हैं।साथ ही चन्द्रमा का श्वेत भाग सूर्य की ओर होता है।इसलिए चन्द्रमा का प्रकाश पृथ्वी पर नही आता है।
           फाल्गुनी अमावस्या को गंगा आदि पवित्र नदियों मे स्नान ; दान ; जप ; तप ; पूजा ; पाठ आदि का विशेष महत्व है।यदि यह सोम ; मंगल ; बृहस्पति या शनिवार को पड़ जाय तो विशेष पुण्यदायिनी हो जाती है।इस दिन किए गये स्नान ; दानादि से उतना ही पुण्यफल मिलता है ; जितना सूर्यग्रहण को मिलता है।
          फाल्गुनी अमावस्या युगादि तिथि है।इसलिए इस दिन अपिण्ड श्राद्ध का विधान है।
          इस दिन रुद्र ; अग्नि और ब्राह्मणों का पूजन कर उन्हें उड़द-दही-पूरी के नैवेद्य से सन्तुष्ट करना चाहिए।बाद मे स्वयं भी इन्ही पदार्थों को ग्रहण करे।इससे अत्यधिक पुण्य की प्राप्ति होती है।

महाशिवरात्रि-व्रत

           महाशिवरात्रि-व्रत फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को किया जाता है।ईशानसंहिता के अनुसार माघ ( फाल्गुन ) कृष्ण चतुर्दशी की महानिशा मे आदिदेव महादेव करोड़ो सूर्य के समान दीप्तिसम्पन्न हो शिवलिंग रूप मे आविर्भूत हुए थे।इसीलिए इसे शिवरात्रि कहा जाता है ---
      माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
      शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः।।
       तत्कालव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रिव्रते तिथिः।
              यहाँ शुक्ल पक्ष से मासारम्भ मानने के कारण माघ का अभिप्राय फाल्गुन मास है।एक अन्य स्थल पर इसी तथ्य को इस प्रकार कहा गया है --
     फाल्गुने कृष्णपक्षस्य या तिथिः स्याच्चतुर्दशी।
तस्यां या तामसी रात्रिः सोच्यते शिवरात्रिका।।

कथा ---

          प्राचीन काल मे गुरुद्रुह नामक एक भील शिकार करने के लिए वन मे गया।वह दिन भर भूखा-प्यासा भटकता रहा किन्तु कोई शिकार नहीं मिला।शाम होने पर एक वर्तन मे जल भर कर बेल के एक वृक्ष पर चढ़ गया।कुछ देर बाद सरोवर मे पानी पीने के लिए एक मृगी आई।भील ने उसे मारने के शरसंधान किया।उसके हाथ के धक्के से थोड़ा सा जल और बेल के कुछ पत्ते नीचे गिर गये।उस वृक्ष के नीचे एक शिवलिङ्ग विराजमान थे।उस दिन शिवरात्रि का पर्व भी था।संयोगवश जल और बिल्वपत्र शिवलिङ्ग पर ही गिरे।अतः अनजाने मे ही भील द्वारा रात्रि के प्रथम प्रहर मे शिव जी का पूजन हो गया।
           मृगी ने शिकारी से निवेदन किया कि अभी मुझे मुक्त कर दें।मै अपने बच्चों को अपनी बहन के हाथों सौंपकर लौट आऊँगी।तब मेरा वध करना।शिकारी ने उसे मुक्त कर दिया।रात्रि के दूसरे प्रहर मे उस मृगी की बहन जल पीने आ गयी।शिकारी पुनः शरसन्धान करने लगा।उसके हाथ के धक्के से उसी प्रकार जल और बिल्वपत्र गिरे और शिवलिङ्ग पर चढ़ गये।यह मृगी भी पहले वाली मृगी की भाँति निवेदन कर मुक्त हो गयी।रात्रि के तृतीय प्रहर मे एक मृग आया।शिकारी द्वारा शरसन्धान करने पर पहले की ही भाँति हाथ के धक्के से जल और बिल्वपत्र शिवलिङ्ग पर चढ़ गये।मृग ने भी उसी प्रकार निवेदन किया।शिकारी ने उसे भी मुक्त कर दिया।
             वे तीनो मृग-मृगी एक ही परिवार के थे।कुछ देर बाद तीनो अपने वादे के अनुसार शिकारी के समक्ष प्रस्तुत हुए।उसने शरसन्धान करना चाहा तो जल और बिल्वपत्र पुनः शिवलिङ्ग पर चढ़ गये।इस प्रकार अनजाने मे ही चारों प्रहर मे शिकारी भील द्वारा शिव-पूजन हो गया।इसके पुण्यस्वरूप उसके सभी पाप भस्म हो गये।उसकी बुद्धि निर्मल हो गयी।अतः उसने मृगों पर प्रहार नही किया बल्कि उन्हें जीवन-दान दे दिया।इससे शिव जी प्रसन्न हो गये और तत्काल प्रकट हो गये।उन्होंने शिकारी को दिव्य वरदान देकर उसे धन्य कर दिया।

विधि --

          व्रती प्रातःकाल स्नानादि करके मस्तक मे त्रिपुण्ड्र और गले मे रुद्राक्ष की माला धारण कर व्रत का संकल्प ले।दिन भर उपवास एवं शिवनाम-स्मरण करे।सायंकाल पुनः स्नान कर शिवालय मे रात्रि के प्रथम प्रहर मे गन्ध ; अक्षत ; मन्दार-पुष्प ; धत्तूर फल आदि द्वारा शिव जी का विधिवत् पूजन करे।पूजन मे वैदिक अथवा पौराणिक मंत्रों का प्रयोग करें।अज्ञानता मे नाममंत्र से ही पूजन करें।इसी प्रकार रात्रि के द्वितीय ; तृतीय और चतुर्थ प्रहर मे भी शिव-पूजन करना चाहिए।पूजनोपरान्त इस प्रकार प्रार्थना करे ---
        संसारक्लेशदग्धस्य व्रतेनानेन शंकर।
        प्रसीद सुमुखो नाथ ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ।।
             इस प्रकार शिवनाम-स्मरण करते हुए रात्रिजागरण करे।दूसरे दिन पुनः शिव-पूजन ; ब्राह्मण-भोजन आदि के बाद स्वयं पारणा करे।

माहात्म्य ---

         इस व्रत का असीम महत्व है।इसे सभी व्रतों का राजा कहा जाता है।जो व्यक्ति इस व्रत को करता है ; उसकी भोग-मोक्ष सहित समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।वह समस्त सांसारिक सुखों को भोगकर अन्त मे शिव-सायुज्य को प्राप्त करता है।