Monday, 2 February 2015

श्री गुरुदेव दत्त

श्री गुरूदेव दत्त
श्री गुरु दत्तात्रेय जयंतीच्या शुभेच्छा
दत्तात्रेय जयन्ती प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष मास की पौर्णमासी तिथि को मनाई जाती है। भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित हिन्दू धर्म का एक व्रत संस्कार है। दत्तात्रेय के संबंध में यह माना जाता है कि इनके तीन सिर और छ: भुजाएँ हैं। भगवान विष्णु के अंश से इनकी उत्पत्ति मानी जाती है। दत्तात्रेय जयन्ती के दिन दत्तात्रेय जी के बालरुप की पूजा की जाती है।
कथा
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार एक बार तीनों देवियों पार्वती, लक्ष्मी तथा सावित्री को अपने पतिव्रत धर्म पर बहुत घमण्ड होने लगा। देवऋर्षि नारद को जब उनके घमण्ड के बारे में पता चला तो वह उनका घमण्ड चूर करने के लिए बारी-बारी से तीनों देवियों के पास पहुँचे। सर्वप्रथम नारद जी पार्वती के पास पहुँचे और अत्रि ऋषि की पत्नी देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म का गुणगान करने लगे। देवी ईर्ष्या से भर उठीं और नारद जी के जाने के पश्चात भगवान शंकर से अनुसूया का सतीत्व भंग करने की जिद करने लगीं। इसके बाद नारद देवी लक्ष्मी के पास गए और उनके समक्ष भी देवी अनुसूया के सतीत्व की बात आरम्भ करके उनकी प्रशंसा करने लगे। लक्ष्मी को भी अनुसूया की प्रशंसा सुनना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा। नारद जी के जाने के बाद वह भी विष्णु से अनुसूया देवी का सतीत्व भंग करने की जिद करने लगीं। विष्णुलोक से नारद सीधे ब्रह्मलोक जा पहुँचे और देवी सावित्री के सामने देवी अनुसूया की प्रशंसा का राग अलापने लगे। देवी सावित्री को उनकी प्रशंसा सुनना क़तई भी रास नहीं आया। नारद जी के चले जाने के बाद वह भी देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म को भंग करने की बात ब्रह्मा जी से करने लगीं।
त्रिदेवों का पृथ्वी पर आगमन
ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों को अपनी पत्नियों के सामने हार माननी पडी़ और वह तीनों ही पृथ्वी पर देवी अनुसूया की कुटिया के सामने एक साथ भिखारी के वेश में जाकर खडे़ हो गए। तीनों का एक ही मकसद होने से अनुसूया के द्वार पर एक साथ ही समागम हुआ। जब देवी अनुसूया इन्हें भिक्षा देने लगीं, तब इन्होंने भिक्षा लेने से मना कर दिया और भोजन करने की इच्छा प्रकट की। देवी अनुसूया ने अतिथि सत्कार को अपना धर्म मानते हुए उनकी बात मान ली और उन्हें स्नान करने के लिए बोलकर स्वयं भोजन की तैयारी में लग गईं। तीनों देव जब नहाकर आए, तब अनुसूया श्रद्धा तथा प्रेम भाव से भोजन की थाली परोस लाईं। लेकिन तीनों देवों ने भोजन करने से इन्कार करते हुए कहा कि जब तक आप हमें अपनी गोद में बिठाकर भोजन नहीं करायेंगी, तब तक हम भोजन नहीं करेंगे। देवी अनुसूया यह सुनते ही पहले तो स्तब्ध रह गईं और गुस्से से भर उठीं, लेकिन अपने पतिव्रत धर्म के बल पर उन्होंने तीनों की मंशा जान ली। देवी अनुसूया ने ऋषि अत्रि के चरणों का जल तीनों देवों पर छिड़क दिया। जल छिड़कते ही तीनों ने बालरुप धारण कर लिया। बालरुप में तीनों को भरपेट भोजन कराया। देवी अनुसूया उन्हें पालने में लिटाकर अपने प्रेम तथा वात्सल्य से उन्हें पालने लगीं।
देवियों की चिंता
धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। जब काफ़ी दिन बीतने पर भी ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश नहीं लौटे, तब तीनों देवियों को अपने पतियों की चिन्ता सताने लगी। एक दिन उन तीनों को नारद से पता चला कि वह तीनों देव माता अनुसूया के घर की ओर गए थे। यह सुनते ही तीनों देवियाँ अत्रि ऋषि के आश्रम में पहुँची और माता अनुसूया से अपने-अपने पति के विषय में पूछने लगीं। अनुसूया माता ने पालने की ओर इशारा करते हुए कहा कि यह रहे तुम्हारे पति! अपने-अपने पतियों को पहचानकर उन्हें अपने साथ ले जाओ। देवी लक्ष्मी ने चतुरता दिखाते हुए विष्णु को पहचानकर उठाया, लेकिन वह भगवान शंकर निकले। इस पर सभी उनका उपहास करने लगे।
दत्तात्रेय का जन्म
तीनों देवियों को अपनी भूल पर पछतावा होने लगा। वह तीनों ही माता अनुसूया से क्षमा मांगने लगीं। तीनों ने उनके पतिव्रत धर्म के समक्ष अपना सिर झुकाया। देवी अनुसूया ने भी अपने पतिव्रत से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर दिया। इस प्रकार प्रसन्न होकर तीनों देवों ने अनुसूया से वर मांगने को कहा तो देवी बोलीं- "आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों।" तथास्तु कहकर तीनों देव और देवियाँ अपने-अपने लोक को चले गए। कालांतर में ये ही तीनों देव अनुसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शिव के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ, जो विष्णु भगवान के ही अवतार हैं। इन्हीं के आविर्भाव की तिथि 'दत्तात्रेय जयंती' कहलाती है।
श्री दत्तात्रेया के तीन अवतार है ।
1) श्रीपाद वल्लभ स्वामी
2) श्री नृसिंहसरस्वती स्वामी
3) श्री स्वामी समर्थ महाराज
प्रमुख तीर्थस्थल
माहूर : तहसील किनवट, जनपद नांदेड,महाराष्ट्र
गिरनार : यह सौराष्ट्रमें जूनागढके समीप है। यहां १० सहस्र सीढियां हैं ।
कारंजा : श्री नृसिंह सरस्वतीका जन्मस्थान! काशीके ब्रह्मानंद सरस्वतीजीने यहां सर्वप्रथम दत्तमंदिरकी स्थापना की थी ।
औदुंबर : श्री नृसिंहसरस्वतीजीने चातुर्मासके कालमें यहां निवास किया था । यह स्थान महाराष्ट्रके भिलवडी स्थानकसे १० कि.मी. की दूरीपर कृष्णा नदीके तटपर है ।
नरसोबाकी वाडी : यह स्थान महाराष्ट्रमें है। श्री नृसिंहसरस्वतीने यहांपर १२ वर्ष व्यतीत किए । यहां कृष्णा एवं पंचगंगा नदियोंका मिलन है ।
गाणगापुर : यह स्थान पुणे-रायचूर मार्गपर कर्नाटकमें है । यहां भिमा एवं अमरजा नदियोंका मिलन है । यहांपर श्री नृसिंहसरस्वतीने अपने २३ वर्ष व्यतीत किए थे ।
ज्योतिष आकाश पुराणिक

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