Thursday, 15 December 2016

आर्य संस्कृति -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

         " आर्य " संस्कृत भाषा का शब्द है ; जिसका अर्थ है -- श्रेष्ठ या सर्वोत्कृष्ट।इस आधार पर आर्य संस्कृति का अर्थ है -- वह संस्कृति जो अपनी अनगिनत विशेषताओं के कारण विश्व मे सर्वोत्कृष्ट है।हम सभी इस संस्कृति के अभिन्न अंग हैं।अतः हमे इस संस्कृति की दिव्य विशेषताओं को बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए।इसमे जिन मानव-मूल्यों का उल्लेख किया गया है।उनके संरक्षण एवं संवर्धन का भी प्रयास करना चाहिए।हमारे छोटे से प्रयास के कारण इस संस्कृति का विकास तो होगा ही ; हमारा कल्याण भी होगा।

Tuesday, 25 October 2016

अतिथि-सेवा -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

         शास्त्रों मे " अतिथि देवो भव " कहकर अतिथि-सेवा की असीम महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।सामान्य रूप से जिसके आगमन की तिथि निर्धारित न हो ; जिसके कुल-वंश ; नाम आदि का ज्ञान न हो और अचानक द्वार पर आ गया हो ; उसे अतिथि कहा जाता है।ऐसे व्यक्ति के आने पर उसके नाम ; गोत्र ; शिक्षा-दीक्षा आदि बिना पूछे ही उसे देवस्वरूप मानकर उसका यथोचित सत्कार करना चाहिए।यदि वह थका-माँदा हो तो उसके विश्राम की व्यवस्था करनी चाहिए।उसके काले-गोरे ; अच्छे-बुरे स्वरूप का ध्यान नहीं करना चाहिए।उसके आते ही उसका यथोचित अभिवादन अवश्य करना चाहिए।
         अतिथि को देवस्वरूप मानकर उसके भोजन की व्यवस्था करना नितान्त आवश्यक है।जो व्यक्ति अपने द्वार पर आये हुए अतिथि को भोजन कराये बिना स्वयं भोजन कर लेता है ; पापभोजी होता होता है।उसे अगले जन्म मे भोजन की प्राप्ति नहीं होती है बल्कि वह विष्टाभोजी बन जाता है।जिसके घर से अतिथि बिना सत्कार पाये निराश होकर लौट जाता है ; वह गृहस्वामी के पुण्य को लेकर चला जाता है और गृहस्वामी को अपना पाप दे देता है ---
   अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते।
   स दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति।।
                      ( मार्क0पु029/31 )
          इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि अतिथि-सत्कार को गृहस्थ जीवन का अनिवार्य कर्तव्य मानकर अतिथि सेवा अवश्य करे।परन्तु वर्तमान युग मे दुष्टों की बहुलता के कारण अतिथि के विषय मे कुछ जानकारी करना आवश्यक हो गया है।अतः सन्तोषजनक जानकारी हो जाने के यथाशक्ति सेवा-सत्कार अवश्य करना चाहिए।अन्यथा पापभागी बनना पड़ेगा।

मानव का सबसे बड़ा शत्रु राग -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           शास्त्रों मे मानव-जीवन के लिए जो काम ; क्रोध ; लोभ आदि सब से घातक शत्रु बताये गये हैं ; उनमें " राग " का स्थान सर्वोपरि है।राग का अर्थ है -- अनुराग या प्रीति।मनुष्य के मन मे जब किसी सांसारिक वस्तु के प्रति राग या लगाव उत्पन्न हो जाता है तब काम की उत्पत्ति होती है।काम का अर्थ है -- इच्छा।अर्थात् मनुष्य मे उस वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है।काम से लोभ का जन्म होता है।लोभ से सम्मोह या अविवेक की उत्पत्ति होती है।यह तो निश्चित है कि जब लोभ का भूत सवार होता है तब व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है।फिर सम्मोह से स्मरण-शक्ति भ्रान्त हो जाती है।स्मृति के भ्रान्त होने से बुद्धि का विनाश हो जाता है।बुद्धि-विनाश के कारण मनुष्य स्वयं नष्ट हो जाता है।वह अपने कर्तव्यों से विमुख होकर कर्तव्य-भ्रष्ट हो जाता है ---
   रागात् कामः प्रभवति कामाल्लोभोऽभिजायते।
   लोभाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः।।
   स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।
               ( मार्कण्डेयपु0 3/71-72)
        इस प्रकार मानवजीवन मे विनाश के लिए राग ही सर्वाधिक उत्तरदायी होता है।यदि राग पर यथोचित नियंत्रण रखा जाय तो उसके विनाश की प्रक्रिया रुक सकती है।

ज्योतिष मे चन्द्रमा का महत्व -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           भारतीय ज्योतिष के जातक प्रकरण मे सूर्य ; चन्द्र ; मंगल ; बुध ; गुरु ; शुक्र ; शनि ; राहु और केतु नौ ग्रहों की मान्यता है।यद्यपि प्राचीन आचार्यों ने राहु और केतु को महत्व नहीं दिया किन्तु वर्तमान काल मे इनका भी पर्याप्त महत्व है।सामान्य रूप से फलादेश मे इन समस्त ग्रहों का महत्व है किन्तु चन्द्रमा का महत्व कुछ अधिक है।यहाँ पर चन्द्रमा की महत्ता प्रदर्शित करने वाले कुछ प्रमुख विन्दुओं पर ही चर्चा की जा रही है।
1-- बच्चे के जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर स्थित होता है।वही नक्षत्र बच्चे का जन्म नक्षत्र माना जाता है।जब कि सूर्यादि सभी ग्रह किसी न किसी नक्षत्र पर होते हैं किन्तु बच्चे का जन्म नक्षत्र बताने मे  चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य किसी ग्रह के नक्षत्र का कोई महत्व नहीं होता है।
2-- नक्षत्रों के आधार पर ही राशि का निर्माण होता है।बच्चे के जन्म-काल मे चन्द्रमा जिस राशि पर होता है।वही राशि बच्चे की जन्म-राशि मानी जाती है।भारतीय मतानुसार इसी आधार पर राशिफल दिया और देखा जाता है।
3-- जन्मकुण्डली का फलादेश अधिकतर जन्म-लग्न के आधार पर किया जाता है।किन्तु अनेक स्थलों पर राशि चक्र के आधार पर भी फलादेश करने का विधान है।इसीलिए कुण्डली मे लग्न-कुण्डली के साथ चन्द्र-कुण्डली ( राशि चक्र ) भी दी जाती है।
4-- चन्द्रमा की उत्पत्ति विराटपुरुष के मन से हुई है --
चन्द्रमामनसोजातश्चक्षोः सूर्योऽअजायत।
          इसीलिए ज्योतिष मे चन्द्रमा को मन का स्वामी माना गया है।संसार के प्रत्येक प्राणी के क्रिया-कलाप पर मन का सर्वाधिक प्रभाव रहता है।प्रत्येक व्यक्ति अपने मन के अनुसार ही कार्य करता है।कभी-कभी वह मन के वशीभूत होकर समस्त नियमों एवं मर्यादाओं का भी उल्लंघन कर जाता है।इस आधार पर भी ज्योतिष मे चन्द्रमा की महत्ता स्वयमेव स्पष्ट है।
5-- चन्द्रमा कर्क राशि का स्वामी है।अतः कर्क लग्न मे जन्म लेने वाले व्यक्ति बहुत भावुक एवं सहृदय होते हैं।उनके प्रत्येक कार्य मे भावुकता का अंश स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।कभी-कभी वे भावुकता के वश मे आकर ऐसा कार्य कर बैठते हैं ; जो उन्हें नहीं करना चाहिए।
6-- जन्माङ्ग मे अष्टम स्थान पर गया हुआ क्षीण चन्द्रमा सर्वाधिक घातक होता है।इतना घातक या प्रभावशाली अन्य कोई भी ग्रह नहीं होता है।
7-- ज्योतिष मे फलादेश करते समय विभिन्न योगों मे चन्द्रमा का योग विशेष रहा करता है।
8-- चन्द्रमा एक ऐसा ग्रह है ; जो राहु-केतु को छोड़कर अन्य किसी को भी अपना शत्रु नहीं मानता है।इतना तक कि बुध उसे अपना शत्रु मानता है किन्तु चन्द्रमा उसे अपना मित्र मानता है।बुध चन्द्रमा का ही पुत्र है।
9-- यदि सबल चन्द्रमा लग्न अथवा अन्य शुभ स्थान पर हो तो व्यक्ति को सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा देता है।
10-- राहुकृत दोष को बुध शान्त करता है ; इन दोनों के दोषों को शनि शान्त कर देता है।राहु बुध और शनि के दोष को मंगल शान्त करता है तथा इन चारों के दोषों को शुक्र शान्त कर देता है।राहु बुध शनि भंगल तथा शुक्र के दोष को गुरु शान्त करता है।परन्तु इन छहों ग्रहों के दोषों को अकेले चन्द्रमा ही शान्त कर देता है।इस प्रकार चन्द्रमा का महत्व अन्य ग्रहों की अपेक्षा अधिक है।
11-- चन्द्रमा माता का कारक है।संसार मे माता से अधिक महत्व वाला कोई भी सम्बन्धी नहीं है।अतः उसके कारक ग्रह की महत्ता स्वयमेव सिद्ध है।

Monday, 24 October 2016

सूर्योपासना -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          सूर्यदेव प्रत्यक्ष देवता हैं।उनके अस्तित्व के विषय मे किसी भी प्रकार का सन्देह अथवा ऊहापोह का प्रश्न ही नहीं उठता है।अतः ऐसे सर्व-शक्तिमान प्रत्यक्ष देवता की उपासना अवश्य करनी चाहिए।उनके स्तवन ; जप ; व्रत ; उपहार-समर्पण ; पूजन ; भजन आदि से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।पृथ्वी पर मस्तक रखकर सूर्यदेव को प्रणाम करने से मनुष्य तत्काल पापमुक्त हो जाता है।इसमे तनिक भी सन्देह नहीं है।जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति पूर्वक भगवान सूर्य नारायण की परिक्रमा करता है ; उसे सातों द्वीपों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा का फल प्राप्त हो जाता है।जो व्यक्ति सूर्यदेव को अपने हृदय मे धारण करके केवल आकाश की परिक्रमा करता है ; उसके द्वारा समस्त देवताओं की परिक्रमा सम्पन्न हो जाती है ---
   सूर्यं मनसि यः कृत्वा कुर्याद् व्योमप्रदक्षिणाम्।
   प्रदक्षिणीकृतास्तेन सर्वे देवा भवन्ति हि।।

आकाशगंगा का जल -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           सामान्य रूप से सूर्यदेव पृथ्वी पर स्थित जल को ग्रहण कर उसे मेघों मे स्थापित करने के बाद पृथ्वी पर वर्षा करते हैं।परन्तु कभी-कभी वे आकाशगंगा के जल को भी लेकर उसे मेघों मे स्थापित किये बिना ही पृथ्वी पर बरसा देते हैं।यह जल अत्यन्त शुद्ध एवं पवित्र होता है।यह जल अन्नादि के लिए तो अमृत तुल्य होता ही है साथ ही प्राणियों के समस्त पापों का नाश करने वाला और वैकुण्ठ की प्राप्ति कराने वाला होता है।
             सूर्यदेव जब कृत्तिका आदि विषम नक्षत्रों पर स्थित होते हैं ; उस समय वर्षा से प्राप्त होने वाला जल ; दिग्गजों द्वारा फेंका हुआ आकाशगंगा का जल होता है।यह बहुत पवित्र एवं पापनाशक होता है।इसी प्रकार भरणी आदि सम नक्षत्रों मे स्थित सूर्य के समय मे आकाश से गिरने वाला जल आकाशगंगा का ही जल होता है।ये दोनों जल बहुत पवित्र एवं पाप-नाशक होते हैं।इनके स्पर्श मात्र से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।वह मनुष्य सुख पूर्वक जीवन यापन कर स्वर्गलोक को प्राप्त होता है।उसे नरक लोक की यातनाओं का सामना नहीं करना पड़ता है।अतः वर्षा के जल का स्पर्श अवश्य कर लेना चाहिए।संभव है कि वह आकाशगंगा का ही जल हो।इससे बिना प्रयास ही असीम पुण्य की प्राप्ति हो जाती है।

बादल को अभ्र क्यों कहते हैं ? -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           संसार की प्रत्येक वस्तु के कई पर्यायवाची शब्द होते हैं।बादल के भी अनेक पर्याय हैं।उन्हीं मे " अभ्र " भी है।वस्तुतः भगवान सूर्यदेव आठ महीने तक अपनी किरणों द्वारा रसात्मक जल का संग्रह करते हैं।फिर उसी को वर्षा ऋतु मे बरसात के रूप मे परिणत कर देते हैं।बादल की सृष्टि मे धूम्र ; अग्नि ; वायु और जल का योग रहता है।बादलों मे स्थापित किया गया जल कभी अपभ्रष्ट नहीं होता है।इसीलिए बादलों को " अभ्र " कहा जाता है।

Saturday, 22 October 2016

रवि-पुष्य योग -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

         वार एवं नक्षत्र के सम्मिलन से बनने वाले योगों मे रवि-पुष्य योग का अद्वितीय महत्त्व है।रविवार को जब पुष्य नक्षत्र होता है ; तब रवि-पुष्य योग बनता है।इसमे रविवार और पुष्य नक्षत्र दोनों ही बहुत प्रभावशाली हैं।रविवार के अधिष्ठातृ देव भगवान सूर्य नारायण हैं।वे सम्पूर्ण संसार को प्रकाश प्रदान करने वाले प्रत्यक्ष देवता हैं।वे सभी ग्रहों के अधिपति हैं।इसीलिए उन्हें ग्रहराज भी कहा जाता है।रविवार स्थिर संज्ञक दिन है।इस दिन शान्तिकर्म ; उद्यान लगाना तथा स्थिर कर्म करना शुभ होता है।
           पुष्य नक्षत्र सभी नक्षत्रों मे सबसे शुभ एवं प्रभावशाली माना जाता है।ज्योतिष मे इसे नक्षत्र सम्राट की संज्ञा प्रदान की गयी है।पुष्य नक्षत्र के स्वामी देवगुरु वृहस्पति हैं।केवल वैवाहिक कृत्य को छोड़कर अन्य सभी कार्य पुष्य नक्षत्र मे शुभ होते हैं।यह समस्त दोषकारक शक्तियों को निस्तेज कर देता है।इस नक्षत्र मे किया गया प्रत्येक कार्य स्थिर एवं शुभदायी होता है ---
   पुष्यः परकृतं हन्ति न तु पुष्यकृतं परः।
   दोषं यद्यष्टमोऽपीन्दुः पुष्यः सर्वार्थसाधकः।।
          इस प्रकार अत्यन्त प्रभावशाली वार एवं नक्षत्र के मेल से बनने वाला रवि-पुष्य योग निश्चित रूप से सर्वार्थ-साधक होता है।यह योग यन्त्र ; मन्त्र ; तन्त्र आदि की सिद्धि के लिए बहुत शुभद होता है।इसमे औषधि-सेवन भी बहुत शुभ फलदायक होता है।इस दिन घर गृहस्थी की वस्तुयें खरीदना भी बहुत लाभप्रद होता है।ज्योतिषीय दृष्टि से यह बहुत उत्तम योग माना जाता है।

कोणार्क-माहात्म्य -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

         विश्व प्रसिद्ध कोणार्क मन्दिर उड़ीसा प्रान्त के पुरी नामक जनपद मे भगवान जगन्नाथ-मन्दिर से लगभग 32 किमी उत्तर पूर्व दिशा मे समुद्र तट के समीप चन्द्रभागा नदी के किनारे स्थित है।पुराणों मे इसे कोणादित्य के नाम से वर्णित किया गया है।यह मन्दिर एक विशाल रथ के रूप मे निर्मित है।इसमे बारह जोड़ी पहिया लगी हैं।रथ को सात अश्व खींच रहे हैं।बनावट एवं सुन्दरता की दृष्टि से यह मन्दिर विश्व मे अद्वितीय स्थान रखता है।
         ब्रह्मपुराण के अनुसार यह भगवान सूर्यदेव का क्षेत्र है।यहाँ सहस्र किरणों से अलंकृत भगवान सूर्यदेव सदैव निवास करते हैं।इनका दर्शन करने से मनुष्य को भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति हो जाती है। माघ शुक्ल पक्ष सप्तमी तथा चैत्र शुक्ल पक्ष मे यहाँ सूर्य-पूजन करने से असीम पुण्यफल की प्राप्ति होती है।इसी प्रकार संक्रान्ति ; विषुव योग ; उत्तरायण-दक्षिणायन आरम्भ होने ; रविवार ; सप्तमी और पर्वों के दिन इनका दर्शन तथा पूजन करने से मनुष्य की समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।वह समस्त सांसारिक सुखों को भोगकर अन्त मे सूर्यलोक को प्राप्त करता है।

सूर्यदेव का सनातन स्तोत्र -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          सूर्यदेव प्रत्यक्ष देवता हैं।इनकी उपासना-वन्दना करना प्रत्येक व्यक्ति का परम धर्म है।शास्त्रों मे सूर्यदेव की स्तुति करने के लिए अनेक स्तोत्र उपलब्ध हैं किन्तु ब्रह्मपुराणोक्त ( 31/31-33 ) उनका सनातन स्तोत्र बहुत कल्याणकारी है।जो व्यक्ति इस स्तोत्र का एक बार पाठ कर ले ; उसे सूर्य-सहस्र-नाम पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती है।
         यह स्तोत्र बहुत पुण्यदायक एवं प्रभावशाली है।इसका पाठ करने से मनुष्य सदैव नीरोग ; धनी और यशस्वी बना रहता है।सूर्यदेव के उदय एवं अस्तकाल मे इसका पाठ करने से मनुष्य पापमुक्त हो जाता है।उसके कायिक ; वाचिक ; मानसिक आदि सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।अतः सभी लोगों को इस सर्वफलदायी स्तोत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए।यह स्तोत्र इस प्रकार है ---
   विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः।
   लोकप्रकाशकः श्रीमाँल्लोकचक्षुर्महेश्वरः।।
   लोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्ता हर्ता तमिस्रहा।
   तपनस्तापनश्चैव शुचिः सप्ताश्ववाहनः।।
   गभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृतः।
   एकविंशतिरित्येष स्तव इष्टः सदा रवेः।।
  

Friday, 21 October 2016

विष्णु का नाम नारायण क्यों पड़ा -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           भगवान विष्णु के सहस्र नामों मे एक सुप्रसिद्ध नाम " नारायण " भी है।उनका यह नाम पड़ने का एक प्रमुख कारण है।तत्त्वदर्शी मुनियों ने जल को " नारा " कहा है।वह नारा ही पूर्वकाल मे जिनका निवास स्थान रहा ; उन्हें नारायण कहा जाता है।अर्थात् नारा ( जल ) ही जिनका अयन ( घर ) है ; उन्हें नारायण कहा जाता है ---
   आपो नारा इति प्रोक्ता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
   अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।।
          इस सन्दर्भ मे एक कथा बहुत प्रसिद्ध है।जिस समय सृष्टि नहीं हुई थी और सम्पूर्ण चराचर जगत् नष्ट हो गया था।उस समय एकमात्र तत्सद् ब्रह्म की ही सत्ता थी।उन्हें ही सदाशिव के नाम से जाना जाता है।वे दीर्घ काल तक अकेले ही रहे।बाद मे उन्होंने अपने विग्रह से एक शक्ति की सृष्टि की ; जो अम्बिका ; उमा ; शिवा आदि नामों से विख्यात हुईं।कालान्तर मे शिव और शिवा ने सोचा कि हमे किसी दूसरे पुरुष की सृष्टि करनी चाहिए ; जो सृष्टि-संचालन मे योगदान कर सके।यह सोचकर शिव जी ने अपने वाम अंग से एक पुरुष को उत्पन्न किया ; जो विष्णु के नाम से प्रसिद्ध हुए।विष्णु ने शिव जी की आज्ञानुसार तप करना आरम्भ किया।तपस्या के परिश्रम से उनके अंगों से नाना प्रकार की जलधारायें निकलने लगीं।चारों ओर जल ही जल भर गया।उस समय थके हुए विष्णु ने उस जल मे दीर्घ काल तक शयन किया।इसीलिए उन्हें नारायण कहा जाता है।

भगवान विष्णु के स्वरूप -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          त्रिदेवों मे भगवान विष्णु का विशिष्ट महत्त्व है।पौराणिक मान्यता के अनुसार उनके तीन स्वरूप हैं ---
           भगवान विष्णु का प्रथम स्वरूप अत्यन्त विलक्षण है।वाणी द्वारा उसका वर्णन करना नितान्त कठिन है।विद्वद्गण उसे शुक्ल अथवा शुद्धस्वरूप कहते हैं।भगवान का वह स्वरूप अत्यन्त दिव्य ; भव्य एवं ज्योतिःपुञ्ज से परिपूर्ण है।योगी गण उसी दिव्य स्वरूप की प्राप्ति मे लगे रहते हैं।वह स्वरूप सर्वगुणातीत और अत्यन्त विचित्र है।उसे ही वासुदेव कहा जाता है।वह रूप ; वर्ण आदि से नितान्त परे तथा परम शुद्ध एवं सर्वोत्तम अधिष्ठान-स्वरूप है।
         भगवान का दूसरा स्वरूप शेष के नाम से जाना जाता है।वे तिर्यक्स्वरूप तामसी रूप हैं।वे पाताल लोक मे रहते हुए सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने मस्तक पर धारण किये रहते हैं।
          भगवान का तृतीय स्वरूप सम्पूर्ण प्रजाओं के पालन-पोषण मे तत्पर रहता है।वही इस संसार मे राम ; कृष्ण आदि के रूप मे अवतरित होकर धर्म-विध्वंशक असुरों का नाश एवं साधु-सन्तों की रक्षा करता है।

Thursday, 20 October 2016

तुलसी माहात्म्य -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          संसार के सभी पत्र-पुष्पों मे तुलसी की महत्ता सर्वोपरि है।भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय होने के कारण इन्हें विष्णुप्रिया एवं वैष्णवी कहा जाता है।ये परम मंगलमयी एवं समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली हैं।ये सम्पूर्ण लोक मे श्रेष्ठ ; शुभ एवं भोग-मोक्ष-प्रदायिनी हैं।इसीलिए भगवान विष्णु ने सम्पूर्ण लोकों का हित करने के लिए तुलसी के पौधे का आरोपण किया था।तुलसी मे असंख्य विशेषतायें विद्यमान हैं।उनमे से कुछ विशेषतायें इस प्रकार हैं ----
1-- तुलसी के पत्ते एवं पुष्प सभी धर्मों मे प्रतिष्ठित हैं।सभी धर्मों मे इनकी महत्ता स्वीकार की गयी है।
2-- भगवान विष्णु को तुलसी सर्वाधिक प्रिय हैं।संसार का कोई भी ऐसा पत्र ; पुष्प ; चन्दन-लेप आदि नहीं है ; जो विष्णु जी तुलसी के समान सन्तोष प्रदान कर सके।
3-- जो व्यक्ति प्रतिदिन तुलसी-दल द्वारा भगवान विष्णु का पूजन करता है ; उसे सभी दान ; हवन ; यज्ञ ; व्रत आदि का फल प्राप्त हो जाता है।
4-- जो व्यक्ति तुलसी-दल से भगवान विष्णु का पूजन करता है ; उसे सुख-शान्ति ; कान्ति ; यश ; लक्ष्मी ; श्रेष्ठ कुल ; शील ; पुत्र ; पत्नी ; कन्या ; धन राज्य आदि सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
5-- जिस प्रकार पुण्यसलिला गंगा जी मुक्ति-दायिनी हैं ; उसी प्रकार तुलसी भी परम कल्याण-कारिणी हैं।
6-- यदि मञ्जरी युक्त तुलसी-दल द्वारा भगवान विष्णु का पूजन किया जाय तो उसका असीम पुण्यफल प्राप्त होता है।
7-- जिस स्थान पर तुलसी जी रहती हैं ; वहाँ सभी देवताओं का निवास रहता है।
8-- तुलसी के समीप जो पूजा पाठ किया जाता है ; उसका फल अनन्तगुना फल होता है।
9-- भूत प्रेत पिशाच कूष्माण्ड ब्रह्मराक्षस आदि तुलसी के पौधे से सदैव दूर भागते हैं।
10-- ब्रह्महत्या सदृश भयानक पाप एवं खोटे विचारों से उत्पन्न होने वाले सभी रोग तुलसी-वृक्ष के समीप पहुँचते ही नष्ट हो जाते हैं।
11-- जो व्यक्ति तुलसी का वगीचा लगाता है ; उसे सौ यज्ञों का पुण्यफल प्राप्त हो जाता है।
12-- जो व्यक्ति शालग्राम पर चढ़े हुए तुलसी-दल को प्रसाद रूप मे ग्रहण करता है ; उसे विष्णु-सायुज्य की प्राप्ति होती है।
13-- श्रीहरि को निवेदित तुलसी-दल को मस्तक पर धारण करने से व्यक्ति निष्पाप होकर स्वर्गलोक को प्राप्त करता है।
14-- कलियुग मे तुलसी-पूजन करने से स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है।
15-- तुलसी-सेवा से राजसूय आदि यज्ञों एवं विविध प्रकार के व्रतों का फल मिल जाता है।
16-- तुलसी-दल द्वारा विष्णु-पूजन करने वाले जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।
17-- तुलसी-दल से विष्णु पूजन करने से सहस्रों पीढ़ियाँ पवित्र हो जाती हैं।
        यद्यपि तुलसी का पूजन सदैव करना चाहिए किन्तु कार्तिक मास मे तुलसी-पूजन का विशेष महत्त्व है।अतः समस्त आस्तिक व्यक्तियों को तुलसी-पूजन अवश्य करना चाहिए।

सर्वपूज्या माता -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           संसार के समस्त सम्बन्धियों मे माता का स्थान सर्वोपरि है।विश्व मे कोई भी ऐसा सम्बन्धी ; देवी ; देवता आदि नहीं है ; जो माता के सम्बन्ध की बराबरी कर सके।माता ही अपनी सन्तानों के लिए सर्वश्रेष्ठ रक्षक है।अन्य लोग तो बुलाने पर आयेंगे किन्तु माता तो प्रत्येक पल रक्षण हेतु तत्पर रहती है।उसके समान कोई आश्रय भी नहीं होता है।माता का स्नेह भी सर्वोपरि एवं अनुपमेय होता है।अपनी सन्तानों के लिए उसके हृदय मे स्नेह-सरिता सदैव प्रवाहित होती रहती है।माता की गोद मे जो सुख मिलता है ; वह अन्यत्र संभव ही नहीं है।इतना ही नहीं बल्कि लोक परलोक कहीं भी माता के समान कोई देवता नहीं है ----
   नास्ति मातृसमो नाथो नास्ति मातृसमा गतिः।
   नास्ति मातृसमा स्नेहो नास्ति मातृसमं सुखम्।।
   नास्ति मातृसमो देव इहलोके परत्र च।
                   ( पद्मपु0; सृष्टि 0 ;18/353)

Thursday, 13 October 2016

राजा सगर की उत्पत्ति -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          पौराणिक मान्यता के अनुसार राजा सगर विष के साथ प्रकट हुए थे।इसीलिए उन्हें सगर कहा जाता है।सगर शब्द मे दो शब्द हैं -- स + गर।यहाँ " स " का अर्थ है -- सह = साथ। " गर " का अर्थ है -- विष।इस प्रकार सगर = गरेण सह -- अर्थात् विष के साथ।यद्यपि सुनने मे तो यह घटना बहुत आश्चर्य जनक प्रतीत होती है।परन्तु घटना सत्य एवं प्रामाणिक है।इस विषय मे कई पुराणों मे आख्यान उपलब्ध हैं।
          ब्रह्मपुराण के अनुसार सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के वंश मे " बाहु " नामक एक प्रसिद्ध राजा हुए।वे बहुत व्यसनी थे।उनकी इसी दुष्प्रवृत्ति का लाभ उठाकर हैहय नामक क्षत्रियों ने उन्हें पराजित कर उनका राज्य छीन लिया।इस घटना से राजा बाहु बहुत दुःखी हुए।वे अपनी पत्नी के साथ वन मे चले गये।राज्य-च्युत हो जाने के कारण वे सदैव दुःखी और चिन्तित रहते थे।अत्यधिक दुःख के कारण राजा बाहु ने वन मे ही अपने प्राण त्याग दिये।राजा की मृत्यु के समय उनकी पत्नी " यादवी " गर्भवती थी।वे भी अपने पति के साथ चितारोहण करने के लिए उद्यत हुईं।संयोगवश रानी को उनकी सौत ने पहले से ही विष दे रखा था।
         रानी यादवी ने चिता बनाई और अपने पति का शव लेकर उस पर आरूढ़ हो गयीं।उसी समय वहाँ और्वमुनि आ गये।रानी की दशा को देखकर कर मुनि को दया आ गयी।उन्होंने रानी को चिता मे भस्म होने से रोक दिया।रानी ने मुनिवर की बात मानकर भस्म होने का विचार त्याग दिया। मे और्वमुनि के आश्रम मे आ गयीं।वहीं पर वह गर्भ विष के साथ प्रकट हुआ।वही नवजात शिशु सगर कहलाया।ये सगर वही प्रसिद्ध राजा थे ; जिनके साठ हजार पुत्र कपिल मुनि के शाप से भस्म हो गये थे।बाद मे इन्हीं के वंशज भगीरथ जी ने गंगा जी को पृथ्वी पर लाने का महनीय कार्य किया था।