Tuesday, 25 October 2016

अतिथि-सेवा -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

         शास्त्रों मे " अतिथि देवो भव " कहकर अतिथि-सेवा की असीम महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।सामान्य रूप से जिसके आगमन की तिथि निर्धारित न हो ; जिसके कुल-वंश ; नाम आदि का ज्ञान न हो और अचानक द्वार पर आ गया हो ; उसे अतिथि कहा जाता है।ऐसे व्यक्ति के आने पर उसके नाम ; गोत्र ; शिक्षा-दीक्षा आदि बिना पूछे ही उसे देवस्वरूप मानकर उसका यथोचित सत्कार करना चाहिए।यदि वह थका-माँदा हो तो उसके विश्राम की व्यवस्था करनी चाहिए।उसके काले-गोरे ; अच्छे-बुरे स्वरूप का ध्यान नहीं करना चाहिए।उसके आते ही उसका यथोचित अभिवादन अवश्य करना चाहिए।
         अतिथि को देवस्वरूप मानकर उसके भोजन की व्यवस्था करना नितान्त आवश्यक है।जो व्यक्ति अपने द्वार पर आये हुए अतिथि को भोजन कराये बिना स्वयं भोजन कर लेता है ; पापभोजी होता होता है।उसे अगले जन्म मे भोजन की प्राप्ति नहीं होती है बल्कि वह विष्टाभोजी बन जाता है।जिसके घर से अतिथि बिना सत्कार पाये निराश होकर लौट जाता है ; वह गृहस्वामी के पुण्य को लेकर चला जाता है और गृहस्वामी को अपना पाप दे देता है ---
   अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते।
   स दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति।।
                      ( मार्क0पु029/31 )
          इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि अतिथि-सत्कार को गृहस्थ जीवन का अनिवार्य कर्तव्य मानकर अतिथि सेवा अवश्य करे।परन्तु वर्तमान युग मे दुष्टों की बहुलता के कारण अतिथि के विषय मे कुछ जानकारी करना आवश्यक हो गया है।अतः सन्तोषजनक जानकारी हो जाने के यथाशक्ति सेवा-सत्कार अवश्य करना चाहिए।अन्यथा पापभागी बनना पड़ेगा।

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