Sunday, 29 November 2015

संकष्टचतुर्थी - व्रत


          संकष्टचतुर्थी का व्रत प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदय-व्यापिनी चतुर्थी को किया जाता है।यदि दो दिन चन्द्रोदय-व्यापिनी हो तो प्रथम दिन करना चाहिए।यह व्रत वर्तमान एवं भावी संकट के निवारण हेतु किया जाता है।इसीलिए इसे संकष्टचतुर्थी व्रत कहा जाता है।यह व्रत गणेश - जन्म के उपलक्ष्य मे किया जाने के कारण गणेशचतुर्थी व्रत भी कहलाता है।

कथा ---

          पुराणों मे गणेश-जन्म सम्बन्धी कथायें भिन्न-भिन्न रूप मे वर्णित हैं।किन्तु शिवपुराण की कथा अधिक प्रचलित है।उसके अनुसार माता पार्वती के पास नन्दी आदि अनेक द्वारपाल थे किन्तु उनकी त्रुटियों के कारण वे बहुत खिन्न थीं।उन्होंने अपने लिए निजी द्वारपाल रखने का मन बनाया।अतः एक दिन उन्होंने अपने शरीर की मैल से एक बालक का निर्माण कर उसमे प्राणसंचार किया।उसे वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर कहा कि तुम मेरे पुत्र हो।तुम केवल मेरी आज्ञा मानो और आज से मेरे द्वारपाल बन जाओ।मेरी आज्ञा के बिना कोई भी महल के अन्दर प्रवेश न करने पाये।
          इस प्रकार उस बालक को द्वार पर नियुक्त कर पार्वती जी अपने महल मे स्नान करने चली गयीं।उसी समय शिव जी आ गये और अन्दर प्रवेश करने लगे।बालक ने उन्हें विनयपूर्वक रोकना चाहा किन्तु शिव जी हठ कर बैठे।दोनो मे भयानक युद्ध आरम्भ हो गया।अन्त मे शिव जी ने अपने त्रिशूल से बालक का सिर काट डाला।जब यह समाचार पार्वती जी को मिला तो वे बहुत क्रुद्ध हुईं।उन्होंने अपनी शक्तियों को उत्पन्न करके उन्हें प्रलय करने की आज्ञा दे दी।सभी लोकों मे हाहाकार मच गया।देवताओं ने माता जी की स्तुति किया तब उन्होने कहा कि मेरा पुत्र जीवित हो जाय और वह तुम लोगों के मध्य पूज्य मान लिया जाय।तभी यह संहार रुकेगा।
         बाद मे शिव जी की आज्ञानुसार उत्तर दिशा से एक दाँत वाले गजबालक का सिर लाकर जोड़ा गया।इस प्रकार वह मृत बालक जीवित हो गया।देवताओं ने उसे अग्रपूज्य होने का आशीष दिया।शिव जी ने उसे अपने समस्त गणों का अध्यक्ष नियुक्त किया।इसीलिए उसका नाम गणेश ( गणानाम् ईशः गणेशः = गणो का स्वामी ) रखा गया।बाद मे शिव जी ने कहा कि हे गणेश्वर तुम्हारा जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को चन्द्रोदयकाल मे हुआ है।अतः उसी तिथि मे तुम्हारा उत्तम व्रत करना चाहिए।

व्रत एवं पूजन विधि ---

      यद्यपि गणेश जी का जन्म भाद्रपद मास मे हुआ है किन्तु शिवपुराण मे उनके व्रत का आरम्भ मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्थी से करना चाहिए।अतः व्रती प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।फिर उपवास करते हुए सुवर्ण मूगा श्वेतमदार या मिट्टी की गणेश-प्रतिमा स्थापित कर उसकी प्राणप्रतिष्ठा करे।भक्तिभाव से गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से षोडशोपचार पूजन करे।रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत होने पर पुनः स्नान करके दूर्वादलों से गणेशपूजन करे।यह दूर्वा जड़रहित ; बारह अंगुल लम्बी और तीन गाँठों वाली होनी चाहिए।इस प्रकार की एक सौ एक अथवा इक्कीस दूर्वा अर्पित करनी चाहिए।फिर धूप दीप पुष्प आदि से गणेश जी का विधिवत पूजन करे।इसकेबाद चन्द्रोदय होने पर चन्द्रमा का पूजन कर निम्नलिखित मंत्र से अर्घ्य प्रदान करे ---
ज्योत्सनापते नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्योतिषां पते।
नमस्ते रोहिणीकान्त गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते।।
          इसके बाद गणेश जी को अर्घ्य प्रदान करे --
गणेशाय नमस्तुभ्यं सर्वसिद्धिप्रदायक ।
संकष्टं हर मे देव गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते।।
        फिर तिथि को अर्घ्य देकर गणेश जी की प्रार्थना करके विसर्जन करे।

माहात्म्य ---

        पुराणों मे संकष्टचतुर्थी व्रत की असीम महत्ता वर्णित है।इसके प्रभाव से व्रती के वर्तमान एवं भावी संकट सदैव के लिए नष्ट हो जाते हैं।उसको समस्त सिद्धियाँ हस्तगत हो जाती हैं।सभी कार्यों मे शीघ्रातिशीघ्र सफलता प्राप्त हो जाती है।उसे जिस जिस वस्तु की अभिलाषा होती है ; वे सभी वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं। इस व्रत से स्त्रियों के सौभाग्य की वृद्धि होती है।विशेषकर संकटनाशन हेतु इससे अच्छा कोई व्रत होता ही नहीं है।

Friday, 27 November 2015

तुलसी क्यों वृक्ष बनी

        यह तो सर्वविदित है कि तुलसीदेवी वृन्दा के नाम से शंखचूड नामक असुरराज की पत्नी थीं।इनके सतीत्व को भगवान विष्णु ने खण्डित किया था।फिर परस्पर शापग्रस्त हुए।इस अवसर पर वृन्दा तुलसी के वृक्ष रूप मे परिणत हुई थीं।उन्हें वृक्ष होने का शाप पूर्व जन्म मे गणेश जी ने दिया था।
           यह घटना ब्रह्मकल्प की है।एक बार धर्मात्मज की नवयौवना पुत्री तुलसी तीर्थाटन करते हुए पतितपावनी गंगा के तट पर पहुँची।वहाँ विघ्नविनायक भगवान गणेश जी तप कर रहे थे।उनके अनुपम स्वरूप को देखकर तुलसी आकृष्ट हो गयी।उसने गणेश जी से कहा कि मै मनोऽनुकूल वर की प्राप्ति हेतु तीर्थाटन एवं तप कर रही हूँ।आप मेरे लिए सर्वथा अनुकूल हैं।अतः मुझे पत्नी रूप मे स्वीकार कर लीजिए।गणेश जी ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।तुलसी ने कई बार निवेदन किया किन्तु हर बार उसे इनकार ही मिला।अन्त मे क्रुद्ध होकर उसने गणेश जी को शाप दे दिया।
          यद्यपि गणेश जी बहुत शान्तिप्रिय एवं प्रसन्नचित्त हैं किन्तु तुलसी द्वारा अभिशप्त होने पर उन्हें भी क्रोध आ गया।उन्होने तुलसी को शाप दे दिया कि तुम्हे असुर पति प्राप्त होगा।उसके बाद महापुरुषों के शाप से तुम वृक्ष हो जाओगी।इतना सुनते ही तुलसी भयभीत होकर भगवान गणेश जी की स्तुति करने लगी।भक्तवत्सल गणेश जी प्रसन्न हो गये और उससे कहा कि घबराओ नहीं।तुम श्रीहरि को अत्यन्त प्रिय हो जाओगी।उनके पूजन मे तुम्हारी ही प्रधानता रहेगी।तुम्हारे बिना उनकी पूजा पूर्ण नहीं होगी।परन्तु मेरे लिए तुम सदैव त्याज्य रहोगी।

Thursday, 26 November 2015

धन्यव्रत

         हमारे देश के प्राचीन ऋषियों -मनीषियों ने मानव - जीवन के सर्वाङ्गीण विकास के लिए बहुत गम्भीरता पूर्वक विचार किया है।इसी क्रम मे धन्यव्रत की गणना की जाती है।इस व्रत का आरम्भ मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से किया जाता है।इसे एक वर्ष पर्यन्त प्रत्येक मास की उसी पक्ष की प्रतिपदा को किया जाता है ; जिस पक्ष से आरम्भ किया गया हो।

विधि ---

       व्रत करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह प्रातः स्नानादि दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर स्वस्तिवाचन पूर्वक व्रत का संकल्प ले।इसमे नक्त व्रत किया जाता है अर्थात् रात्रि मे एक बार शुद्ध - सात्विक आहार ग्रहण करे।इस व्रत मे रात्रि के समय भगवान विष्णु के पूजन का विधान है।उनके प्रत्येक अङ्ग की पृथक् - पृथक् पूजा की जाती है।यथा - वैश्वानराय पादौ पूजयामि ; अग्नये उदरम् पूजयामि ; हविर्भुजे उरः पूजयामि ; द्रविणोदाय भुजे पूजयामि ; संवर्ताय शिरः पूजयामि तथा ज्वलनायेति सर्वाङ्गम् पूजयामि।इन्हीं अङ्गनाम - मंत्रों के द्वारा गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से विधिवत् पूजन करे।
         इसी विधि से प्रत्येक मास की प्रतिपदा को व्रत एवं पूजन करना चाहिए।वर्ष के अन्त वाली प्रतिपदा को अग्निदेव की सुवर्णमयी मूर्ति बनवाये।फिर विधिवत् स्नानादि कराकर उसे लाल वस्त्र धारण कराये।उसके बाद लाल रंग के गन्ध पुष्प आदि विविध द्रव्यों से विधिवत् पूजन किया जाय।साथ ही वर्ष-पर्यन्त प्रतिदिन पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति के साथ भगवान विष्णु का सामान्य पूजन करता रहे।

माहात्म्य ---

       हमारे धर्मशास्त्रों मे इस व्रत की पर्याप्त महत्ता वर्णित है।यदि कोई व्यक्ति इस व्रत को पूर्ण आस्था एवं श्रद्धा के साथ करे तो निर्धन भी धनवान हो जाता है।अतः सुख - सम्पत्ति की आकाँक्षा रखने वाले व्यक्तियों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए।
       

महाकार्तिकी - व्रत

        सनातन धर्म मे महाकार्तिकी व्रत की असीम महत्ता वर्णित है।यह महापर्व तब होता है ; जब कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को कृत्तिका नक्षत्र मे चन्द्रमा और बृहस्पति दोनो ग्रह विद्यमान हों अथवा उस दिन सोमवार हो।यह सुयोग महाकार्तिकी के नाम से विख्यात है।ऐसा सुयोग अनेक वर्षों के बाद उपलब्ध होता है।

कथा ---

         प्राचीन काल मे मध्यदेश के वृषस्थल नामक स्थान पर दिलीप नामक राजा राज्य करता था।उसकी कलिंगभद्रा नामक परम धार्मिक एवं सर्वगुण सम्पन्ना महारानी थी।एक बार महारानी ने छः मास के लिए कृत्तिका - व्रत का संकल्प लिया किन्तु दुर्भाग्यवश व्रतोद्यापन के पूर्व ही सर्प ने डस लिया और उसकी मृत्यु हो गयी।दूसरे जन्म मे वह बकरी की योनि मे उत्पन्न हुई।उसने पूर्व जन्म की स्मृति के आधार पर पुनः व्रत करना आरम्भ कर दिया।एक बार वह एक खेत मे चर रही थी ; तभी भूस्वामी ने उसे पकड़ कर अपने घर पर बाँध दिया।उसी समय महर्षि अत्रि आ गये।उन्होने बकरी को देखते ही जान लिया कि यह तो रानी कलिंगभद्रा है।ऋषि के कारण मुक्त होकर उसने बेर की पत्ती खाकर पारणा किया।ऋषिवर ने उसे योगज्ञान का उपदेश दिया।
          कुछ दिनो बाद उस बकरी ने योगबल से प्राण त्याग किया और महर्षि गौतम की पत्नी अहल्या के गर्भ से पुत्री रूप मे उत्पन्न हुई।उसका नाम योगलक्ष्मी रखा गया।युवावस्था मे उसका विवाह महर्षि शाण्डिल्य के साथ हुआ।एक बार महर्षि अत्रि आये और योगलक्ष्मी को मंत्र सहित कृत्तिका - व्रत का उपदेश दिया।योगलक्ष्मी ने उस व्रत के प्रभाव से समस्त सांसारिक सुखों का भोगकर मोक्ष प्राप्त किया।

व्रत - विधि --

         उपर्युक्त सुयोग आने पर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को स्नानादि कर स्वस्तिवाचन - पूर्वक व्रत का संकल्प ले।व्रत मे पूर्ण निराहार अथवा नक्तव्रत ( रात्रि मे एक बार भोजन ) किया जा सकता है।यदि सुविधा हो तो पुष्कर ; प्रयाग ; नैमिषारण्य ; अमरकण्टक ; कुरुक्षेत्र आदि मे से किसी तीर्थ मे अथवा घर पर ही स्नान करे।सायंकाल घी अथवा दूध से भरे हुए  छःपात्रों मे सुवर्ण ; रजत ; रत्न ; नवनीत ; अन्नकण एवं पिष्ट से निर्मित छः कृत्तिकाओं की प्रतिमायें स्थापित करे।लाल धागे से लपेट कर गन्ध अक्षत पुष्प सिन्दूर कुंकुम धूप दीप नैवेद्य आदि से विधिवत पूजन करे।इसके पश्चात् निम्नलिखित मंत्र से ब्राह्मण को मूर्ति का दान करे ---
ऊँ सप्तर्षिदारा ह्यनलस्य वल्लभा
          या ब्रहमणा रक्षितयेति  युक्ताः ।
तुष्टाः कुमारस्य यथार्थमातरो
           ममापि  सुप्रीततरा    भवन्तु ।।

      मूर्ति ग्रहण करते समय ब्राह्मण भी निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करे --

धर्मदाः कामदाः सन्तु इमा नक्षत्रमातरः।
कृत्तिका दुर्गसंसारात् तारयन्त्वावयोः ।।

    दान लेकर जब ब्राह्मण जाने लगे तब यजमान भी उनके पीछ पीछे छः पग चले।

माहात्म्य ----

         महाकार्तिकी - व्रत का बहुत अधिक महत्व है।यह सुयोग बहुत दिनो बाद केवल पुण्यशाली व्यक्तियों को ही प्राप्त होता है।जो पुरुष इस व्रत को करता है ; वह अत्यन्त देदीप्यमान विमान पर बैठकर नक्षत्रलोक मे जाता है।इस व्रत को करने वाली स्त्री अपने पति सहित नक्षत्रलोक मे जाती है और दीर्घकाल तक दिव्य भोगों का उपभोग करने का सौभाग्य प्राप्त करती है।

       

Wednesday, 25 November 2015

कार्तिक - पूर्णिमा

         सनातन धर्मग्रन्थों मे कार्तिक पूर्णिमा का बहुत महत्व वर्णित है।यदि इस दिन कृत्तिका नक्षत्र हो तो वह महाकार्तिकी पूर्णिमा कहलाती है।भरणी नक्षत्र होने पर महापुण्या बन जाती है।रोहिणी नक्षत्र होने पर इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है।यदि इस दिन चन्द्रमा और बृहस्पति दोनो ग्रह कृत्तिका नक्षत्र पर हों तो वह महापूर्णिमा कहलाती है।इसी प्रकार कृत्तिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा नक्षत्र पर सूर्य हो तो पद्मक योग बनता है।

कथा ---

         प्राचीन काल मे तारकासुर नामक महाबलशाली असुर था।उसके तीन पुत्र थे -- तारकाक्ष ; विद्युन्माली और कमलाक्ष।जब स्वामि कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया तो ये तीनो बहुत क्रुद्ध हुए।इन्होने कठोर तप कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया और उनके वरदान स्वरूप मयदानव द्वारा निर्मित तीन पुर ( नगर ) प्राप्त कर लिया।बाद मे इन असुरों ने देव दानव मानव सबको अपने अधीन कर लिया।फलतः देवताओं के अनुरोध पर भगवान शिव जी ने कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को एक ही बाण से तीनों असुरों सहित इनके पुरों को भस्म कर दिया।
       एक अन्य कथा के अनुसार गोलोक मे एक गोपी श्रीकृष्ण की प्रिय सखी थी।एक बार वह श्रीकृष्ण के साथ विहार कर रही थी; तभी रास की अधिष्ठात्री राधा रानी ने देख लिया।उन्होंने क्रुद्ध होकर उसे मानव योनि मे जन्म लेने का शाप दे दिया। वही गोपी तुलसी नाम से राजा धर्मध्वज की पत्नी माधवी की पुत्री के रूप मे कार्तिक शुक्ल पक्ष पूर्णिमा शुक्रवार को उत्पन्न हुई।यही तुलसी चन्द्रचूड की पत्नी बनी ; जिसका शील - हरण भगवान विष्णु ने किया ।बाद मे उसे अपनी भार्या के रूप मे स्वीकार किया था।

विधि एवं माहात्म्य ----

        व्रत करने वाले को चाहिए कि वह कार्तिक पूर्णिमा को प्रातः स्नानादि करके स्वस्तिवाचन पूर्वक व्रत का संकल्प ले।फिर भगवान विष्णु का विधिवत् पूजन करे।इस दिन हाथी घोड़ा रथ घृत धेनु केला खजूर नारियल अनार संतरा कूष्माण्ड आदि दान करे तो बहुत पुण्य होता है।विशेषकर मित्र विपत्तिग्रस्त दरिद्र निर्धन आदि को दान देने से पुण्यस्वरूप बहुत अधिक सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।इस दिन अन्न जल वस्त्र आभूषण सुवर्णपात्र छत्र आदि का दान करने से इन्द्रलोक की प्राप्ति होती है।
        सन्ध्या के समय त्रिपुरोत्सव पूर्वक दीपदान करने से पुर्जन्म से मुक्ति मिल जाती है।चन्द्रोदय के समय स्वामिकार्तिकेय की छहों माताओं अर्थात् शिवा ; सम्भूति ; प्रीति ; संतति ; अनसूया क्षमा सहित कार्तिकेय का पूजन करे।साथ ही शिवा वरुण अग्नि आदि का भी पूजन करना चाहिए।इससे वीर्य शौर्य पराक्रम धैर्य आदि की वृद्धि होती है।इस दिन भगवान श्रीहरि के महामंत्र -- " ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय " का जप करने से महान पुण्य की प्राप्ति होती है।इस दिन गंगा आदि पवित्र नदियों मे स्नान करने का बहुत अधिक महत्व है।तीर्थराज प्रयाग मे संगम स्नान करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है।

Tuesday, 24 November 2015

श्रीवैकुण्ठ चतुर्दशी व्रत

        संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुख - समृद्धिपूर्ण जीवन व्यतीत कर अन्त मे वैकुण्ठ - प्राप्ति की कामना करता है।हमारे प्राचीन ऋषियों महर्षियों ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए श्रीवैकुण्ठ चतुर्दशी व्रत का विधान किया है।यह व्रत वैकुण्ठ - प्राप्ति के उद्देश्य से कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किया जाता है।इसलिए इसे वैकुण्ठ चतुर्दशी व्रत कहा जाता है।
         व्रती को चाहिए कि वह प्रातः स्नानादि दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर स्वस्तिवाचन पूर्वक व्रत का संकल्प ले।दिन भर उपवास करने के बाद रात्रि मे भगवान महाविष्णु का आवाहन करे।गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से षोडशोपचार अथवा यथालब्धोपचार पूजन करे।अन्त मे भगवान से वैकुण्ठ प्राप्ति की प्रार्थना करे।दूसरे दिन पुनः विष्णु करके ब्राह्मण भोजन कराने के बाद स्वयं शुद्ध सात्विक आहार ग्रहण करे।
        धर्मशास्त्रों मे इस व्रत की असीम महत्ता का वर्णन हुआ है।जो व्यक्ति इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करता है ; उसकी समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।भगवान विष्णु की अनुकम्पा से वह स्त्री पुत्र धन धान्य सुख समृद्धि से युक्त जीवन यापन कर अन्त मे वैकुण्ठगामी होता है।वैकुण्ठ मे उसे सम्मान जनक पद एवं प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है।अतः वैकुण्ठवास की आकाँक्षा वाले भक्तों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए।

Monday, 23 November 2015

नीराजनद्वादशी व्रत

        भगवान विष्णु के पूजन सम्बन्धी पर्वों मे नीराजन द्वादशी का महत्वपूर्ण स्थान है।यह पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाया जाता है।इसमे भगवान का नीराजन ( आरती ) किया जाता है।इसीलिए इसे नीराजन द्वादशी कहा जाता है।

कथा ---

         प्राचीन काल मे अजपाल नामक राजा राज्य करता था।उस समय लंकाधिपति रावण ने सभी देवताओं एवं राजाओं को अपने अधीन कर लिया था।एक बार उसने अपने प्रतिहार प्रसस्ति से पूछा कि यहाँ मेरी सेवा के लिए कौन-कौन राजा आये हैं।प्रसस्ति ने उत्तर दिया कि अजपाल के अतिरिक्त सभी राजागण उपस्थित हैं।रावण ने क्रुद्ध होकर अजपाल को लाने के लिए धूम्राक्ष को भेजा।अजपाल ने जाने से इनकार कर दिया और रावण के पास ज्वर को भेजा।ज्वर ने लंका पहुँच कर रावण को प्रकम्पित कर दिया।रावण ने क्षमा याचना की तब ज्वर ने उसे छोड़ दिया।उसी राजा अजपाल ने ही सर्वप्रथम नीराजन - शान्ति का आयोजन किया था।उसी के प्रभावस्वरूप उसे ये शक्तियाँ प्राप्त हुई थीं।

विधि ---

        व्रत करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह कार्तिक शुक्ला द्वादशी को स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।सायंकाल ब्राह्मणों द्वारा विष्णु - हवन का आयोजन करे।फिर गन्ध अक्षत पुष्प आदि से विधिवत पूजन कर एरण्ड के तेलयुक्त दीपकों से भगवान का नीराजन ( आरती ) करे।साथ ही लक्ष्मी चण्डिका ब्रह्मा सूर्य गौरी शंकर माता पिता गौ आदि का भी विधिवत नीराजन करे।

माहात्म्य ---

       हमारे धर्मशास्त्रों मे नीराजन - शान्ति का बहुत अधिक महत्त्व बताया गया है।इसे करने से सभी रोग शोक एवं दुःख नष्ट हो जाते हैं।सभी जगह सुख शान्ति एवं सुभिक्ष का वातावरण बन जाता है।जो भगवान विष्णु का नीराजन करता है ; वह धन-धान्य ; सुख-शान्ति ; पशुधन आदि से युक्त होकर नीरोग जीवन - यापन करता है।

Sunday, 22 November 2015

तुलसी-विवाह

           सनातन परम्परा मे तुलसी-विवाह का महोत्सव बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है।इसका आयोजन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है।
कथा ---

          प्राचीन काल मे धर्मध्वज की पुत्री तुलसी का विवाह दम्भ-पुत्र शंखचूड के साथ हुआ था।शंखचूड जब असुरों का शासक बना तब उसने देवताओं के सारे अधिकार छीन लिया।देवगण ब्रह्मा जी के पास गये।वे सभी विष्णु जी के पास गये और उनके निर्देशानुसार शिवजी से सम्पर्क किया।देवताओं के अनुरोध पर शिव जी ने शंखचूड से भयानक युद्ध किया।किन्तु वह पराजित नही हो रहा था।तब शिव जी ने अपने अमोघास्त्र त्रिशूल को उठाया।उसी समय आकाशवाणी हुई कि जब तक शंखचूड के हाथ मे श्रीहरि का कवच और उसकी पत्नी तुलसी का सतीत्व अखण्डित रहेगा।तब तक यह अवध्य बना रहेगा।
        अतः शिव जी की प्रेरणा से विष्णु जी ने पहले छल द्वारा उसका कवच माग लिया उसके बाद तुलसी का शील-हरण करने के लिए शंखचूड का रूप धारण कर उसके भवन मे प्रवेश किया।तुलसी पहचान नही पाई।उसने अपना पति जानकर उनका सत्कार किया।विष्णु ने उसके साथ रमण किया।बाद मे तुलसी को सन्देह हो गया।उसने विष्णु को पाषाण हो जाने का शाप दे दिया।विष्णु ने उसे काष्ठ होने का शाप दिया।बाद मे शिव जी के समझाने पर तुलसी ने अपना शरीर त्यागकर लक्ष्मी के समान नूतन रूप धारण कर भगवान विष्णु के साथ उनके धाम को चली गयी।विष्णु जी शालग्रामशिला और तुलसी विष्णुप्रिया तुलसी के पौधे के रूप मे प्रतिष्ठित हुए।इसी प्रसंग की स्मृति मे तुलसी-विवाह का महोत्सव होता है।

विधि --

        तुलसी-विवाह का आयोजन करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह कार्तिक शुक्ला एकादशी को व्रत एवं पूजन का संकल्प ले।किसी देवालय या शुद्ध स्थान पर विवाह हेतु सुन्दर मण्डप की रचना करे।गौरी-गणेश-कलश-नवग्रह-षोडशमातृका आदि का आवाहन-पूजन करे।गोधूलि वेला मे सुवर्ण-निर्मित विष्णु एवं तुलसी की प्रतिमा को विराजमान
करे।उसके बाद पत्नी सहित यजमान उन दोनो की विधिवत पूजा करे।फिर शास्त्रीय विधि से विष्णुरूपी वर को तुलसीरूपी कन्या का दान करे।दोनो के निमित्त वस्त्र आभूषण आदि दान कर ब्राह्मण को प्रदान करे।अन्त मे ब्राह्मण भोजन कराने के बाद स्वयं अन्न ग्रहण करे।

माहात्म्य --

        तुलसी-विवाह की महिमा अनन्त एवं अवर्णनीय है।जो व्यक्ति श्रद्धा एवं विश्वास के साथ इस महोत्सव का आयोजन करता है।उसकी समस्त मनोकामनायें पूर्ण हो जाती है।उसे स्त्री-पुत्र ; धन-धान ; सुख-समृद्धि आदि का पूर्ण सुख प्राप्त होता है।अन्त मे उसे सद्गति की प्राप्ति होती है।

भीष्मपञ्चक व्रत

         सनातन परम्परा मे भीष्मपञ्चक - व्रत की असीम महत्ता है।यह व्रत कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी से पूर्णिमा पर्यन्त किया जाता है।इसका उपदेश सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण ने महर्षि भृगु जी को किया था।बाद मे शिष्य-परम्परा से सम्पूर्ण भूलोक मे प्रचलित हो गया।द्वापरयुग के अन्त मे शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह ने इस पञ्चदिवसात्मक व्रत का  विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया था।इसीलिए इसको भीष्मपञ्चक व्रत कहा जाता है।भविष्यपुराण मे इस व्रत की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुए श्रीकृष्ण ने कहा है कि जिस प्रकार तेजस्वियों मे अग्नि ; शीघ्रगामियों मे पवन ; पूज्यों मे ब्राह्मण ; दानों मे सुवर्णदान ; लोकों मे भूर्लोक ; तीर्थों मे गंगा ; यज्ञों मे अश्वमेध यज्ञ ; शास्त्रों मे वेद और देवताओं मे अच्युत का स्थान है ; उसी प्रकार व्रतों मे भीष्मपञ्चक का महत्व है।

विधि ---

          व्रत करने वाले को चाहिए कि वह कार्तिक शुक्ला एकादशी को स्नानादि दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर स्वस्तिवाचन पूर्वक व्रत का संकल्प ले।अपने समक्ष वेदी पर सुवर्ण अथवा रजत की भगवान लक्ष्मीनारायण की सुन्दर मूर्ति स्थापित करे।दुग्ध दधि घृत मधु शर्करा एवं चन्दन-मिश्रित जल से स्नान कराकर गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से शोडशोपचार पूजन करे।इसके बाद पाँच दिनों तक व्रत करे।व्रत मे अपनी सामर्थ्य के अनुसार निराहार ; फलाहार ;एकभुक्त ( एक बार भोजन ) ; नक्तव्रत आदि मे से कोई भी करना चाहिए।इसके अतिरिक्त एकादशी को गोमय ; द्वादशी को गोमूत्र ; त्रयोदशी को दुग्ध और चतुर्दशी को दधि का प्राशन करना चाहिए।
         पाँच दिनों तक प्रतिदिन भगवान विष्णु जी का पूजन करना चाहिए।सामान्य पूजन-सामग्री के अतिरिक्त प्रथम दिन विष्णु जी के चरणार्विन्दों की पूजा कमल-पुष्पों से ; दूसरे दिन घुटनों की बिल्वपत्र से ; तृतीय दिन नाभिस्थल की केवड़ा-पुष्प से ; चतुर्थ दिन स्कन्ध प्रदेश की बिल्व एवं जपापुष्पों से और पञ्चम दिन शिरोभाग की मालती - पुष्पों से करनी चाहिए।साथ ही प्रतिदिन " ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय " इस महामंत्र का अधिकाधिक जप करना चाहिए।पाँचवें दिन पूजनोपरान्त ब्राह्मण-भोजन कराने के बाद रात्रि मे पञ्चगव्य का प्राशन करके अन्न ग्रहण करे।

माहात्म्य ---

        भीष्मपञ्चक व्रत का बहुत अधिक महत्व है।यह परम पवित्र एवं प्रबल पापनाशक व्रत है।इससे ब्रह्महत्या ; गोहत्या सदृश घोर पापों से भी मुक्ति मिल जाती है।इस व्रत को करने वाले की समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।वह समस्त सांसारिक सुखों का उपभोग करके अन्त मे परम सद्गति को प्राप्त करता है।