संकष्टचतुर्थी का व्रत प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदय-व्यापिनी चतुर्थी को किया जाता है।यदि दो दिन चन्द्रोदय-व्यापिनी हो तो प्रथम दिन करना चाहिए।यह व्रत वर्तमान एवं भावी संकट के निवारण हेतु किया जाता है।इसीलिए इसे संकष्टचतुर्थी व्रत कहा जाता है।यह व्रत गणेश - जन्म के उपलक्ष्य मे किया जाने के कारण गणेशचतुर्थी व्रत भी कहलाता है।
कथा ---
पुराणों मे गणेश-जन्म सम्बन्धी कथायें भिन्न-भिन्न रूप मे वर्णित हैं।किन्तु शिवपुराण की कथा अधिक प्रचलित है।उसके अनुसार माता पार्वती के पास नन्दी आदि अनेक द्वारपाल थे किन्तु उनकी त्रुटियों के कारण वे बहुत खिन्न थीं।उन्होंने अपने लिए निजी द्वारपाल रखने का मन बनाया।अतः एक दिन उन्होंने अपने शरीर की मैल से एक बालक का निर्माण कर उसमे प्राणसंचार किया।उसे वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर कहा कि तुम मेरे पुत्र हो।तुम केवल मेरी आज्ञा मानो और आज से मेरे द्वारपाल बन जाओ।मेरी आज्ञा के बिना कोई भी महल के अन्दर प्रवेश न करने पाये।
इस प्रकार उस बालक को द्वार पर नियुक्त कर पार्वती जी अपने महल मे स्नान करने चली गयीं।उसी समय शिव जी आ गये और अन्दर प्रवेश करने लगे।बालक ने उन्हें विनयपूर्वक रोकना चाहा किन्तु शिव जी हठ कर बैठे।दोनो मे भयानक युद्ध आरम्भ हो गया।अन्त मे शिव जी ने अपने त्रिशूल से बालक का सिर काट डाला।जब यह समाचार पार्वती जी को मिला तो वे बहुत क्रुद्ध हुईं।उन्होंने अपनी शक्तियों को उत्पन्न करके उन्हें प्रलय करने की आज्ञा दे दी।सभी लोकों मे हाहाकार मच गया।देवताओं ने माता जी की स्तुति किया तब उन्होने कहा कि मेरा पुत्र जीवित हो जाय और वह तुम लोगों के मध्य पूज्य मान लिया जाय।तभी यह संहार रुकेगा।
बाद मे शिव जी की आज्ञानुसार उत्तर दिशा से एक दाँत वाले गजबालक का सिर लाकर जोड़ा गया।इस प्रकार वह मृत बालक जीवित हो गया।देवताओं ने उसे अग्रपूज्य होने का आशीष दिया।शिव जी ने उसे अपने समस्त गणों का अध्यक्ष नियुक्त किया।इसीलिए उसका नाम गणेश ( गणानाम् ईशः गणेशः = गणो का स्वामी ) रखा गया।बाद मे शिव जी ने कहा कि हे गणेश्वर तुम्हारा जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को चन्द्रोदयकाल मे हुआ है।अतः उसी तिथि मे तुम्हारा उत्तम व्रत करना चाहिए।
व्रत एवं पूजन विधि ---
यद्यपि गणेश जी का जन्म भाद्रपद मास मे हुआ है किन्तु शिवपुराण मे उनके व्रत का आरम्भ मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्थी से करना चाहिए।अतः व्रती प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।फिर उपवास करते हुए सुवर्ण मूगा श्वेतमदार या मिट्टी की गणेश-प्रतिमा स्थापित कर उसकी प्राणप्रतिष्ठा करे।भक्तिभाव से गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से षोडशोपचार पूजन करे।रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत होने पर पुनः स्नान करके दूर्वादलों से गणेशपूजन करे।यह दूर्वा जड़रहित ; बारह अंगुल लम्बी और तीन गाँठों वाली होनी चाहिए।इस प्रकार की एक सौ एक अथवा इक्कीस दूर्वा अर्पित करनी चाहिए।फिर धूप दीप पुष्प आदि से गणेश जी का विधिवत पूजन करे।इसकेबाद चन्द्रोदय होने पर चन्द्रमा का पूजन कर निम्नलिखित मंत्र से अर्घ्य प्रदान करे ---
ज्योत्सनापते नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्योतिषां पते।
नमस्ते रोहिणीकान्त गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते।।
इसके बाद गणेश जी को अर्घ्य प्रदान करे --
गणेशाय नमस्तुभ्यं सर्वसिद्धिप्रदायक ।
संकष्टं हर मे देव गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते।।
फिर तिथि को अर्घ्य देकर गणेश जी की प्रार्थना करके विसर्जन करे।
माहात्म्य ---
पुराणों मे संकष्टचतुर्थी व्रत की असीम महत्ता वर्णित है।इसके प्रभाव से व्रती के वर्तमान एवं भावी संकट सदैव के लिए नष्ट हो जाते हैं।उसको समस्त सिद्धियाँ हस्तगत हो जाती हैं।सभी कार्यों मे शीघ्रातिशीघ्र सफलता प्राप्त हो जाती है।उसे जिस जिस वस्तु की अभिलाषा होती है ; वे सभी वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं। इस व्रत से स्त्रियों के सौभाग्य की वृद्धि होती है।विशेषकर संकटनाशन हेतु इससे अच्छा कोई व्रत होता ही नहीं है।