सनातन धर्म मे महाकार्तिकी व्रत की असीम महत्ता वर्णित है।यह महापर्व तब होता है ; जब कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को कृत्तिका नक्षत्र मे चन्द्रमा और बृहस्पति दोनो ग्रह विद्यमान हों अथवा उस दिन सोमवार हो।यह सुयोग महाकार्तिकी के नाम से विख्यात है।ऐसा सुयोग अनेक वर्षों के बाद उपलब्ध होता है।
कथा ---
प्राचीन काल मे मध्यदेश के वृषस्थल नामक स्थान पर दिलीप नामक राजा राज्य करता था।उसकी कलिंगभद्रा नामक परम धार्मिक एवं सर्वगुण सम्पन्ना महारानी थी।एक बार महारानी ने छः मास के लिए कृत्तिका - व्रत का संकल्प लिया किन्तु दुर्भाग्यवश व्रतोद्यापन के पूर्व ही सर्प ने डस लिया और उसकी मृत्यु हो गयी।दूसरे जन्म मे वह बकरी की योनि मे उत्पन्न हुई।उसने पूर्व जन्म की स्मृति के आधार पर पुनः व्रत करना आरम्भ कर दिया।एक बार वह एक खेत मे चर रही थी ; तभी भूस्वामी ने उसे पकड़ कर अपने घर पर बाँध दिया।उसी समय महर्षि अत्रि आ गये।उन्होने बकरी को देखते ही जान लिया कि यह तो रानी कलिंगभद्रा है।ऋषि के कारण मुक्त होकर उसने बेर की पत्ती खाकर पारणा किया।ऋषिवर ने उसे योगज्ञान का उपदेश दिया।
कुछ दिनो बाद उस बकरी ने योगबल से प्राण त्याग किया और महर्षि गौतम की पत्नी अहल्या के गर्भ से पुत्री रूप मे उत्पन्न हुई।उसका नाम योगलक्ष्मी रखा गया।युवावस्था मे उसका विवाह महर्षि शाण्डिल्य के साथ हुआ।एक बार महर्षि अत्रि आये और योगलक्ष्मी को मंत्र सहित कृत्तिका - व्रत का उपदेश दिया।योगलक्ष्मी ने उस व्रत के प्रभाव से समस्त सांसारिक सुखों का भोगकर मोक्ष प्राप्त किया।
व्रत - विधि --
उपर्युक्त सुयोग आने पर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को स्नानादि कर स्वस्तिवाचन - पूर्वक व्रत का संकल्प ले।व्रत मे पूर्ण निराहार अथवा नक्तव्रत ( रात्रि मे एक बार भोजन ) किया जा सकता है।यदि सुविधा हो तो पुष्कर ; प्रयाग ; नैमिषारण्य ; अमरकण्टक ; कुरुक्षेत्र आदि मे से किसी तीर्थ मे अथवा घर पर ही स्नान करे।सायंकाल घी अथवा दूध से भरे हुए छःपात्रों मे सुवर्ण ; रजत ; रत्न ; नवनीत ; अन्नकण एवं पिष्ट से निर्मित छः कृत्तिकाओं की प्रतिमायें स्थापित करे।लाल धागे से लपेट कर गन्ध अक्षत पुष्प सिन्दूर कुंकुम धूप दीप नैवेद्य आदि से विधिवत पूजन करे।इसके पश्चात् निम्नलिखित मंत्र से ब्राह्मण को मूर्ति का दान करे ---
ऊँ सप्तर्षिदारा ह्यनलस्य वल्लभा
या ब्रहमणा रक्षितयेति युक्ताः ।
तुष्टाः कुमारस्य यथार्थमातरो
ममापि सुप्रीततरा भवन्तु ।।
मूर्ति ग्रहण करते समय ब्राह्मण भी निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करे --
धर्मदाः कामदाः सन्तु इमा नक्षत्रमातरः।
कृत्तिका दुर्गसंसारात् तारयन्त्वावयोः ।।
दान लेकर जब ब्राह्मण जाने लगे तब यजमान भी उनके पीछ पीछे छः पग चले।
माहात्म्य ----
महाकार्तिकी - व्रत का बहुत अधिक महत्व है।यह सुयोग बहुत दिनो बाद केवल पुण्यशाली व्यक्तियों को ही प्राप्त होता है।जो पुरुष इस व्रत को करता है ; वह अत्यन्त देदीप्यमान विमान पर बैठकर नक्षत्रलोक मे जाता है।इस व्रत को करने वाली स्त्री अपने पति सहित नक्षत्रलोक मे जाती है और दीर्घकाल तक दिव्य भोगों का उपभोग करने का सौभाग्य प्राप्त करती है।
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