Tuesday, 17 November 2015

सूर्यषष्ठी व्रत

         सूर्यषष्ठी का व्रत भगवान सूर्य नारायण की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।इसका मुख्य व्रत कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को होता है।इसमे सम्पूर्ण पूजन सामग्री डाला मे भरकर पुरुष अपने शिर पर उठाकर चलता है।इसलिए इसे डाला छठ भी कहा जाता है।प्रारम्भ मे यह व्रत केवल बिहार प्रान्त तक ही सीमित था।बाद मे इस प्रदेश के निवासी जहाँ - जहाँ गये अथवा जिन जिन स्थानों के लोग इनके सम्पर्क मे आये ; वहाँ वहाँ इस व्रत का प्रचार होता गया।इस समय विश्व के अनेक देशों मे इसका प्रचलन दिखाई देता है।भारत का शायद ही कोई ऐसा प्रान्त हो ; जहाँ इसकी मान्यता न हो।विशेषकर भारत के पूर्वी राज्यों मे यह पर्व बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।
           इस व्रत को बहुत श्रद्धा ; निष्ठा ; शुद्धता एवं आस्था के साथ किया जाता है।यह त्रिदिवसात्मक होने के कारण अत्यन्त कठिन व्रत है।इस व्रत का आरम्भ महाभारत काल से माना जाता है।जब पाण्डव सब कुछ हार गये थे ; तब इस व्रत को कुन्ती ने किया था।बाद मे इसी के सुप्रभाववश उन्हें राजपाठ पुनः प्राप्त हो गया था।इसी मान्यता के आधार पर इस व्रत का आरम्भ हुआ।इसे केवल पुत्रवती महिलायें करती हैं।इस व्रत के प्रभाव से वे सदै पति-पुत्र ; धन-धान्य ; सुख-समृद्धि आदि से परिपूर्ण रहती हैं।उन्हें जीवन मे किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है।उनकी  समस्त मनोकामनायें पूर्ण हो जाती हैं।वे समस्त सांसारिक सुखों का उपभोग कर अन्त मे परमगति को प्राप्त करती हैं।

व्रत-विधि ------ यह व्रत तीन दिनों का होता है।इसका सम्पूर्ण कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित है ---

नहाय - खाय ---
         सूर्यषष्ठी व्रत का आरम्भ कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होता है।व्रत करने वाली महिलायें इस दिन प्रातः गंगा आदि पवित्र नदियों मे स्नान करके व्रत का संकल्प लेती हैं।इस दिन साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाता है।पूरे घर को साफ कर गंगा जल छिड़क कर उसे पवित्र किया जाता है।दिन भर उपवास के बाद शाम को एक बार शुद्ध सात्विक आहार ग्रहण किया जाता है।इसमे लौकी की सादी सब्जी ; चना की दाल और अरवा चावल लेने का विधान है।इस दिन शुद्ध-स्नान और सात्विक आहार लेने की प्रधानता के कारण ही इसे " नहाय-खाय " के नाम से जाना जाता है।

खरना ----
            दूसरे दिन पञ्चमी को खरना होता है।इस दिन भी उपवास किया जाता है।शाम को पवित्र स्थान पर गन्ने के रस अथवा गुड़ मिश्रित चावल की खीर बनायी जाती है।चन्द्रोदय होने पर इसी खीर को खरना का प्रसाद मानकर ग्रहण किया जाता है।

सान्ध्य-कालीन सूर्यार्घ्य ---
           षष्ठी को निर्जला व्रत किया जाता है।शाम होने के पूर्व ही सूर्य नारायण को भोग लगाने हेतु अनेक प्रकार के फल-फूल ; मिष्ठान्न-पक्वान्न ; पान ; सुपाड़ी ; अक्षत; दूध आदि पूजन सामग्री डाला मे रखा जाता है।फिर पुरुष उसे अपने शिर पर रखकर नदी की ओर प्रस्थान करता है।उनके पीछे व्रती महिलायें अपनी सखियों के साथ मंगल-गान करती हुई चलती हैं।सम्पूर्ण पूजन सामग्री नदी-तट पर सजाकर रख दी जाती है।व्रती महिला बाँस के सूप मे फल फूल मीठा पक्वान्न दीपक आदि लेकर नदी मे घुसकर खड़ी हो जाती है।वह भगवान सूर्य नारायण की ओर देखती रहती है।इस समय वाल्मीकीय रामायण के आदित्य - हृदय स्तोत्र अथवा अन्य स्तोत्रों के द्वारा भगवान सूर्य नारायण की स्तुति की छाती है।महिलायें मंगलगान करती रहती हैं।बाद मे अस्ताचलगामी सूर्य का पूजन कर जल से अर्घ्य दिया जाता है।सूर्यार्घ्य देते समय  सर्वविध कल्याण की कामना की जाती है।इसके बाद घर लौट आती हैं और मंगलगान करती हुई रात्रि जागरण करती है।

अरुणोदय कालीन सूर्यार्घ्य ---
         सप्तमी को अरुणोदय काल के पूर्व ही व्रती महिलायें पुनः मंगलगान करती हुई नदी के जल मे प्रवेश कर सूर्योदय की प्रतीक्षा करती हैं।लालिमा फूटने पर दूध से सूर्यार्घ्य देती सैं।इसके बाद वे जल ग्रहण करती हैं।इस प्रकार तीन दिनों की कठिन तपस्या के बाद चौथे दिन व्रत का समापन होता है।बाद मे सूर्य नारायण को भोग लगायी गयी सामग्री को प्रसाद रूप मे वितरित किया जाता है।

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