जयापञ्चमी का पावन व्रत कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को होता है।इस व्रत मे जया देवी के पूजन की प्रधानता होने के कारण ही जया व्रत भी कहा जाता है।व्रती को चाहिए कि वह प्रातः गंगा आदि पवित्र नदी मे स्नान करे।यदि गंगा - स्नान सम्भव न हो तो गंगा आदि पवित्र नदियों सहित तीर्थों का स्मरण करते हुए शुद्ध जल से स्नान करे।उसके बाद अपने दैनिक पूजन-कृत्य से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।
पूजन हेतु पूर्वाभिमुख होकर शुभ आसन पर बैठ जाय।अपने समक्ष चौकी आदि पर सर्वप्रथम भगवान श्रीहरि की स्थापना करे।उसके पश्चात् उनके वाम भाग मे जया देवी की स्थापना करे।इसके बाद गन्ध ; पुष्प ; अक्षत आदि के द्वारा षोडशोपचार पूजन करे।इस अवसर पर श्रीहरि के समस्त अंगों की पूजा की जाती है।पूजनकार्य अंगनाम - मंत्रों द्वारा किया जा सकता है।पूजनोपरान्त इस मंत्र से अर्घ्य प्रदान करें ---
जयाय जयरूपाय जय गोविन्दरूपिणे ।
जय दामोदरायेति जय सर्वं नमोऽस्तु ते ।।
इसके बाद बाँस के किसी पात्र मे सप्तधान्य भरकर ब्राह्मण को दान करें।फिर एक वस्त्र मे गन्ध ; अक्षत ; पुष्प ; सरसों ; दूर्वा आदि वस्तुयें रखकर छोटी सी पोटली बनाये।उसके बाद निम्नलिखित मंत्र से उसे रक्षासूत्र की भाँति हाथ मे बाँध लें-----
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः ।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ।।
सनातन परम्परा मे इस व्रत का बहुत अधिक महत्व है।इसे घोर पापनाशक माना गया है।विद्वानों का विचार है कि इस व्रत को करने से ब्रह्महत्या सदृश जघन्य पापों से भी मुक्ति मिल जाती है।साथ ही व्रती की समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।वह समस्त सांसारिक सुखों का उपभोग कर अन्त मे परमगति को प्राप्त होता है।
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