पौष कृष्ण पक्ष --
--------------
1-- पौष कृष्ण प्रतिपदा
2-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
3-- रुक्मिणी अष्टमी
4-- अष्टका श्राद्ध
5-- अन्वष्टका श्राद्ध
6-- सफला एकादशी व्रत
7-- सम्प्राप्ति द्वादशी व्रत
8-' प्रदोष व्रत
9-- मास शिवरात्रि व्रत
पौष शुक्ल पक्ष ---
---------------'
1-- आरोग्य व्रत
2-- विधि पूजन व्रत
3-- मार्तण्ड सप्तमी व्रत
4-- मकर संक्रान्ति
5-- पुत्रदा एकादशी व्रत
6-- प्रदोष व्रत
7-- ईशान व्रत
8-- शाकम्भरी जयन्ती
9-' पौष पूर्णिमा
माघ कृष्ण पक्ष ---
-----------------'
1-- माघ स्नान
2-- प्रयाग माहात्म्य
3-- कल्पवास
4-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
5-' त्रिप्राप्ति सप्तमी व्रत
6-- सर्वाप्ति सप्तमी व्रत
7-- निक्षुभार्क सप्तमी व्रत
8-- षट् तिला एकादशी व्रत
9-- तिल द्वादशी व्रत
10-- प्रदोष व्रत
11-- मास शिवरात्रि व्रत
12-- मौनी अमावस्या
माघ शुक्ल पक्ष ---
----------------'--
1-- ललिता तृतीया व्रत
2-- रसकल्याणिनी व्रत
3-- गौरी तृतीया व्रत
4-- शान्ता चतुर्थी व्रत
5-- वसन्त पञ्चमी
6-- विशोक षष्ठी व्रत
7-- मन्दार षष्ठी व्रत
8-- अचला सप्तमी व्रत
9-- जयन्ती सप्तमी व्रत
10-- जया एकादशी व्रत
11-- प्रदोष व्रत
12-' माघी पूर्णिमा
फाल्गुन कृष्ण पक्ष ---
---------''---------
1-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
2-- सीताष्टमी व्रत
3-- विजया एकादशी व्रत
4-- प्रदोष व्रत
5-' महा शिवरात्रि व्रत
6-- फाल्गुनी अमावस्या
फाल्गुन शुक्ल पक्ष ---
--------------------
1-- मधूक तृतीया व्रत
2-- कामदा सप्तमी व्रत
3-- त्रिवर्ग सप्तमी व्रत
4-- अर्कपुट सप्तमी व्रत
5-- आमलकी एकादशी व्रत
6-' मनोरथ द्वादशी व्रत
7-- सुकृत द्वादशी व्रत
8-- प्रदोष व्रत
9-- मनोरथ पूर्णिमा व्रत
10-- अशोक पूर्णिमा व्रत
11-- होली
वार व्रत -----
---------
1- रविवार व्रत
2--जयन्त रविवार व्रत
3-- पुत्रद रविवार व्रत
4-- सोमवार व्रत
5-- मंगलवार व्रत
6-- बुधवार व्रत
7-- गुरुवार व्रत
8-- शुक्रवार व्रत
9-' शनिवार व्रत
10-- भानु सप्तमी व्रत
11-- सोमाष्टमी व्रत
12-- सोमवती अमावस्या
13-- अंगारक चतुर्थी व्रत
14-- बुधाष्टमी व्रत
15-- युगादि तिथियाँ
16-- पुरुषोत्तमी कमला एकादशी व्रत
17-- पुरुषोत्तमी कामदा एकादशी व्रत
Friday, 29 July 2016
क्रमशः
क्रमशः
आश्विन कृष्ण पक्ष ---
---------------------
1-- पितृ पक्ष
2-- मेघपाली तृतीया
3-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
4-- कपिला षष्ठी व्रत
5-- पुत्रीय व्रत
6-- मातृ नवमी
7-- इन्दिरा एकादशी व्रत
8-- प्रदोष व्रत
9-- मास शिवरात्रि व्रत
10-- दुर्मरण श्राद्ध
11-- पितृ विसर्जन
आश्विन शुक्ल पक्ष ---
---------------------
1-- अशोक व्रत
2-- नवरात्र
3-- बिल्व पूजन
4-- शुभ सप्तमी व्रत
5-- जीवत्पुत्रिका व्रत
6-- महाष्टमी व्रत
7-- महानवमी व्रत
8-- देवी विसर्जन
9-उल्का नवमी व्रत
10- विजया दशमी
11-- अपराजिता पूजन
12-- दिग्दशमी व्रत
13-- पापांकुशा एकादशी व्रत
14-- पद्मनाभ द्वादशी व्रत
15-' प्रदोष व्रत
16-- कोजागरी
17-- शरत्पूर्णिमा
कार्तिक कृष्ण पक्ष ---
--------------------
1-- कार्तिक स्नान
2-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
3-- करक चतुर्थी ( करवा चौथ )
4-- रमा एकादशी व्रत
5-- प्रदोष व्रत
6-- मास शिवरात्रि व्रत
7-- धन्वन्तरि जयन्ती
8-- धनतेरस को यम दीपदान
9-- हनुमज्जयन्ती
10-- दीपावली
कार्तिक शुक्ल पक्ष ---
-------------------'
1-- गोवर्धन पूजा
2-- यम द्वितीया ( भैया दूज )
3-- जया पञ्चमी व्रत
4-- सूर्य षष्ठी व्रत
5-- वह्नि महोत्सव
7-- शाक सप्तमी
8-- शाक सप्तमी व्रत की कथा एवं विधान
9-- गोपाष्टमी
10-- अक्षय नवमी
11-- आशा दशमी व्रत
12-- प्रबोधिनी एकादशी व्रत
13-- भीष्मपञ्चक व्रत
14-- तुलसी विवाह
15-- नीराजन द्वादशी व्रत
16-- प्रदोष व्रत
17-- श्री वैकुण्ठ चतुर्दशी व्रत
18-- कार्तिक पूर्णिमा
19-- महा कार्तिकी व्रत
मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष ---
--------------------'
1-- धन्य व्रत
2-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
3-- भैरव जयन्ती
4-- अनघाष्टमी व्रत
5-- उत्पन्ना एकादशी व्रत
6-- प्रदोष व्रत
7-- मास शिवरात्रि व्रत
मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष ---
------------------
1-- अवियोग तृतीया
2-- उमामहेश्वर व्रत
3-- रम्भा तृतीया व्रत
4-- श्रीपञ्चमी व्रत
5-- श्रीराम-जानकी विवाह महोत्सव
6--स्कन्द षष्ठी व्रत
7-- फल सप्तमी व्रत
8-- नन्दा सप्तमी व्रत
9-- मित्र सप्तमी व्रत
10-- मोक्षदा एकादशी व्रत
11-- गीता जयन्ती
12-- अखण्ड द्वादशी व्रत
13-- तारक द्वादशी व्रत
14-- प्रदोष व्रत
15-- अनंग त्रयोदशी व्रत
16-- यमादर्शन
17-- अबाधक व्रत
18-- शिव चतुर्दशी व्रत
19--पिशाचमोचन यात्रा
20-- श्रवणिका व्रत
21-- सर्वफलत्याग चतुर्दशी व्रत
22-- दत्तात्रेय जयन्ती
व्रतानुक्रमणिका
व्रत के सामान्य नियम
पारिभाषिक शब्दावली
चैत्र कृष्ण पक्ष -----
------------------
1-- गौरी व्रत
2-- वसन्तोत्सव ( होली महोत्सव )
3-- ब्रह्मा-पूजन
4-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
5-- सन्तानाष्टमी
6-- शीतलाष्टमी व्रत
7-- पापमोचनी एकादशी व्रत
8-- वारुणी योग
9-- प्रदोष व्रत
10-- मास शिवरात्रि व्रत
11-- पिशाच चतुर्दशी
12-- केदार कुण्डोदक पान
13-- चैत्री अमावस्या
14-- अमावस्या स्नान दान व्रतादि
चैत्र शुक्ल पक्ष ---
-----------------
1-- संवत्सर पूजन
2-- नवरात्र
3-- नवरात्र मे देवी-उपासना विधि
4-- नवरात्र मे कुमारी पूजन
5-- माता शैलपुत्री
6-- माता ब्रह्मचारिणी
7-- माता चन्द्रघण्टा
8-- माता कूष्माण्डा
9-- स्कन्दमाता
10-- माता कात्यायनी
11-- माता कालरात्रि
12-- माता महागौरी
13-- माता सिद्धिदात्री
14-- मत्स्य जयन्ती
15-- दमनक तृतीया व्रत
16-- सौभाग्य शयन व्रत
17-- सरस्वती व्रत
18-- स्कन्द षष्ठी व्रत
19-- दुर्गाष्टमी
20-- अशोकाष्टमी व्रत
21-- श्रीरामनवमी व्रत
22-- कामदा एकादशी व्रत
23 -- मदन द्वादशी व्रत
24-- विभूति द्वादशी व्रत
25-- प्रदोष व्रत
26-- काम त्रयोदशी व्रत
27-- चैत्र पूर्णिमा
28-- पूर्णिमा व्रत
वैशाख कृष्ण पक्ष ---
---------------------
1-- वैशाख मे विष्णु पूजन
2-- वैशाख स्नान का महत्त्व
3-- वैशाख मे दान एवं व्रत
4-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
5-- चण्डिका नवमी व्रत
6-- वरूथिनी एकादशी व्रत
7-- प्रदोष व्रत
8-- मास शिवरात्रि व्रत
9-- वैशाख अमावस्या
वैशाख शुक्ल पक्ष ---
---------------------
1-- अक्षय तृतीया व्रत
2-- परशुराम जयन्ती
3-- गंगा सप्तमी
4-- निम्ब सप्तमी व्रत
5-- शर्करा सप्तमी व्रत
6-- सीता नवमी ( जानकी नवमी )
7-- मोहिनी एकादशी व्रत
8-- मधुसूदन पूजा
9-- प्रदोष व्रत
10-- नृसिंह जयन्ती
11-- पुष्करिणी
12-- वैशाख पूर्णिमा
ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष ---
---------------------
1-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
2-- अचला एकादशी व्रत
3-- प्रदोष व्रत
4-- मास शिवरात्रि वूरत
5-- वट सावित्री व्रत
ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष ---
-------------------
1-- रम्भा तृतीया व्रत
2-- गंगा दशहरा
3-- निर्जला एकादशी वूरत
4-- प्रदोष व्रत
5-- दुर्गन्धि दुर्भाग्य नाशक व्रत
6-- बिल्व त्रिरात्रि व्रत
7-- ज्येष्ठ पूर्णिमा व्रत
आषाढ़ कृष्ण पक्ष ---
---------------------
1-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
2-- योगिनी एकादशी व्रत
3-- प्रदोष व्रत
4-- मास शिवरात्रि व्रत
आषाढ़ शुक्ल पक्ष ----
--------'----------
1-- रथयात्रा
2-- विवस्वान् व्रत
3-- हरिशयनी एकादशी व्रत
4-- प्रदोष व्रत
5-- कोकिला व्रत
6-- गुरुपूर्णिमा ( व्यासपूजा )
श्रावण कृष्ण पक्ष ---
-------------------
1-- मंगला गौरी व्रत
2-- श्रावण मे शिव पूजन
3-- श्रावण सोमवार व्रत
4-- अशून्य शयन व्रत
5-- कज्जली तृतीया व्रत
6-- स्वर्णगौरी व्रत
7-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
8-- शीतला सप्तमी व्रत
9-- अम्बिका पूजन
10-- कामदा ( कामिका ) एकादशी व्रत
11-- रोहिणी व्रत
12---प्रदोष व्रत
13-- मास शिवरात्रि व्रत
14-- हरियाली अमावस्या व्रत
श्रावण शुक्ल पक्ष ---
--------------
1-- दूर्वा गणपति व्रत
2-- नाग पञ्चमी
3-- अव्यंग सप्तमी
4--पुत्रदा एकादशी व्रत
5-- दधि व्रत
6-- श्रीविष्णु पवित्रारोपण ( पवित्रार्पण )
7-- प्रदोष व्रत
8-- रक्षा-बन्धन
9-- श्रवण पूजन
10-- ऋषि तर्पण ( उपाकर्म )
भाद्रपद कृष्ण पक्ष --
1-- कज्जली तृतीया
2-- संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत
3-- बहुला चतुर्थी व्रत
4-- हलषष्ठी व्रत ( ललही छठ )
5-- चन्द्रषष्ठी व्रत
6-- अक्षय षष्ठी व्रत
7-- श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
8-- अजा एकादशी व्रत
9-- प्रदोष व्रत
10-- मास शिवरात्रि व्रत
11-- कुशोत्पाटिनी अमावस्या
भाद्रपद शुक्ल पक्ष --
--------------------
1-- हरितालिका व्रत
2-- हरकाली व्रत
3-- गोष्पद तृतीया व्रत
4-- चन्द्रदर्शन निषिद्ध
5-- शिवा चतुर्थी व्रत
6-- ऋषि पंचमी व्रत
7-- भद्रादित्य व्रत
8-- ललिता षष्ठी व्रत
9-- अपराजिता सप्तमी व्रत
10-- फल सप्तमी व्रत
11-- अनन्त सप्तमी व्रत
12-- मुक्ताभरण सप्तमी व्रत
13-- श्रीराधाष्टमी व्रत
14-- दूर्वाष्टमी व्रत
15-- महालक्ष्मी व्रत
16-- श्रीवृक्ष नवमी व्रत
17-- दशावतार व्रत
18-- पद्मा एकादशी व्रत
19-- विजय श्रवण व्रत
20-- श्रवण द्वादशी व्रत
21-- प्रदोष व्रत
22-- अनन्त चतुर्दशी व्रत
23-- पाली व्रत
24-- कदली व्रत
Tuesday, 26 July 2016
श्रावण की मास-शिवरात्रि 2016 का दुर्लभयोग -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
सामान्य रूप से प्रत्येक मास की कृष्णपक्षीया चतुर्दशी को पड़ने वाली मास-शिवरात्रि शिव-पूजन के लिए बहुत शुभ मानी जाती है।परन्तु श्रावण महीने की मास-शिवरात्रि का विशेष महत्त्व है।संयोगवश इस वर्ष की श्रावण मास की शिवरात्रि और अधिक महत्त्वपूर्ण हो गयी है।
यह मास-शिवरात्रि 01 अगस्त 2016 को पड़ रही है।उस दिन सोमवार भी है।इसलिए श्रावण मास के सोमवार को पड़ने वाली यह मास-शिवरात्रि शिव-पूजन के लिए दुर्लभ योग उपस्थित कर रही है।
यह चतुर्दशी एक ओर त्रयोदशी को स्पर्श कर रही है दूसरी ओर अमावस्या को भी स्पर्श करने के कारण त्रिस्पर्शा योग बन रहा है।यह सुयोग शिव-पूजन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।अतः प्रत्येक शिवभक्त को इस सुयोग का लाभ उठाना चाहिए।
Friday, 22 July 2016
मत्स्यावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे मत्स्यावतार की गणना दशम स्थान पर की गयी है।चाक्षुष मन्वन्तर के अन्त मे जब सम्पूर्ण त्रिलोकी प्रलय-सागर मे डूब रही थी ; तब भगवान श्रीहरि ने मत्स्य ( मछली ) के रूप मे दशम अवतार ग्रहण किया और पृथ्वी रूपी नौका पर बैठाकर अग्रिम मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की थी ---
रूपं स जगृहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसम्प्लवे।
नाव्यारोप्य महीमय्यामपाद्वैवस्वतं मनुम्।।
प्राचीन काल मे सत्यव्रत नामक महाप्रतापी शासक थे।दीर्घकाल तक प्रजारक्षण करने के बाद वे अपने पुत्रों को राज्यभार सौंपकर तप करने चले गये।एक दिन वे कृतमाला नदी मे तर्पण कर रहे थे ; उसी समय उनकी अंजलि मे एक मछली आ गयी।उन्होंने उसको पुनः उसी नदी मे डाल दिया।तब मछली ने कहा राजन् ! जल मे रहने वाले जीव-जन्तुओं के भय से ही मै आपकी शरण मे आई हूँ।इसलिए मुझे इस नदी मे मत डालिये।बल्कि मुझे कहीं अन्यत्र रखकर मेरी रक्षा की व्यवस्था कीजिए।इसे सुनकर राजा ने उसे अपने कमण्डलु के जल मे डाल दिया और उसे अपने आश्रम मे ले आये।
अब भगवान् श्रीहरि ने अपनी लीला दिखानी आरम्भ कर दी।रात भर मे वह मछली इतनी बड़ी हो गयी कि कमण्डलु मे रहने के लिए स्थान ही न रहा।राजा ने उसे मटके मे डाल दिया।वह वहाँ भी बहुत अधिक बढ़ गयी।राजा ने उसे एक सरोवर मे डाल दिया।थोड़ी ही देर मे वह सम्पूर्ण सरोवर मे फैल गयी।राजा ने उसे अनेक विशाल सरोवरों मे डाला किन्तु कहीं भी उसके रहने योग्य स्थान नहीं मिला।अन्त मे राजा ने उसे समुद्र मे डाल दिया।तब मछली ने राजा से कहा -- राजन् समुद्र मे बड़े-बड़े मकर आदि जलजन्तु रहते हैं।वे मुझे खा जायेंगे।इसलिए मुझे समुद्र मे मत डालिए।
मछली की बात सुनकर राजा मोहमुग्ध हो गये।उन्होंने पूछा -- मत्स्यरूप धारण करने वाले आप कौन हैं ? आपने एक ही दिन मे चार सौ कोस वाले सरोवर को घेर लिया है।इससे मुझे प्रतीत होता है कि आप साक्षात् सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि ही हैं।जीवों पर अनुग्रह करने के लिए ही आपने यह रूप धारण किया है।आपने जिस रूप मे मुझे दर्शन दिया है ; वह बहुत विचित्र एवं अद्भुत है।राजा की विनम्र वाणी को सुनकर भगवान् मत्स्य प्रसन्न हो गये।उन्होंने बताया कि आज से सातवें दिन तीनो लोक प्रलय-सागर मे डूब जायेंगे।उस समय एक विशाल नौका आयेगी।उस पर तुम सप्तर्षियों के साथ बैठ जाना।अपने साथ समस्त धान्यों एवं अन्य प्रकार के बीजों को भी रख लेना।जब सागर लहराने लगे ; अन्धकार बढ़ने लगे ; और नौका डगमगाने लगे तब मै इसी रूप मे आऊँगा।तुम नागवासुकि को रस्सी बनाकर इस नौका को मेरी सींग मे बाँध देना।मै ब्रह्मा जी की रात भर के समय तक तुम्हें उसी नौका पर बैठाकर समुद्र मे विचरण करूँगा।उसी समय मेरे उपदेश के द्वारा तुम्हारे हृदय मे परब्रह्म की महिमा का उदय हो जायेगा।इतना कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये।
कालान्तर मे प्रलय का समय आ गया।मूसलाधार वर्षा से समुद्र बढ़ने लगा और पृथ्वी डूबने लगी।उसी समय नौका आ गयी।सप्तर्षियों सहित राजा सत्यव्रत उस पर सवार हो गये।मत्स्य भगवान भी प्रकट हो गये।उनकी सींग मे नौका बाँध दी गयी।राजा सत्यव्रत भगवान की स्तुति करने लगे।मत्स्य भगवान ने प्रलय-सागर मे विहार करते हुए राजा को आत्मतत्त्व का उपदेश दिया।दीर्घकाल बाद प्रलय का अन्त हुआ और भगवान की कृपा से राजा सत्यव्रत इस कल्प मे वैवस्वत मनु हुए।इस प्रकार मत्स्य भगवान ने अपनी लीला के द्वारा राजा सत्यव्रत की रक्षा करके उन्हें इस मन्वन्तर का अधिपति बना दिया।
Thursday, 21 July 2016
पृथु अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे आदिराज पृथु अवतार की गणना नवम स्थान पर की गयी है।यह अवतार ऋषियों की प्रार्थना पर हुआ है।इसमे उन्होंने पृथ्वी से समस्त ओषधियों का दोहन किया था।इसलिए यह अवतार सबके लिए कल्याणकारी सिद्ध हुआ ----
ऋषिभिर्याचितो भेजे नवमं पार्थिवं वपुः।
दुग्धेमामोषधीर्विप्रास्तेनायं स उशत्तमः।।
स्वायम्भुव मनु के वंश मे अंग नामक एक प्रतापी राजा हुए।उनका विवाह मृत्यु की मानस-पुत्री सुनीथा के साथ हुआ।इससे वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।वेन बहुत दुष्ट एवं क्रूरकर्मा था।उसकी दुष्टता से ऊबकर राजा अंग स्वदेश छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गये और फिर वापस नहीं लौटे।अब राजा के अभाव मे पूरे राज्य मे अव्यवस्था फैल गयी।अतः विवश होकर भृगु आदि ऋषियों ने वेन को राजा बना दिया।वह राजा बनते ही घोर अत्याचार करने लगा।उसने सारे धर्म-कर्म बन्द करवा दिया।ऋषियों ने उसे समझाने का प्रयास किया किन्तु वह नहीं माना।अतः ऋषियों-मुनियों ने उसे मारने का निश्चय कर लिया।परन्तु वह तो भगवान की निन्दा करने के कारण पहले ही मर चुका था।इसलिए हुंकार मात्र से उसका अन्त हो गया।
वेन की मृत्यु का समाचार पाकर उसकी माता सुनीथा बहुत दुखी हुई।वह मन्त्र आदि के बल से वेन के शव की रक्षा करने लगी।इधर ऋषियों-मुनियों ने विचार किया कि राज्य मे सुख-शान्ति की स्थापना के लिए एक सुयोग्य राजा का होना आवश्यक है।अतः उन्होंने राजा वेन की भुजाओं का मन्थन किया ; तब उनसे स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा प्रकट हुआ।तब ऋषियों ने कहा -- इनमे से जो पुरुष है ; वह साक्षात् श्रीहरि का अंशावतार है और यह स्त्री लक्ष्मी का अवतार है।यह अपने सुयश का प्रथन -- विस्तार करने के कारण परम यशस्वी " पृथु " नामक सम्राट होगा और यह सुन्दरी " अर्चि " नाम से इसकी महारानी बनेगी।
इसके बाद ब्राह्मणों ने श्रीहरि के अंशावतार महाराज पृथु की विधिवत् स्तुति की।वहाँ सभी देवी-देवता भी आ गये।भगवान ब्रहमा जी ने बताया कि इस पुरुष के दाहिने हाथ मे विष्णु की हस्तरेखायें और चरणों मे कमल-चिह्न अंकित है।इसलिए ये श्रीहरि के ही अंश हैं।कुछ दिनों बाद ऋषियों और देवताओं ने पृथु का राज्याभिषेक किया।उसमे देवताओं ने उन्हें स्वर्ण-सिंहासन ; छत्र ; चामर ; माला ; मुकुट ; दण्ड ; कवच ; रथ ; धनुष आदि वस्तुयें उपहार स्वरूप प्रदान किया।वे महारानी अर्चि के साथ शासन करने लगे।
एक दिन प्रजाओं ने राजा पृथु से निवेदन किया कि इन दिनों देश अन्नहीन हो गया है।हम लोग भूख से मरे जा रहे हैं।आप हमारे अन्नदाता बनाये गये हैं।अतः शीघ्रातिशीघ्र अन्न की व्यवस्था करें ; अन्यथा हमारा अन्त हो जायेगा।प्रजाओं का करुण-क्रन्दन सुनकर महाराज पृथु बहुत देर तक सोचते रहे।तब उनके समझ मे आया कि पृथ्वी ने ही अन्नादि को अपने अन्दर छिपा लिया है।अतः पृथ्वी से ही मिलना चाहिए।यह सोचकर राजा धनुष-बाण लेकर पृथ्वी की ओर चल पड़े।उन्हें अपनी ओर आता हुआ देखकर पृथ्वी गाय का रूप धारण कर भागने लगी।राजा उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे।पृथ्वी जब असमर्थ हो गयी ; तब उनकी शरणागत होकर बोली -- राजन् ! अपना क्रोध शान्त कीजिए और मेरी बातों को ध्यानपूर्वक सुनिये।पूर्वकाल मे ब्रह्मा जी ने जिन धान्यों को उत्पन्न किया था ; उन्हें दुराचारी लोग खाये जा रहे थे।इसलिए मैने उन्हें छिपा लिया है।अब आप योग्य बछड़ा ; दोहन-पात्र और दुहने वाले की व्यवस्था कीजिए।मै उस बछड़े के स्नेह से पिन्हाकर दुग्धरूप मे सब वस्तुयें दे दूँगी।
राजा पृथु ने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथ मे ही समस्त धान्यों एवं ओषधियों को दुह लिया।इसके बाद ऋषियों ; मुनियों ; देवताओं आदि ने भी अभीष्ट वस्तुओं का दोहन किया।बाद मे पृथु ने धरित्री को अपनी पुत्री के रूप मे स्वीकार कर लिया।इन्हीं महाराज पृथु के आधार पर ही धरित्री को पृथ्वी ( पृथिवी ) कहा जाता है।बाद मे राजा पृथु ने सम्पूर्ण पृथ्वी को समतल करके अन्नोत्पादन करने योग्य बना दिया।उस समय तक समुचित बस्ती नहीं थी।अतः इन्होंने ही ग्राम ; कस्बा ; नगर आदि बसाया था।कृषि ; गोरक्षा ; वाणिज्य-व्यापार आदि भी उसी समय से आरम्भ हुए।
महाराज पृथु बहुत धर्मात्मा और भगवद्भक्त थे।उन्होंने भगवान को सन्तुष्ट करने के लिए ब्रह्मावर्त क्षेत्र मे सरस्वती नदी के तट पर सौ अश्वमेध यज्ञों की दीक्षा ली।इससे उनका बहुत अधिक उत्कर्ष हुआ।महाराज पृथु जब अन्तिम यज्ञ कर रहे थे ; तब इन्द्र ने सोचा कि जब इनके सौ यज्ञ पूरे हो जायेंगे ; तब ये मेरा इन्द्रासन छीन लेंगे।अतः इन्द्र ने उस यज्ञ को खण्डित करने के लिए उस यज्ञ का अश्व चुरा लिया।पृथु के पुत्र ने इन्द्र का पीछा किया ; तब वे घोड़े को छोड़कर भाग गये।पृथु जी क्रुद्ध होकर इन्द्र की हत्या करना चाहते थे।किन्तु ऋत्विजों ने समझाया कि हम अमोघ-आवाहन मन्त्रों द्वारा इन्द्र को ही अग्नि मे हवन कर देंगे।
ऋत्विजगण इन्द्र का आवाहन करके जब आहुति डालने जा रहे थे ; तभी ब्रह्मा जी आ गये और समझा-बुझाकर आहुति रोक दी।इस प्रकार इन्द्र की रक्षा हुई।इस यज्ञ मे भगवान विष्णु भी पधारे।उन्होंने राजा पृथु को बहुत सारगर्भित उपदेश दिया।इसके बाद वे दीर्घकाल तक शासन करते रहे।उनके राज्य मे किसी प्रकार का अभाव नहीं था।सम्पूर्ण प्रजा सुखी और समृद्ध थी।एक दिन उन्होंने सोचा कि मेरी अवस्था कुछ ढल गयी है।प्रजारक्षण रूपी ईश्वराज्ञा का भी पालन हो चुका है।अतः अब मुझे अन्तिम पुरुषार्थ -- मोक्ष के लिए भी प्रयत्न करना चाहिए।यह सोचकर वे पत्नी सहित तपोवन को चल दिये।वहाँ उन्होंने दीर्घकाल तक तप किया।अन्त मे अपने चित्त को दृढ़ता पूर्वक परमात्मा मे स्थिर करके ब्रह्मभाव मे स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया।बाद मे महारानी अर्चि ने भी चितारोहण द्वारा अपने पति का अनुगमन किया।
Wednesday, 20 July 2016
श्रावण मास मे पूजन -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
पूजा-पाठ की दृष्टि से श्रावण मास का विशेष महत्त्व है।यह महीना शिव जी को विशेष प्रिय है।इसलिए इस मास मे शिव-पूजन का विशेष महत्त्व है।पूजन मे रुद्राभिषेक का व्यापक प्रचलन है।गाँव शहर आदि प्रत्येक स्थान पर शिवमन्दिरों मे शिवभक्तों की भारी भीड़ दिखाई देती है।सायंकाल मे शिवालयों मे दीपदान करने से असीम पुण्यफल की प्राप्ति होती है।
इस महीने मे बाबा वैद्यनाथ ; बाबा विश्वनाथ आदि ज्योतिर्लिंगों मे काँवर द्वारा लाये गये जल से अभिषेक करने का असीम महत्त्व है।इसलिए इन मन्दिरों मे पूरे महीने भर काँवरियों की भीड़ लगी रहती है।ये काँवरिये केशरिया बाना धारण किये ; कन्धे पर जल भरी काँवर लादे हुए पैदल दौड़ते हुए सैकड़ों किमी की यात्रा करते हैं।जब ये शिवभक्ति की भावना से ओत-प्रोत होकर बोल-बम का नारा लगाते हैं तो सारा वातावरण गुञ्जायमान हो जाता है।उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानो सम्पूर्ण भूमण्डल ही शिवमय हो गया हो।आजकल तो प्रत्येक गाँव और नगर के प्रसिद्ध शिवालयों मे समीपवर्ती गंगा आदि पवित्र नदियों का जल लिए हुए काँवरियों का समूह देखा जा सकता है।
दैनिक पूजन ---
इस महीने मे शिव पूजन की महत्ता है ही ; अन्य देवी-देवताओं के पूजन का भी महत्त्व है ---
रविवार --- श्रावण मास मे प्रत्येक रविवार को मौन होकर गभस्ति नाम से सूर्य-पूजन करना चाहिए।
सोमवार -- सोमवार को शिव-पूजन का विशेष महत्त्व है।
मंगलवार --' श्रावण मास के प्रत्त्येक मंगलवार को मंगलागौरी का पूजन करना चाहिए।
बुधवार --- बुधवार को बुध एवं गुरु का पूजन करने का विधान है।
गुरुवार -- गुरुवार को भी बुध-गुरु का पूजन करना चाहिए।
शुक्रवार --' इस दिन जरा जवन्तिका देवियों का पूजन करने का विशेष महत्त्व है।
शनिवार --- इस दिन भगवान नृसिंह का पूजन करना चाहिए।पीपल वृक्ष की पूजा भी शनिवार को बहुत शुभ फलदायिनी होती है।इस दिन हनुमान जी का पूजन बहुत शुभद होता है।
ऋषभदेव अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे भगवान ऋषभदेव के अवतार की गणना अष्टम स्थान पर की गयी है।श्रीमद्भागवत महापुराण ( 1/3/13 ) के अनुसार श्रीहरि ने राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप मे अष्टम अवतार ग्रहण किया।इस रूप मे उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग दिखाया ; जो सभी आश्रमवासियों के लिए वन्दनीय है ---
अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः।
दर्शयन् वर्त्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम्।।
प्राचीन काल मे नाभि नामक एक महाप्रतापी शासक थे।उनकी पत्नी का नाम मेरुदेवी था।दुर्भाग्यवश उनके कोई सन्तान नहीं थी।इसलिए उन्होंने पुत्र-प्राप्ति की कामना से भगवान यज्ञपुरुष का यजन किया।उनकी श्रद्धा-भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीहरि प्रकट हुए।राजा रानी और ऋत्विजों ने उनका पूजन किया।बाद मे ऋत्विजों ने अनुरोध किया -- प्रभो ! राजर्षि नाभि आपके ही समान पुत्र पाने के लिए आपकी आराधना कर रहे हैं।इसे सुनकर प्रभुवर ने कहा -- आपने मुझसे बहुत दुर्लभ वर माँगा है।मै तो अद्वितीय हूँ।मेरे समान केवल मै ही हूँ।इसलिए मै स्वयं ही अंशकला से युक्त होकर राजा नाभि के यहाँ पुत्ररूप मे अवतार लूँगा।इस प्रकार वरदान देकर प्रभुवर अन्तर्धान हो गये।
कालान्तर मे भगवान श्रीहरि महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर सन्यासी और ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिए शुद्ध तत्त्वमय विग्रह से आविर्भूत हुए।प्राकट्य काल मे ही उनके शरीर पर वज्र ; अंकुश आदि चिह्न विद्यमान थे।उनके शरीर की सुगठित संरचना ; तेज ; बल ; ऐश्वर्य ; यश ; पराक्रम आदि को देखकर राजा नाभि ने उनका नाम ऋषभ ( श्रेष्ठ ) रखा।राजा ने उनके लालन-पालन एवं शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था की।ऋषभदेव जब वयस्क हुए तब राजा ने उन्हें राजपाठ सौंप दिया और स्वयं अपनी पत्नी के साथ तप करने के लिए बदरिकाश्रम के लिए प्रस्थान कर दिया।
भगवान ऋषभदेव का विवाह देवराज इन्द्र की पुत्री जयन्ती के साथ हुआ।उनके सौ पुत्र उत्पन्न हुए।सबसे ज्येष्ठ पुत्र का नाम भरत था।कालान्तर मे उन्हीं के नाम पर अजनाभ वर्ष का नाम भारत वर्ष पड़ गया।ऋषभदेव सर्वगुण सम्पन्न एवं सर्वसमर्थ थे।उनके शासन काल मे सभी लोग सुखी और सम्पन्न थे।एक बार इन्द्र ने ईर्ष्यावश उनके राज्य मे वर्षा नहीं की।उस समय भगवान ऋषभदेव का बचपन था।फिर भी उन्होंने अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने देश मे पर्याप्त जल बरसाया था।
एक बार ऋषभदेव ब्रह्मावर्त देश मे पहुँचे।वहाँ उन्होंने प्रजाओं के समक्ष अपने पुत्रों को बहुत सारगर्भित उपदेश दिया।बाद मे अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राजगद्दी सौंपकर स्वयं विरक्त हो गये।वे सर्वथा दिगम्बर एवं उन्मत्त-सदृश होकर ब्रह्मावर्त से बाहर चले गये।वे मौन होकर पागलों जैसी चेष्टा करते हुए अवधूत बनकर विचरण करने लगे।मार्ग मे उन्हें दुष्ट लोग परेशान भी करते थे किन्तु वे चुपचाप सहन करते रहते थे।धीरे धीरे अपने शरीर के प्रति उनकी ममता ही समाप्त हो गयी थी।वे लेटे-लेटे खाते-पीते और मल-मूत्र त्याग करते थे।कभी-कभी अपने द्वारा त्यागे गये मल मे लोट लोटकर उसे पूरे शरीर मे लगा लेते थे।फिर भी उनके मल मे कोई दुर्गन्ध नहीं थी।उनके शरीर और मल दोनो से दिव्य सुगन्ध निकलती थी।
इस प्रकार ऋषभदेव ने कई प्रकार की योगचर्याओं का आचरण किया।यद्यपि उन्हें किसी प्रकार की सिद्धियों की आवश्यकता नहीं थी।फिर भी आकाशगमन ; अन्तर्धान ; परकाया-प्रवेश ; दूरश्रवण ; दूरदृष्टि सदृश अनेक सिद्धियाँ स्वयं ही उनकी सेवा मे आ गयीं।परन्तु उन्होंने किसी भी सिद्धि को स्वीकार नहीं किया।वे सर्वसमर्थ होते हुए भी अपने ईश्वरीय प्रभाव को सदैव छिपाये रहते थे।वे सदैव अवधूत स्वरूप मे रहते थे।एक बार वे दक्षिण भारत की ओर गये।वहाँ इस पाञ्चभौतिक शरीर को त्यागने की इच्छा हुई।वे जब कुटकाचल के वन मे भ्रमण कर रहे थे तभी बाँसों के घर्षण से प्रबल दावाग्नि धधक उठी।उसी अग्नि के द्वारा सम्पूर्ण वन सहित ऋषभदेव भी भस्म हो गये।इस प्रकार उनका अन्त हो गया।