भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे आदिराज पृथु अवतार की गणना नवम स्थान पर की गयी है।यह अवतार ऋषियों की प्रार्थना पर हुआ है।इसमे उन्होंने पृथ्वी से समस्त ओषधियों का दोहन किया था।इसलिए यह अवतार सबके लिए कल्याणकारी सिद्ध हुआ ----
ऋषिभिर्याचितो भेजे नवमं पार्थिवं वपुः।
दुग्धेमामोषधीर्विप्रास्तेनायं स उशत्तमः।।
स्वायम्भुव मनु के वंश मे अंग नामक एक प्रतापी राजा हुए।उनका विवाह मृत्यु की मानस-पुत्री सुनीथा के साथ हुआ।इससे वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।वेन बहुत दुष्ट एवं क्रूरकर्मा था।उसकी दुष्टता से ऊबकर राजा अंग स्वदेश छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गये और फिर वापस नहीं लौटे।अब राजा के अभाव मे पूरे राज्य मे अव्यवस्था फैल गयी।अतः विवश होकर भृगु आदि ऋषियों ने वेन को राजा बना दिया।वह राजा बनते ही घोर अत्याचार करने लगा।उसने सारे धर्म-कर्म बन्द करवा दिया।ऋषियों ने उसे समझाने का प्रयास किया किन्तु वह नहीं माना।अतः ऋषियों-मुनियों ने उसे मारने का निश्चय कर लिया।परन्तु वह तो भगवान की निन्दा करने के कारण पहले ही मर चुका था।इसलिए हुंकार मात्र से उसका अन्त हो गया।
वेन की मृत्यु का समाचार पाकर उसकी माता सुनीथा बहुत दुखी हुई।वह मन्त्र आदि के बल से वेन के शव की रक्षा करने लगी।इधर ऋषियों-मुनियों ने विचार किया कि राज्य मे सुख-शान्ति की स्थापना के लिए एक सुयोग्य राजा का होना आवश्यक है।अतः उन्होंने राजा वेन की भुजाओं का मन्थन किया ; तब उनसे स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा प्रकट हुआ।तब ऋषियों ने कहा -- इनमे से जो पुरुष है ; वह साक्षात् श्रीहरि का अंशावतार है और यह स्त्री लक्ष्मी का अवतार है।यह अपने सुयश का प्रथन -- विस्तार करने के कारण परम यशस्वी " पृथु " नामक सम्राट होगा और यह सुन्दरी " अर्चि " नाम से इसकी महारानी बनेगी।
इसके बाद ब्राह्मणों ने श्रीहरि के अंशावतार महाराज पृथु की विधिवत् स्तुति की।वहाँ सभी देवी-देवता भी आ गये।भगवान ब्रहमा जी ने बताया कि इस पुरुष के दाहिने हाथ मे विष्णु की हस्तरेखायें और चरणों मे कमल-चिह्न अंकित है।इसलिए ये श्रीहरि के ही अंश हैं।कुछ दिनों बाद ऋषियों और देवताओं ने पृथु का राज्याभिषेक किया।उसमे देवताओं ने उन्हें स्वर्ण-सिंहासन ; छत्र ; चामर ; माला ; मुकुट ; दण्ड ; कवच ; रथ ; धनुष आदि वस्तुयें उपहार स्वरूप प्रदान किया।वे महारानी अर्चि के साथ शासन करने लगे।
एक दिन प्रजाओं ने राजा पृथु से निवेदन किया कि इन दिनों देश अन्नहीन हो गया है।हम लोग भूख से मरे जा रहे हैं।आप हमारे अन्नदाता बनाये गये हैं।अतः शीघ्रातिशीघ्र अन्न की व्यवस्था करें ; अन्यथा हमारा अन्त हो जायेगा।प्रजाओं का करुण-क्रन्दन सुनकर महाराज पृथु बहुत देर तक सोचते रहे।तब उनके समझ मे आया कि पृथ्वी ने ही अन्नादि को अपने अन्दर छिपा लिया है।अतः पृथ्वी से ही मिलना चाहिए।यह सोचकर राजा धनुष-बाण लेकर पृथ्वी की ओर चल पड़े।उन्हें अपनी ओर आता हुआ देखकर पृथ्वी गाय का रूप धारण कर भागने लगी।राजा उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे।पृथ्वी जब असमर्थ हो गयी ; तब उनकी शरणागत होकर बोली -- राजन् ! अपना क्रोध शान्त कीजिए और मेरी बातों को ध्यानपूर्वक सुनिये।पूर्वकाल मे ब्रह्मा जी ने जिन धान्यों को उत्पन्न किया था ; उन्हें दुराचारी लोग खाये जा रहे थे।इसलिए मैने उन्हें छिपा लिया है।अब आप योग्य बछड़ा ; दोहन-पात्र और दुहने वाले की व्यवस्था कीजिए।मै उस बछड़े के स्नेह से पिन्हाकर दुग्धरूप मे सब वस्तुयें दे दूँगी।
राजा पृथु ने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथ मे ही समस्त धान्यों एवं ओषधियों को दुह लिया।इसके बाद ऋषियों ; मुनियों ; देवताओं आदि ने भी अभीष्ट वस्तुओं का दोहन किया।बाद मे पृथु ने धरित्री को अपनी पुत्री के रूप मे स्वीकार कर लिया।इन्हीं महाराज पृथु के आधार पर ही धरित्री को पृथ्वी ( पृथिवी ) कहा जाता है।बाद मे राजा पृथु ने सम्पूर्ण पृथ्वी को समतल करके अन्नोत्पादन करने योग्य बना दिया।उस समय तक समुचित बस्ती नहीं थी।अतः इन्होंने ही ग्राम ; कस्बा ; नगर आदि बसाया था।कृषि ; गोरक्षा ; वाणिज्य-व्यापार आदि भी उसी समय से आरम्भ हुए।
महाराज पृथु बहुत धर्मात्मा और भगवद्भक्त थे।उन्होंने भगवान को सन्तुष्ट करने के लिए ब्रह्मावर्त क्षेत्र मे सरस्वती नदी के तट पर सौ अश्वमेध यज्ञों की दीक्षा ली।इससे उनका बहुत अधिक उत्कर्ष हुआ।महाराज पृथु जब अन्तिम यज्ञ कर रहे थे ; तब इन्द्र ने सोचा कि जब इनके सौ यज्ञ पूरे हो जायेंगे ; तब ये मेरा इन्द्रासन छीन लेंगे।अतः इन्द्र ने उस यज्ञ को खण्डित करने के लिए उस यज्ञ का अश्व चुरा लिया।पृथु के पुत्र ने इन्द्र का पीछा किया ; तब वे घोड़े को छोड़कर भाग गये।पृथु जी क्रुद्ध होकर इन्द्र की हत्या करना चाहते थे।किन्तु ऋत्विजों ने समझाया कि हम अमोघ-आवाहन मन्त्रों द्वारा इन्द्र को ही अग्नि मे हवन कर देंगे।
ऋत्विजगण इन्द्र का आवाहन करके जब आहुति डालने जा रहे थे ; तभी ब्रह्मा जी आ गये और समझा-बुझाकर आहुति रोक दी।इस प्रकार इन्द्र की रक्षा हुई।इस यज्ञ मे भगवान विष्णु भी पधारे।उन्होंने राजा पृथु को बहुत सारगर्भित उपदेश दिया।इसके बाद वे दीर्घकाल तक शासन करते रहे।उनके राज्य मे किसी प्रकार का अभाव नहीं था।सम्पूर्ण प्रजा सुखी और समृद्ध थी।एक दिन उन्होंने सोचा कि मेरी अवस्था कुछ ढल गयी है।प्रजारक्षण रूपी ईश्वराज्ञा का भी पालन हो चुका है।अतः अब मुझे अन्तिम पुरुषार्थ -- मोक्ष के लिए भी प्रयत्न करना चाहिए।यह सोचकर वे पत्नी सहित तपोवन को चल दिये।वहाँ उन्होंने दीर्घकाल तक तप किया।अन्त मे अपने चित्त को दृढ़ता पूर्वक परमात्मा मे स्थिर करके ब्रह्मभाव मे स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया।बाद मे महारानी अर्चि ने भी चितारोहण द्वारा अपने पति का अनुगमन किया।
Thursday, 21 July 2016
पृथु अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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