मानव-जीवन मे गुरु की असीम महत्ता है।उनके द्वारा ही मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति होती है।वही अपने शिष्य को उत्तम ज्ञान-विज्ञान ; आचार-विचार की शिक्षा देकर उसके बौद्धिक एवं चारित्रिक विकास मे सहयोग देते हैं।इतना ही नहीं ; बल्कि मानव को पूर्ण-मानव या देव-मानव बनाने मे गुरु की भूमिका सर्वोपरि होती है।शिष्य तो कच्ची मिट्टी का लूँढ़ा होता है।गुरु ही उस मिट्टी से अनेक दिव्य रूपों की रचना करते हैं।
गुरु की महत्ता का विवेचन कर पाना आसान नहीं है।फिर भी गुरु शब्द की विभिन्न व्युत्पत्तियों के द्वारा उनके लक्षण ; कार्य ; महत्त्व आदि को स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है --
1-- गृणाति उपदिशति धर्मं ज्ञानं भक्तिं चेति गुरुः -- इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अपने शिष्य को धर्म ; ज्ञान एवं भक्ति का उपदेश देते हैं ; उन्हें गुरु कहा जाता है।
2-- गृणाति उपदिशति तत्त्वं वेदादिशास्त्राणि आत्मज्ञानसाधनानि इति गुरुः -- अर्थात् जो अपने शिष्य को तत्त्व ; वेदादि शास्त्रों एवं आत्मज्ञान के साधनों का उपदेश देते हैं ; उन्हें गुरु कहा जाता है।
3-- गरति सिञ्चति कर्णयोर्ज्ञानामृतम् इति गुरुः -- अर्थात् जो अपने शिष्यों के कानो मे ज्ञान रूपी अमृत का सिञ्चन करते हैं ; उन्हें गुरु की संज्ञा प्रदान की जाती है।
4-- गिरति अज्ञानान्धकारम् इति गुरुः -- अर्थात् जो अपने सदुपदेशों द्वारा शिष्यों के अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट कर देते हैं ; उन्हें गुरु कहा जाता है।
5-- गुरते सत्पथे प्रवर्तयति शिष्यम् इति गुरुः -- अर्थात् जो अपने शिष्य को सत्पथ ( सन्मार्ग ) पर प्रवृत्त करते हैं और उस पर चलने की प्रेरणा देते हैं ; उन्हें गुरु शब्द से अभिहित किया जाता है।
6-- गृणाति उपदिशति धर्मादि रहस्यं इति गुरुः -- अर्थात् जो अपने शिष्यों को धर्म आदि के रहस्यों का उपदेश देते हैं ; उन्हें गुरु कहा जाता है।
7-- गीर्यते स्तूयते महत्त्वाद् इति गुरुः -- महिमा और माहात्म्य के कारण जिनकी स्तुति की जाती है ; उन्हें कहा जाता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि गुरु ही अपने शिष्यों को धर्म ; कर्म ; ज्ञान-विज्ञान ; भक्ति ; तत्त्वज्ञान ; वेदादि शास्त्रों एवं आत्मज्ञान के साधनों का उपदेश देते हैं।वे ही शिष्यों के कानों मे ज्ञानरूपी अमृत का सिञ्चन कर उसके अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट कर उसे सन्मार्ग पर प्रवृत्त करते हैं।वे ही हमारे मिथ्या बोध को नष्ट करके सत्यार्थ का बोध कराते हैं।वे ही हमे सुगति-कुगति ; पाप-पुण्य एवं कर्तव्याकर्तव्य का भेद बताकर संसार-सागर से पार करते हैं।इतना ही नहीं ; बल्कि गुरु ही ब्रह्मा ; विष्णु ; महेश और साक्षात् परब्रह्म हैं।अतः ऐसे महिमा-मण्डित गुरुदेव को कोटिशः नमन है --
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
Saturday, 9 July 2016
गुरु - माहात्म्य -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment