Sunday, 17 July 2016

नारद अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे देवर्षि नारद अवतार की गणना तृतीय स्थान पर की गयी है।श्रीमद्भागवत महापुराण ( 1/3/8 ) के अनुसार ऋषियों की सृष्टि मे भगवान ने देवर्षि नारद के रूप मे तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्र ( नारद पाञ्चरात्र ) का उपदेश दिया था।इस ग्रन्थ मे कर्म द्वारा कर्मबन्धन से मुक्ति का उपाय बताया गया है।नारद जी ब्रह्मा जी के मानस-पुत्र हैं।इसलिए वे सर्वत्र आवागमन करने मे सक्षम हैं।वे परम ज्ञानी एवं समस्त गोपनीय रहस्यों के ज्ञाता हैं।वे सूर्य की भाँति तीनों लोकों मे भ्रमण करने वाले और योगबल से प्राणवायु के समान सबके अन्दर रहकर अन्तःकरणों के साक्षी हैं।
          नारद जी के पूर्वजन्म का वृत्तान्त बहुत विचित्र एवं शिक्षाप्रद है।वे वेदवादी ब्राह्मणों की एक दासी के पुत्र थे।एक बार कुछ योगीगण एक स्थान पर वर्षा ऋतु मे चातुर्मास करने आये।उनकी सेवा मे उसी दासी-पुत्र को नियुक्त किया गया।उन्होंने अपनी सेवा से उन सबका मन मोह लिया।वह प्रतिदिन उन योगियों का जूठन खाया करता था।इससे उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये।वह प्रतिदिन उनके मुखारविन्द से निःसृत अमृतमयी कथायें सुनता रहता था।इससे भगवान के प्रति उसकी रुचि बढ़ती गयी।धीरे-धीरे उसके हृदय मे निर्मल भक्ति का प्रादुर्भाव हो गया।बाद मे उन महात्माओं ने उस बच्चे को गुह्यतम ज्ञान का उपदेश भी दिया ; जिससे वह बालक भगवान की माया के प्रभाव को भी जान गया।
             वे योगीगण जब वहाँ से चले गये तब वह बालक उसी बस्ती मे रहने लगा।दुर्भाग्यवश एक दिन उसकी माता को सर्प ने डस लिया।उसके बाद वह अनाथ बालक उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा।चलते-चलते उसका शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं।मार्ग मे एक नदी मे स्नान कर वह एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गया।वह मन ही मन परमात्मा के दिव्य स्वरूप का ध्यान करने लगा।थोड़ी ही देर बाद उसके हृदय मे भगवान प्रकट हो गये।उस समय प्रेमभाव के अत्यन्त उद्रेक से उसका रोम-रोम पुलकित हो गया।हृदय अत्यन्त शान्त एवं शीतल हो गया।वह आनन्द-सिन्धु मे इस प्रकार निमग्न हो गया कि उसे किसी भी प्रकार का भान नहीं रह गया।कुछ देर बाद वह दृश्य लुप्त हो गया।अतः वह बेचैन होकर पुनः उसी दृश्य को देखने के लिए प्रयास करने लगा।परन्तु उसे सफलता नहीं मिली।
           इस प्रकार बारंबार प्रयत्न करते हुए उस बालक को देखकर भगवान ने कहा -- खेद है कि इस जन्म मे तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे।किन्तु इस शरीर का अन्त होने पर तुम मेरे पार्षद बनोगे।इसे सुनने के बाद वह बालक भगवान के रहस्यमय और मंगलमय मधुर नामों एवं लीलाओं का स्मरण करते हुए पृथ्वी पर विचरण करने लगा।कुछ दिनों बाद उसका पाञ्चभौतिक शरीर नष्ट हो गया।कल्पान्त मे जब भगवान नारायण जी जल मे शयन करने लगे तब उनके श्वास के साथ वह बालक भी भगवान के हृदय मे प्रविष्ट हो गया।एक सहस्र चतुर्युगी व्यतीत होने पर जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि-रचना की इच्छा की तब उनकी इन्द्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ वह बालक भी देवर्षि नारद के रूप मे प्रकट हो गया।
           नारद जी भगवान विष्णु के अनन्य भक्त हैं।वे सदा सर्वदा नारायण-नारायण का उच्चारण करते रहते हैं।वे वेद ; वेदान्त ; ज्योतिष ; संगीत आदि विषयों के आचार्य हैं ही किन्तु भक्ति के तो परमाचार्य हैं।इस क्षेत्र मे उनके बराबर न कोई हुआ है और न भविष्य मे हो होगा।नारद जी दया की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं।इसीलिए वे लोककल्याण के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं।उन्होंने असंख्य लोगों को भक्तिमार्ग पर चलने की प्रेरणा ही नहीं बल्कि सहयोग एवं मार्गदर्शन भी किया है।भक्त प्रह्लाद ; राजकुमार ध्रुव आदि को नारद जी ने ही भगवच्चरणोन्मुख किया था।उन्होंने वेदव्यास सदृश महान ज्ञानी का भी मार्गदर्शन किया था।उनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि देव-दानव आदि सभी लोग उन्हें एक समान सम्मान देते थे।साथ ही सब लोग उन पर विश्वास भी करते थे।

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