भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे वराह अवतार की गणना द्वितीय स्थान पर की गयी है।श्रीमद्भागवत महापुराण ( 1/ 3/ 7 ) के अनुसार दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिए समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान ने ही रसातल मे गयी हुई पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सूकर ( वराह ) रूप धारण किया था ---
द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम्।
उद्धरिष्यन्नुपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः।।
प्राचीन काल मे भगवान विष्णु के प्रथम अवतार सनकादि ने वैकुण्ठ धाम मे नियुक्त भगवान के पार्षदों -- जय और विजय को तीन जन्मों तक दैत्यकुल मे जन्म लेने का शाप दे दिया था।उसी के परिणामस्वरूप उन दोनो का जन्म महर्षि कश्यप की पत्नी दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के रूप मे हुआ था।
एक बार सायंकाल के समय महर्षि कश्यप भगवान यज्ञपति की आराधना कर अग्निशाला मे ध्यानस्थ होकर बैठे हुए थे।उसी समय उनकी पत्नी दिति ने उनसे महापराक्रमी पुत्र-प्राप्ति के लिए समागम करने का अनुरोध किया।महर्षि ने समझाया कि यह घोर राक्षसी बेला है।इस समय स्त्री-समागम करना उचित नहीं है।परन्तु दिति हठ कर बैठी।उसके प्रबल दुराग्रह से हारकर ऋषिवर ने उसी समय एकान्त मे समागम किया।इसी के परिणाम स्वरूप हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष नामक दो पुत्रों का जन्म हुआ।वे दोनो जन्म लेते ही पर्वताकार हो गये।बाद मे दोनो ने तप करके ब्रह्मा जी से अमित पराक्रमी होने का वरदान प्राप्त कर लिया।दोनों बहुत बर्बर एवं नृशंस थे।उनके अत्याचारों से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी।एक बार हिरण्याक्ष स्वर्गलोक पहुँच गया।उसके भय से सभी देवता भागकर अन्यत्र छिप गये।
कुछ दिनो बाद हिरण्याक्ष ने पृथ्वी की धारणा-शक्ति का हरण कर लिया और उसे लेकर रसातल मे चला गया।इससे पृथ्वी आधार-शक्ति से रहित हो गयी और स्वयं भी रसातल मे चली गयी।इसे देखकर ब्रह्मा जी बहुत चिन्तित हुए।एक बार वे पृथ्वी के उद्धार के विषय मे सोच रहे थे ; तभी उनकी नाक से अँगूठे के आकार का एक वराह-शिशु प्रकट हुआ।वह क्षण भर मे ही बहुत विशाल हो गया।इसे देखकर ब्रह्मा सहित सभी ऋषि-मुनि ; सनकादि देवता और स्वायम्भुव मनु भी आश्चर्य चकित हो गये।उसने अपनी गर्जना से सभी दिशाओं को प्रतिध्वनित कर दिया।बाद मे वराह रूपी भगवान श्रीहरि पृथ्वी का उद्धार करने के लिए अथाह समुद्र मे घुस गये।कुछ समय बाद वे पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर रसातल से ऊपर की ओर आने लगे।
इधर हिरण्याक्ष स्वर्ग से होता हुआ जलाधिपति वरुणदेव के पास गया और उनसे युद्ध-भिक्षा की माँग की।वरुण जी को क्रोध तो बहुत आया किन्तु वे उसे चुपचाप पी गये।बाद मे उन्होंने कहा -- मुझे युद्ध के प्रति रुचि नहीं है।अतः तुम पुराण-पुरुष श्रीहरि के पास जाओ ; वे ही तुम्हारी कामना पूर्ण कर सकेंगे।इसे सुनकर वह नारद के पास गया।नारद जी ने बताया कि इस समय श्रीहरि जी पृथ्वी का उद्धार करने के लिए रसातल मे गये हुए हैं।इतना सुनते ही वह रसातल की ओर चल पड़ा।उस समय वराह रूपी श्रीहरि पृथ्वी को लेकर रसातल से ऊपर की ओर आ रहे थे।हिरण्याक्ष ने श्रीहरि का प्रतिरोध किया।साथ ही भगवान को अपशब्द भी कहा।भगवान चुपचाप आगे बढ़ते रहे।आगे चलकर उन्होंने पृथ्वी को जल के बाहर लाकर विधिवत् स्थापित कर दिया।उसके बाद वे हिरण्याक्ष की ओर बढ़े।दोनों मे भयानक युद्ध आरम्भ हो गया।लम्बे संघर्ष के बाद वराह भगवान ने महापराक्रमी हिरण्याक्ष का वध कर दिया।सभी लोग भगवान की जय जयकार करने लगे।
Sunday, 17 July 2016
वराह अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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