भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे श्री सनकादि की गणना प्रथम स्थान पर की गयी है।इनके अवतार की कथा अत्यन्त रोचक एवं शिक्षाप्रद है।एक बार ब्रह्मा जी ने सृष्टि-संरचना करने का विचार बनाया।उन्होंने अपनी अंजुली से जल को ऊपर की ओर उछाला ; जिससे वहाँ एक विशाल अण्ड प्रकट हो गया।वह बिल्कुल निश्चल एवं अचेतन था।ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु की प्रार्थना की।महाविष्णु ने प्रसन्न होकर उस अण्ड मे प्रवेश किया।इससे वह अण्ड सचेतन हो गया।फिर क्रमशः तमोगुणी ; रजोगुणी आदि आठ सृष्टियों का आविर्भाव हुआ।
इसके बाद ब्रह्मा जी ने अन्य लोकों की रचना करने के लिए कठोर तप किया।उनके अखण्ड तप से प्रसन्न होकर विश्वाधार प्रभुवर ने " तप " अर्थ वाले ' सन ' नाम से युक्त होकर सनक ; सनन्दन ; सनातन और सनत्कुमार के रूप अवतार लिया।वे चारों ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे।वे प्राकट्य काल से ही परम वैरागी एवं उत्तमोत्तम व्रतधारी थे।उनका मन सदैव भगवच्चिन्तन मे ही लगा रहता था।वे संसार से सर्वथा विरक्त एवं परम तत्त्वज्ञानी थे।अतः ब्रह्मा जी द्वारा आदेशित होने पर भी उन्होंने सृष्टि-रचना मे सहयोग देने से इनकार कर दिया।यद्यपि उस समय ब्रह्मा जी ने बहुत क्रोध किया फिर भी उन चारों कुमारों ने सृष्टि-रचना से विरक्त होकर वैराग्य ले लिया।
वे चारों सदैव एक साथ रहते थे।उनका स्वरूप अत्यन्त तेजस्वी एवं मनमोहक था।वे सदैव पञ्चवर्षीय कुमारों के रूप मे दिगम्बर वेष मे रहते थे।उनके मन मे किसी भी प्रकार की आसक्ति नहीं थी।वे प्रायः आकाशमार्ग से विचरण करते रहते थे।एक बार वे भगवद्दर्शन की लालसा से वैकुण्ठ धाम पहुँच गये।वहाँ हरिनाम का स्मरण करते हुए वैकुण्ठ धाम की छः ड्यौढ़ियों को पार कर लिया।परन्तु जैसे ही सातवीं को पार किया ; वैसे ही भगवान के पार्षदों अर्थात् जय-विजय ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया।अतः भगवद्दर्शन मे व्यवधान उत्पन्न होने के कारण उन कुमारों को क्रोध उत्पन्न हो गया।उन्होंने जय और विजय को तीन जन्मों तक पापमय दैत्यकुल मे जन्म लेने का शाप दे दिया।आगे चलकर वही दोनों पार्षद क्रमशः हिरण्यकशिपु-हिरण्याक्ष ; रावण-कुम्भकर्ण और शिशुपाल-दन्तवक्त्र के रूप मे उत्पन्न हुए।
एक बार वे चारों मुनि आकाशमार्ग से विचरण करते हुए भगवान के अंशावतार महाराज पृथु के पास पहुँच गये।राजा ने उनकी विधिवत् पूजा कर उनका चरणोदक लिया।बाद मे पूछा कि इस संसार मे मनुष्य का कल्याण सुगमता पूर्वक किस विधि से हो सकता है ? तब उन्होंने विस्तार पूर्वक कल्याणोपदेश प्रदान करते हुए भगवान के चरण-कमलों का आश्रय ग्रहण करने का सुझाव दिया था।इसे सुनकर महाराज पृथु बहुत प्रसन्न हुए और प्रभुवर की बारंबार स्तुति की।इसके बाद वे आकाशमार्ग से चले गये।
इसी प्रकार उन्होंने तत्कालीन ऋषियों-महर्षियों को भी अपने अमृतमय ज्ञानोपदेश से आप्यायित किया था।वे चारों ऊर्ध्वरेता मुनियों की भाँति आचरण करते हुए सम्पूर्ण समाज का कल्याण करते रहते थे।वे योगविद्या के परम ज्ञाता ; सांख्यज्ञान-मर्मज्ञ ; धर्मशास्त्र-परायण एवं मोक्ष-प्रदायक साधनों के प्रवर्तक थे। वे भगवान विष्णु के अंशावतार होने के कारण सर्वगुण सम्पन्न एवं परम ज्ञानी थे।
Saturday, 16 July 2016
श्री सनकादि अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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