भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे भगवान यज्ञ के अवतार को सप्तम स्थान पर परिगणित किया गया है --
ततः सप्तम आकूत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत।
स यामाद्यैः सुरगणैरपात्स्वायम्भुवान्तरम्।।
भगवान यज्ञ का अवतरण स्वायम्भुव मन्वन्तर मे हुआ था।स्वायम्भुव मनु की पुत्री का नाम आकूति था।उनका विवाह प्रजापति रुचि के साथ हुआ।बाद मे इन्हीं आकूति के गर्भ से आदिपुरुष श्रीहरि जी यज्ञ रूप मे अवतरित हुए।इन्होंने ही उस समय यज्ञ का प्रवर्तन किया।इसलिए वे यज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
स्वायम्भुव मनु ने दीर्घकाल तक शासन किया।बाद मे समस्त भोगों एवं कामनाओं से विरक्त होकर अपनी पत्नी शतरूपा सहित वन की ओर चल पड़े।आगे चलकर वे सुनन्दा नदी के तट पर तपस्या करने लगे।उन्होंने एक पैर से खड़े होकर सौ वर्षों तक कठोर तप किया।एक बार वे उपनिषत् स्वरूप श्रुति का पाठ कर रहे थे।उस समय कुछ राक्षसों और असुरों ने समझा कि वे नींद मे बड़बड़ा रहे हैं।अतः उन्हें खा डालने के लिए उन पर टूट पड़े।
इस घटना को जब भगवान यज्ञपुरुष ने देखा तब वे अपने पुत्रों के साथ स्वायम्भुव जी की रक्षा के लिए दौड़ पड़े।उन्होंने असुरों को पराजित कर खदेड़ दिया।इस प्रकार मनु जी की रक्षा हुई।इसे देखकर देवगण बहुत प्रसन्न हुए।उन्होंने यज्ञ भगवान को इन्द्र पद पर अभिषिक्त कर दिया।वे दीर्घकाल तक उस गरिमामय पद को सुशोभित करते रहे।
भगवान यज्ञ का विवाह दक्षिणा नामक गुणवती कन्या के साथ हुआ।बाद मे उनके बारह पुत्र हुए ; जो स्वायम्भुव मन्वन्तर मे " याम " ( सुयम ) नामक द्वादश देवता के नाम से प्रसिद्ध हुए।भगवान यज्ञ सर्वसमर्थ एवं अत्यन्त दयालु थे।उन्होंने तीनों लोकों के बड़े-बड़े संकटों को दूर किया था।इसीलिए स्वायम्भुव जी उन्हें " हरि " नाम से पुकारते थे।
Monday, 18 July 2016
भगवान यज्ञावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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