हमारे देश मे पार्थिवलिंग ( मिट्टी के बने हुए शिवलिंग ) के पूजन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित है।कलियुग मे इसकी विशिष्ट महत्ता बतायी गयी है -- " पार्थिवं तु कलौ युगे "।इस पूजन से मनुष्य दीर्घायु ; सुखी ; धनवान ; पुत्रवान ; गुणवान और श्रीमान हो जाता है।पार्थिवलिंग पूजन का अधिकार केवल पुरुषों को ही नहीं अपितु सौभाग्यशाली स्त्रियों को भी है।
शिवपुराण मे पार्थिव पूजन का बहुत अधिक महत्त्व बताया गया है।यह पूजन करोड़ों यज्ञों के समान फल प्रदान करने वाला है।विशेषकर कलियुग मे इससे बढ़कर कोई दूसरा साधन नहीं है।इससे भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।पुत्र प्राप्ति के लिए इसे अमोघ साधन माना जाता है।इसके द्वारा बन्ध्या ; काकबन्ध्या ; मृतवत्सा आदि सभी को पुत्र सुख की प्राप्ति अवश्य होती है।
पार्थिव-पूजन के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह प्रातः स्नानादि से निवृत्त हो तर्पण करे।फिर शिव-स्मरण पूर्वक भस्म तथा रुद्राक्ष धारण करे।यदि भस्म उपलब्ध न हो तो मिट्टी का ही त्रिपुण्ड्र लगा ले।इसके बाद उत्तराभिमुख होकर वेदोक्त रीति से पार्थिव पूजन करे।इसके लिए नदी या तालाब का किनारा ; पर्वत ; वन ; शिवालय अथवा कोई पवित्र स्थान अधिक उपयुक्त होता है।शिवलिंग बनाने के मिट्टी शुद्ध स्थान से लेनी चाहिए।उत्तर दिशा से शमी वृक्ष के गर्भ की अथवा पीपल के वृक्ष की जड़ की मिट्टी अधिक उपयुक्त होती है।शिवलिंग बनाने के लिए केवल एक हाथ का प्रयोग करना चाहिए।दोनों हाथ लगाकर शिवलिंग बनाना निषिद्ध है।शिवलिंग अँगूठे के एक पोर के बराबर का होना चाहिए।
इस प्रकार उपर्युक्त बातों को ध्यान मे रखते हुए पार्थिव पूजन पद्धति के अनुसार शिवलिंग बनाकर उनका विधिवत् पूजन एवं अभिषेक करना चाहिए।अन्त मे ब्राह्मण भोजन आदि कराने के बाद शिवलिंगों का विसर्जन करना चाहिए।विसर्जन के लिए नदी या तालाब अधिक उपयुक्त होते हैं।
Sunday, 3 July 2016
पार्थिव पूजन -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment