एक बार ब्रह्मा जी ने महर्षि अत्रि को सृष्टि-संरचना करने की आज्ञा दी।महर्षि ने इस गुरुतर कार्य को सकुशल सम्पन्न करने के लिए शक्ति अर्जित करने के उद्देश्य से अनुत्तर नामक श्रेष्ठ तप किया।एक दिन जब वे ध्यानमग्न थे ; तभी उनके नेत्रों से जल की कुछ बूँदें टपकने लगीं।उन जल-विन्दुओं के प्रकाश से सम्पूर्ण चराचर जगत् प्रकाशमय हो गया।
उन जल-बिन्दुओं को देखकर दिशाओं की अधिष्ठात्री देवियों के हृदय मे पुत्र-प्राप्ति की लालसा जागृत हो गयी।उन्होंने स्त्री रूप धारण कर उन जल-बिन्दुओं को ग्रहण कर लिया।इससे उनके उदर मे गर्भाधान हो गया।परन्तु वे उसके तेज को सहन नहीं कर सकीं।अतः उन्होंने उस गर्भ को त्याग दिया।उसी समय ब्रह्मा जी आ गये।उन्होंने उस परित्यक्त गर्भ को एकत्रित कर दिया।उससे शस्त्रास्त्र-विभूषित एक तरुण पुरुष प्रकट हो गया।ब्रह्मा जी उसे अपने लोक मे ले गये।वहाँ समस्त ऋषियों ; मुनियों ; देवी-देवताओं आदि ने उनकी स्तुति की।शनैः शनैः उनका तेज बढ़ता गया।वही परम तेजस्वी पुरुष चन्द्रमा के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
चन्द्रमा की यह प्रमुख विशेषता है कि वे शुक्ल पक्ष मे क्रमशः बढ़ते रहते हैं और कृष्ण पक्ष मे क्षीण होते जाते हैं।कालान्तर मे प्रजापति दक्ष ने अपनी सत्ताईस कन्याओं का विवाह चन्द्रमा से कर दिया।उसके बाद चन्द्रमा ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया।विष्णु जी प्रकट हुए और चन्द्रमा से वर माँगने को कहा।चन्द्रमा ने इन्द्रलोक मे राजसूय यज्ञ करने की प्रार्थना की।विष्णु जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
बाद मे स्वयं विष्णु जी ने ही उस यज्ञ का आयोजन किया।उसमे समस्त देवगण सम्मिलित हुए।उस यज्ञ के सम्पन्न होने पर चन्द्रमा को दुर्लभ ऐश्वर्य की प्राप्ति हुई।इसी के प्रभाव से वे समस्त लोकों के स्वामी बन गये।
Monday, 11 July 2016
चन्द्रमा की उत्पत्ति -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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