भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों मे भगवान ऋषभदेव के अवतार की गणना अष्टम स्थान पर की गयी है।श्रीमद्भागवत महापुराण ( 1/3/13 ) के अनुसार श्रीहरि ने राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप मे अष्टम अवतार ग्रहण किया।इस रूप मे उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग दिखाया ; जो सभी आश्रमवासियों के लिए वन्दनीय है ---
अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः।
दर्शयन् वर्त्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम्।।
प्राचीन काल मे नाभि नामक एक महाप्रतापी शासक थे।उनकी पत्नी का नाम मेरुदेवी था।दुर्भाग्यवश उनके कोई सन्तान नहीं थी।इसलिए उन्होंने पुत्र-प्राप्ति की कामना से भगवान यज्ञपुरुष का यजन किया।उनकी श्रद्धा-भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीहरि प्रकट हुए।राजा रानी और ऋत्विजों ने उनका पूजन किया।बाद मे ऋत्विजों ने अनुरोध किया -- प्रभो ! राजर्षि नाभि आपके ही समान पुत्र पाने के लिए आपकी आराधना कर रहे हैं।इसे सुनकर प्रभुवर ने कहा -- आपने मुझसे बहुत दुर्लभ वर माँगा है।मै तो अद्वितीय हूँ।मेरे समान केवल मै ही हूँ।इसलिए मै स्वयं ही अंशकला से युक्त होकर राजा नाभि के यहाँ पुत्ररूप मे अवतार लूँगा।इस प्रकार वरदान देकर प्रभुवर अन्तर्धान हो गये।
कालान्तर मे भगवान श्रीहरि महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर सन्यासी और ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिए शुद्ध तत्त्वमय विग्रह से आविर्भूत हुए।प्राकट्य काल मे ही उनके शरीर पर वज्र ; अंकुश आदि चिह्न विद्यमान थे।उनके शरीर की सुगठित संरचना ; तेज ; बल ; ऐश्वर्य ; यश ; पराक्रम आदि को देखकर राजा नाभि ने उनका नाम ऋषभ ( श्रेष्ठ ) रखा।राजा ने उनके लालन-पालन एवं शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था की।ऋषभदेव जब वयस्क हुए तब राजा ने उन्हें राजपाठ सौंप दिया और स्वयं अपनी पत्नी के साथ तप करने के लिए बदरिकाश्रम के लिए प्रस्थान कर दिया।
भगवान ऋषभदेव का विवाह देवराज इन्द्र की पुत्री जयन्ती के साथ हुआ।उनके सौ पुत्र उत्पन्न हुए।सबसे ज्येष्ठ पुत्र का नाम भरत था।कालान्तर मे उन्हीं के नाम पर अजनाभ वर्ष का नाम भारत वर्ष पड़ गया।ऋषभदेव सर्वगुण सम्पन्न एवं सर्वसमर्थ थे।उनके शासन काल मे सभी लोग सुखी और सम्पन्न थे।एक बार इन्द्र ने ईर्ष्यावश उनके राज्य मे वर्षा नहीं की।उस समय भगवान ऋषभदेव का बचपन था।फिर भी उन्होंने अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने देश मे पर्याप्त जल बरसाया था।
एक बार ऋषभदेव ब्रह्मावर्त देश मे पहुँचे।वहाँ उन्होंने प्रजाओं के समक्ष अपने पुत्रों को बहुत सारगर्भित उपदेश दिया।बाद मे अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राजगद्दी सौंपकर स्वयं विरक्त हो गये।वे सर्वथा दिगम्बर एवं उन्मत्त-सदृश होकर ब्रह्मावर्त से बाहर चले गये।वे मौन होकर पागलों जैसी चेष्टा करते हुए अवधूत बनकर विचरण करने लगे।मार्ग मे उन्हें दुष्ट लोग परेशान भी करते थे किन्तु वे चुपचाप सहन करते रहते थे।धीरे धीरे अपने शरीर के प्रति उनकी ममता ही समाप्त हो गयी थी।वे लेटे-लेटे खाते-पीते और मल-मूत्र त्याग करते थे।कभी-कभी अपने द्वारा त्यागे गये मल मे लोट लोटकर उसे पूरे शरीर मे लगा लेते थे।फिर भी उनके मल मे कोई दुर्गन्ध नहीं थी।उनके शरीर और मल दोनो से दिव्य सुगन्ध निकलती थी।
इस प्रकार ऋषभदेव ने कई प्रकार की योगचर्याओं का आचरण किया।यद्यपि उन्हें किसी प्रकार की सिद्धियों की आवश्यकता नहीं थी।फिर भी आकाशगमन ; अन्तर्धान ; परकाया-प्रवेश ; दूरश्रवण ; दूरदृष्टि सदृश अनेक सिद्धियाँ स्वयं ही उनकी सेवा मे आ गयीं।परन्तु उन्होंने किसी भी सिद्धि को स्वीकार नहीं किया।वे सर्वसमर्थ होते हुए भी अपने ईश्वरीय प्रभाव को सदैव छिपाये रहते थे।वे सदैव अवधूत स्वरूप मे रहते थे।एक बार वे दक्षिण भारत की ओर गये।वहाँ इस पाञ्चभौतिक शरीर को त्यागने की इच्छा हुई।वे जब कुटकाचल के वन मे भ्रमण कर रहे थे तभी बाँसों के घर्षण से प्रबल दावाग्नि धधक उठी।उसी अग्नि के द्वारा सम्पूर्ण वन सहित ऋषभदेव भी भस्म हो गये।इस प्रकार उनका अन्त हो गया।
Wednesday, 20 July 2016
ऋषभदेव अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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