शिव शब्द का अर्थ है -- कल्याण।अतः समस्त कल्याणार्थियों को शिव जी की उपासना अवश्य करनी चाहिए।उनकी उपासना की अनेक विधियाँ हैं किन्तु शिवलिंग का अभिषेक करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विधि है।
रुद्राभिषेक के विषय मे एक रोचक आख्यान उपलब्ध है।एक बार सनकादि मुनियों ने पृथ्वी का भ्रमण करते हुए देखा कि वहाँ अधिकाँश लोग नाना प्रकार के कष्टों से पीड़ित हैं।उसके बाद वे शिव जी के पास गये और उनसे कष्ट दूर करने का उपाय पूछा।शिव जी ने बताया कि इन समस्त दुखों से मुक्ति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय रुद्राभिषेक ही है।इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है।यदि कोई व्यक्ति शान्तचित्त होकर श्रद्धा-भक्ति के साथ रुद्राभिषेक करे तो उसके समस्त दुःखों का नाश हो जायेगा।वह समस्त सिद्धियों को प्राप्त करके अन्त मे मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
शास्त्रों मे विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए अनेक पदार्थों का उल्लेख किया गया है।भिन्न भिन्न द्रव्यों से अभिषेक करने पर उसका फल भी भिन्न भिन्न होता है।यहाँ कुछ प्रमुख द्रव्यों एवं उनसे अभिषेक करने पर मिलने वाले फलों का उल्लेख किया जा रहा है।
1-- गोदुग्ध -- रुद्राभिषेक के लिए देशी एवं कृष्णा गऊ का दूध सर्वोत्तम माना गया है।यदि तन मन मे किसी प्रकार का उच्चाटन हो ; कहीं भी मन न लगे ; प्रेम का अभाव हो ; दुःख बढ़ जाय अथवा गृह कलह हो तब गोदुग्ध से रुद्राभिषेक कराने पर सारे कष्ट दूर हो जाते हैं।विशेषकर बन्ध्या ( जिसे सन्तान न होती हो ) ; काकबन्ध्या ( एक बार सन्तान होने के बाद दूसरी न हो ) और मृतवत्सा ( जिसके बच्चे होकर मर जाते हों ) को भी दीर्घायु पुत्र की प्राप्ति होती है।किसी विशेष कार्य की सिद्धि के लिए गोदुग्ध से रुद्राभिषेक कराना सर्वोत्तम उपाय है।
2-- जल -- जल से रुद्राभिषेक करने पर सुवृष्टि होती है।यदि किसी को ज्वर पीड़ा हो तो जलाभिषेक से तत्काल लाभ होता है।सुख समृद्धि एवं सन्तान वृद्धि के लिए भी जल से रुद्राभिषेक कराना चाहिए।
3-- दधि -- दधि से रुद्राभिषेक करने पर गौ आदि पशुओं का लाभ होता है।
4-- गंगाजल -- गंगाजल से रुद्राभिषेक करने पर भोग और मोक्ष दोनो की प्राप्ति होती है।
5-- कुशोदक -- कुशोदक ( कुश का जल ) से रुद्राभिषेक करने पर सभी व्याधियाँ शान्त हो जाती हैं।
6-- गन्ना का रस -- ईख या गन्ना के रस से अभिषेक करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।विद्वानों ने धन लाभ के लिए गन्ना के रस को सर्वाधिक महत्त्व दिया है।इससे सब प्रकार के आनन्द की प्राप्ति होती है।
7-- मधु -- मधु ( शहद ) से रुद्राभिषेक करने पर पर्याप्त धन लाभ होता है।इससे पाप और प्रायश्चित्त की भी शान्ति हो जाती है।इससे राजयक्ष्मा ( टी बी ) रोग भी दूर हो जाता है।
8-- घृत -- घृत से रुद्राभिषेक करने पर अपार धन की प्राप्ति होती है।इससे पुत्रादि की प्राप्ति होकर वंश की वृद्धि होती है।नपुंसकता दूर करने के लिए भी घृताभिषेक सर्वोत्तम उपाय है।
9-- तीर्थजल -- तीर्थजल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
10-- शर्करा मिश्रित गोदुग्ध से अभिषेक करने पर जड़ बुद्धि व्यक्ति की भी बुद्धि वृहस्पति के समान हो जाती है।विद्यार्थियों की बुद्धि वृद्धि के लिए यह सर्वोत्तम उपाय है।
11-- सरसों का तेल -- शत्रुनाश के लिए सरसों के तेल से अभिषेक करना चाहिए।
12-- चीनी के शरबत से रुद्राभिषेक करने पर पुत्र की प्राप्ति होती है।
13-- सुवासित तेल से अभिषेक करने पर सांसारिक भोगों की प्राप्ति होती है।
Sunday, 26 June 2016
रुद्राभिषेक -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
Saturday, 25 June 2016
पञ्चाक्षरीविद्या या पञ्चाक्षरमन्त्र -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
शिव जी के विभिन्न मन्त्रों मे पञ्चाक्षरीविद्या अथवा पञ्चाक्षरमन्त्र अर्थात् " नमः शिवाय " या षडक्षर रूप मे " ऊँ नमः शिवाय " का विशेष महत्त्व है।इस मन्त्र का उपदेश स्वयं शिव जी ने माता पार्वती जी को दिया था।इस मन्त्र का महत्त्व इतना अधिक है कि उसका वर्णन सौ करोड़ वर्षों मे भी किया जाना संभव नहीं है।प्रलयकाल मे जब समस्त चराचर जगत् ; देव ; असुर ; नाग ; राक्षस आदि नष्ट हो जाते हैं ; देवी पार्वती सहित सभी पदार्थ प्रकृति मे लीन होकर प्रलय को प्राप्त हो जाते हैं।उस समय एकमात्र शिव ही रह जाते हैं।दूसरा कोई भी नहीं रहता है।उस समय सभी वेद और शास्त्र उसी पञ्चाक्षरमन्त्र मे स्थित रहते हैं।वे सभी भगवान शिव की शक्ति से अनुपालित रहते हैं।इसलिए उनका विनाश नही होता है।
उस समय शिव जी अकेले होते हुए भी प्रकृति और आत्मा के भेद से दो रूपों मे विद्यमान रहते हैं।वे ही ब्रह्मा और विष्णु के रूप मे प्रकट होते हैं।फिर स्वयं शिव ही अपने पाँच मुखों से पाँच अक्षरों का उच्चारण करते हैं।उन्हीं पञ्चाक्षरों के प्रयोग से ब्रह्मा जी सिद्धि प्राप्त करके अपने पुत्रों को भी उसी का उपदेश देते हैं।बाद मे ब्रह्मा के पुत्रों ने इसी महामन्त्र के द्वारा शिव जी की आराधना की और नानाविध सिद्धियाँ प्राप्त कीं।
यह पञ्चाक्षर मन्त्र अल्पाक्षर होते हुए भी महान अर्थों वाला ; वेदों के सारस्वरूप ; मुक्तिप्रद ; आज्ञासिद्ध ; असन्दिग्ध ; सुनिश्चित अर्थों वाला ; गम्भीर एवं परमेश्वर स्वरूप है।यह सुख पूर्वक उच्चारण करने योग्य ; सम्पूर्ण प्रयोजनो को सिद्ध करने वाला ; सभी विद्याओं के बीजस्वरूप ; आद्यमन्त्र ; परम सुन्दर एवं अति सूक्ष्म है।यह वट वृक्ष के बीज की भाँति वेदस्वरूप ; तीनों गुणों से परे ; सर्वज्ञ ; सर्वसमर्थ एवं सब कुछ करने वाला है।
इस महामन्त्र मे " ऊँ " एकाक्षरी मन्त्र है।इसमे सर्वव्यापी शिव का सदैव निवास रहता है।पाँच अक्षर रूपी शरीर वाले शिव स्वभाव से ही सूक्ष्म षडक्षर मन्त्र ( ऊँ नमः शिवाय ) मे वाच्य-वाचक भाव से विराजमान रहते हैं।भगवान शिव जी इस मन्त्र के वाच्य हैं और यह मन्त्र उनका वाचक है।वेद अथवा शिवागम मे षडक्षर मन्त्र स्थित है किन्तु लोक मे पञ्चाक्षर मन्त्र की प्रमुखता मानी गयी है।जिस व्यक्ति के हृदय मे परमेश्वर स्वरूप यह महामन्त्र विराजमान है ; उसे अन्य मन्त्रों अथवा विस्तृत शास्त्रों की आवश्यकता ही नहीं है।जो व्यक्ति इसका ज्ञान प्राप्त करके यथोचित रीति से इसका जप करता है ; वह सब कुछ अनुष्ठित कर लेता है।उसे अन्य किसी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं रहती है।एकमात्र यह मन्त्र ही शिवज्ञान ; परमपद एवं ब्रह्मविद्या है।अतः समस्त आस्तिक जनों को इसका जप अवश्य करना चाहिए।
प्रणव सहित इस मन्त्र का स्वरूप " ऊँ नमः शिवाय " होता है।यह भगवान शिव का हृदय है।यह गूढ़ातिगूढ़ एवं सर्वोत्तम भोगज्ञान है।इस मन्त्र के ऋषि ; छन्द ; देवता आदि इस प्रकार हैं ---
" ऊँ नमः शिवाय " रूपी इस मन्त्र के ऋषि वामदेव ; छन्द पंक्ति ; देवता शिव ; बीज नकार और शक्ति पार्वती जी हैं।
अ उ म शिव जी के प्रणव मे स्थित हैं और उ म अ पार्वती जी के प्रणव मे हैं।यह तीन मात्राओं वाला है।इसका स्वर उदात्त ; ऋषि ब्रह्मा ; शरीर श्वेत ; छन्द गायत्री और अधिदेवता परमात्मा हैं।
" न " का वर्ण पीत ; स्थान पूर्वमुख ; अधिदेवता इन्द्र ; छन्द गायत्री और ऋषि गौतम हैं।
" म " का वर्ण कृष्ण ; स्थान दक्षिण मुख ; अधिदेवता रुद्र ; छन्द अनुष्टुप् और ऋषि अत्रि हैं।
" शि " का वर्ण धूम्र ; स्थान पश्चिम मुख ; अधिदेवता विष्णु ; छन्द त्रिष्टुप् और ऋषि विश्वामित्र हैं।
" वा " का वर्ण हेम ; स्थान उत्तर मुख ; अधिदेवता ब्रह्मा ; छन्द बृहती और ऋषि अंगिरा हैं।
" य " का वर्ण लाल ; स्थान ऊर्ध्व मुख ; अधिदेवता स्कन्द ; छन्द विराट और ऋषि भरद्वाज हैं।
इस प्रकार गुरु से प्राप्त इस महामन्त्र को विधिवत् समझकर न्यास आदि विधियों का पालन करते हुए नित्य जप करना चाहिए।इसका पुरश्चरण भी किया जा सकता है।जो व्यक्ति बिना भोजन किये एक हजार आठ मन्त्र नित्य जपता है वह परम गति को प्राप्त कर लेता है।इसका बीस लाख जप करने से पुरश्चरण होता है।इससे सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
Friday, 24 June 2016
शिवलिंग का प्राकट्य -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
त्रिदेवों मे भगवान शिव जी की विशिष्ट महत्ता है।उनका पूजन अनादि काल से अक्षुण्ण रूप मे प्रचलित है।इसीलिए भारत के कोने कोने मे शिवलिंग अथवा शिव मूर्ति विराजमान हैं।फिर भी लिंगपूजा का विशेष प्रचलन है।यह लिंगपूजन कब आरम्भ हुआ अथवा शिवलिंग का प्रादुर्भाव कब हुआ ; इस विषय मे शिवपुराण मे बहुत रोचक कथा उपलब्ध है।
एक बार ब्रह्मा और विष्णु के मध्य विवाद आरम्भ हो गया।दोनो अपने आपको श्रेष्ठ बता रहे थे।उसी समय उन दोनों के बीच एक विशाल एवं ज्योतिर्मय अग्नि स्तम्भ प्रकट हो गया।दोनों आश्चर्यचकित होकर सोचने लगे कि यह क्या है ? कुछ देर बाद दोनो के मन मे यह बात उभरी कि सम्भवतः यह हम दोनो की श्रेष्ठता प्रमाणित करने का कोई दैवी मानदण्ड है।अतः उन दोनो मे यह तय हुआ कि जो व्यक्ति इस स्तम्भ का ओर-छोर पता लगा लेगा।वही श्रेष्ठ देव मान लिया जायेगा।ब्रह्मा जी ऊपर की ओर और विष्णु जी नीचे की ओर गये।दोनों दीर्घकाल तक यात्रा करते रहे किन्तु उस स्तम्भ का ओर-छोर नहीं पा सके।फलतः दोनो निराश होकर वापस लौट आये।
अब दोनो के समझ मे नहीं आ रहा था कि यह क्या है और इसका आदि अन्त कहाँ है ? अन्ततः दोनो प्रार्थना करने लगे -- हे प्रभुवर ! आप जो भी हों ; हमारे ऊपर प्रसन्न हों और हमे अपना दर्शन दें।उनकी भक्तिपूर्ण प्रार्थना से प्रसन्न होकर शक्ति सहित शिव जी प्रकट हो गये और उन्हें मनोवाँछित वर प्रदान किया।उसी समय से ज्योतिर्मय लिंग अथवा शिवलिंग का पूजन आरम्भ हो गया।
सामान्यतः लिंग का अर्थ है -- चिह्न या प्रतीक ; जिसे आँग्ल भाषा मे Symbol कहा जाता है।यह शिव और शक्ति का संयुक्त प्रतीक है।इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि शिव और शक्ति के चिह्न का सम्मेलन ही लिंग है।यह परमार्थ शिव का गमक एवं बोधक होने के कारण लिंग कहलाता है --
लिङ्गमर्थं हि पुरुषं शिवं गमयतीत्यदः।
शिवशक्त्योश्च चिह्नस्य मेलनं लिङ्गमुच्यते।।
प्रायः सभी धर्मग्रन्थों मे भगवान शिव जी की असीम महिमा वर्णित है।राम ; कृष्ण ; इन्द्र आदि सभी देवताओं ने इनकी उपासना करके श्रेष्ठातिश्रेष्ठ सिद्धियाँ प्राप्त की हैं।अतः प्रत्येक आस्तिक व्यक्ति को मनोवाँछित सफलता प्राप्त करने के लिए शिवोपासना अवश्य करनी चाहिए।
लिंगोपासना क्यों ? -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
हमारे देश मे शिवोपासना की परम्परा अनादिकाल से विद्यमान है।इसीलिए अनेक स्थलों पर शिवलिंग एवं शिवमूर्ति विराजमान हैं।यहाँ प्रश्न यह उठता है कि अन्य देवताओं का पूजन केवल मूर्तिरूप मे होता है किन्तु शिव जी की पूजा मूर्ति और लिंग दोनों रूपों मे होती है।इसका कारण क्या है ?इस प्रश्न का उत्तर शिवपुराण मे सम्यक् रूप से दिया गया है।
एक बार ऋषियों ने सूत जी से पूछा -- सभी देवताओं की पूजा केवल मूर्ति रूप मे ही होती है किन्तु शिव जी की पूजा मूर्ति और लिंग दोनों रूपों मे क्यों होती है ? इस प्रश्न के उत्तर मे सूत जी ने बताया कि भगवान शिव जी ब्रह्मस्वरूप हैं।इसलिए उन्हें निष्कल या निराकार कहा जाता है।जब वे साकार रूप धारण करते हैं तब उन्हें सकल या साकार कहा जाता है।इस प्रकार वे साकार और निराकार दोनों रूपों मे हैं।उनके निराकार रूप का प्रतीक ही लिंग कहलाता है।साकार स्वरूप का प्रतीक मूर्ति है।यहाँ यह ध्यातव्य है कि केवल शिव ही ब्रह्म हैं।इसीलिए उनकी पूजा मूर्ति और लिंग दोनो रूपों मे की जाती है।अन्य देवता ब्रह्म नहीं हैं।इसलिए उनकी पूजा केवल मूर्तिरूप मे ही होती है।उनके लिए लिंग का प्रयोग नही होता है।
इसी प्रश्न को एक बार सनत्कुमार ने नन्दिकेश्वर से पूछा था।उस समय नन्दिकेश्वर ने भी यही बताया था कि शिव जी ब्रह्म होने के कारण निराकार रूप मे लिंग मे और साकार रूप मे मूर्ति मे पूजे जाते हैं।अतःनिष्कर्ष रूप मे कहा जा सकता है कि लिंग शिव जी के निराकार स्वरूप का प्रतीक है।लिंग का अर्थ भी चिह्न या प्रतीक होता है।इसीलिए शिव जी की पूजा लिंग रूप मे की जाती है।
Thursday, 23 June 2016
शनिवार व्रत -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
जन्मकुण्डली मे जब शनि ग्रह कष्टदायक हो तब शनिव्रत अवश्य करना चाहिए।साथ ही शनि की ढैया एवं साढ़ेसाती जनित कष्टों की शान्ति हेतु भी शनिव्रत बहुत उपयोगी होता है।
विधि --
शनिवार का व्रत करने के लिए व्रती प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।फिर शनि की लौहमयी मूर्ति स्थापित कर उसका पूजन करे।पूजन मे कृष्णपुष्प ( विष्णुकान्ता ) एवं काले गन्ध आदि का प्रयोग करना चाहिए।
माहात्म्य --
इस व्रत को करने से शनि की ढैया एवं साढ़ेसाती आदि से होने वाले कष्टों से मुक्ति मिल जाती है।व्रती धन-धान्य से परिपूर्ण होकर सुखमय जीवन व्यतीत करने लगता है।
शुक्रवार व्रत -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
जन्मकुण्डली अथवा गोचर मे यदि शुक्र ग्रह अनिष्टकारी हो तब शुक्रवार का व्रत बहुत लाभकारी होता है।
विधि --
शुक्रवार को जब ज्येष्ठा नक्षत्र हो तब शुक्रवार का व्रत विशेष फलदायक होता है।व्रती को चाहिए कि वह प्रातः स्नानादि करके व्रत का संकल्प ले।फिर रजतपात्र मे शुक्र की सुवर्ण निर्मित मूर्ति को स्थापित कर उसकी विधिवत् पूजा करे।पूजन मे श्वेत गन्ध ; पुष्प ; अक्षत आदि का प्रयोग करना चाहिए।इसमे नक्तव्रत ( रात्रि मे भोजन ) करने का विधान है।बाद मे ब्राह्मणों को खीर का भोजन कराना चाहिए।साथ मे मूर्ति एवं पूजन सामग्री भी दान कर देनी चाहिए।इस प्रकार सात बार व्रत करने से समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।
माहात्म्य --
इस व्रत को करने से शुक्र ग्रह जनित सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।
गुरुवार व्रत -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
किसी भी महीने के शुक्ल पक्ष मे गुरुवार के दिन अनुराधा नक्षत्र होने पर गुरुवार व्रत किया जाय तो विशेष शुभ होता है।
विधि --
व्रती प्रातः स्नानादि करके व्रत का संकल्प ले।फिर सुवर्णपात्र मे बृहस्पति की सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित कर उसका विधिवत् पूजन करे।पूजन मे पीले गन्ध ; पुष्प वस्त्र आदि का प्रयोग करना चाहिए।बाद मे पीले अन्न अर्थात् चना के बने लड्डू एवं उसी के अन्य पदार्थों का भोजन करे और उसी को ब्राह्मण को खिलाये।
माहात्म्य --
गुरुवारव्रत करने से गुरु ग्रहजन्य सभी दोष मिट जाते हैं।साथ ही व्रती को धन पुत्र बुद्धि विवेक आदि की प्राप्ति होती है।इस दिन शिव जी का पूजन करना विशेष फलदायक होता है।
बुधवार व्रत -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
जन्मकुण्डली अथवा गोचर मे बुध ग्रहजन्य समस्त दोषों की शान्ति के लिए बुधवार व्रत सर्वोत्तम उपाय है।
विधि --
व्रती प्रातः स्नानादि करके व्रत का संकल्प ले।फिर कांस्यपात्र मे बुध की सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित कर उसका विधिवत् पूजन करे।दही भात और गुड़ का नैवेद्य अर्पित करे।कुछ विद्वानो के मतानुसार इस व्रत मे हरी वस्तुओं का प्रसाद चढ़ाना और उसी का सेवन करना विशेष शुभ होता है।इसमे दिन मे एक बार प्रसाद रूप आहार ग्रहण करना चाहिए।
माहात्म्य --
बुधवार व्रत से बुधजन्य सभी दोष समाप्त हो जाते हैं।बुध ग्रह की अनुकूलता से बुद्धि विवेक का विकास होता है।व्रतान्त मे शिवपूजन करना विशेष हितकर होता है।
मंगलवार व्रत -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
मंगलवार व्रत अधिकाँशतः मंगल ग्रह जन्य कष्टों की निवृत्ति एवं हनुमान जी की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
विधि --
यदि मंगल ग्रह की अनुकूलता के लिए व्रत करना हो तो व्रती प्रातः स्नानादि करके व्रत का संकल्प ले।फिर ताम्रपात्र मे मंगल की सुवर्णमयी मूर्ति स्थापित कर उसका विधिवत पूजन करे।पूजनोपरान्त गुड़ से परिपूर्ण ताम्रपात्र का दान करे।इस प्रकार एक वर्ष तक व्रत करके उद्यापन करना चाहिए।
यदि हनुमान जी के उद्देशय से व्रत करना हो तो स्नानादि के बाद संकल्प पूर्वक हनुमान जी का पूजन करे।प्रसाद रूप मे भीगी हुई चना की दाल ; गुड़ और गुड़ मिश्रित पूड़ी का नैवेद्य चढ़ाये।मोतीचूर का लड्डू भी चढ़ाया जा सकता है।
माहात्म्य --
इस व्रत को करने से व्यक्तियों की समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।मंगल ग्रह की अनुकूलता एवं हनुमान जी की प्रसन्नता से हर प्रकार का सुख प्राप्त होता है।
सोमवार व्रत
सोमवार व्रत का आरम्भ चैत्र ; वैशाख ; श्रावण ; कार्तिक एवं मार्गशीर्ष मास मे किया जाता है।श्रावण मासीय सोमवार व्रत की विशिष्ट महत्ता मानी गयी है।चन्द्रदेव की अनुकूलता एवं शिव जी की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए सोमवार व्रत बहुत शुभ होता है।
विधि --
प्रातः स्नानादि करके व्रत का संकल्प ले।फिर किसी शिवालय मे जाकर शिव जी का ध्यान करे।तत्पश्चात् " ऊँ नमः शिवाय " से शिव जी का और " ऊँ नमः शिवायै " से पार्वती जी का विधिवत् पूजन करे।दिन मे एक बार फलाहार ग्रहण करे।इस प्रकार चौदह वर्षों तक व्रत करके उद्यापन करे।आजकल सोलह सोमवार व्रत का विशेष प्रचार है।
माहात्म्य --
सोमवार व्रत बहुत पुण्यदायक होते है।इससे पुरुषों को धन ; स्त्री ; पुत्र आदि का अखण्ड सुख प्राप्त होता है।यदि स्त्री करे तो उसे अखण्ड सौभाग्य एवं पुत्र-पौत्र की प्राप्ति होती है।
रविवार व्रत
रविवार व्रत भगवान सूर्यदेव की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।जिस व्यक्ति की जन्मकुण्डली अथवा गोचर मे सूर्य अनिष्टकारी हो ; उसे रविवार व्रत अवश्य करना चाहिए।
विधि ---
रविवार व्रत का आरम्भ विशेषकर वैशाख ; मार्गशीर्ष और माघ मे किया जाता है।कुछ लोगों के अनुसार कार्तिक मास भी रविवार व्रत के लिए उत्तम माना गया है।व्रती को चाहिए कि वह प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।फिर सुवर्ण निर्मित सूर्यमूर्ति का गन्धाक्षत आदि से विधिवत पूजन करे।मूर्ति के अभाव मे सूर्यदेव की ओर देखते हुए उन्हें गन्ध पुष्प आदि अर्पित करे।फिर जल मे लाल पुष्प डालकर सूर्यार्घ्य प्रदान करे।सम्पूर्ण दिन शान्तचित्त होकर परमात्मा का स्मरण करे।
रविवार व्रत मे सूर्यास्त के पूर्व एक बार नमक रहित भोजन लेना चाहिए।यदि केवल फलाहार लेना हो तो भी सूर्यास्त के पूर्व ही लेना चाहिए।इस प्रकार एक वर्ष तक व्रत करके उद्यापन करना चाहिए।
माहात्म्य ---
रविवार व्रत करने से मनुष्य तेजस्वी ; स्वाभिमानी एवं प्रसिद्ध हो जाता है।दाद ; कुष्ठ आदि रक्तविकार ; नेत्रपीड़ा ; दीर्घरोग से मुक्ति पाने के लिए रविवार व्रत बहुत फलकारी माना जाता है।इस व्रत से मनुष्य की सभी कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।स्वास्थ्य लाभ के लिए रविवार व्रत रामबाण सदृश प्रभावशाली है।
शिव पार्वती विवाह -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
द्वारपूजा के बाद बारात जनवासे वापस गयी।चढ़ाव का जब समय आया तब विष्णु आदि देवताओं ने वैदिक एवं लौकिक रीति का पालन करते हुए शिव जी के द्वारा दिये गये आभूषणों से पार्वती जी को अलंकृत किया।धीरे-धीरे कन्यादान की मुहूर्त सन्निकट आ गयी।वर सहित बारातियों को बुलाया गया।भगवान शिव जी बाजे गाजे के साथ हिमालय के घर पहुँचे।हिमवान ने श्रद्धा भक्ति के साथ शिव जी को प्रणाम किया और आरती उतारी।फिर उन्हें रत्नजटित सिंहासन पर बैठाया।आचार्यों ने मधुपर्क आदि क्रियायें सम्पन्न कीं।फिर पार्वती जी को उचित स्थान पर बैठाकर पुण्याहवाचन आदि किया गया।
अब कन्यादान का समय आ गया।हिमवान के दाहिनी ओर मेना और सामने पार्वती जी विराजमान हो गयीं।इसी समय हिमवान ने शाखोच्चार के उद्देश्य से शिव जी से उनका गोत्र ; प्रवर ; शाखा आदि के विषय मे पूछा।शिव जी ने कोई उत्तर नहीं दिया।तब नारद जी ने कहा -- पर्वतराज ! तुम बहुत भोले हो।तुम्हारा प्रश्न उचित नहीं है क्योंकि इनके गोत्र ; कुल आदि के बारे मे ब्रह्मा ; विष्णु आदि भी नहीं जानते हैं।दूसरों के द्वारा जानने का प्रश्न ही नहीं उठता है।ये प्रकृति से परे निर्गुण ; निराकार परब्रह्म परमात्मा और गोत्र ; कुल ; नाम आदि से रहित स्वतन्त्र एवं परम पिता परमेश्वर हैं।परन्तु स्वभाव से अत्यन्त दयालु और भक्तवत्सल हैं।ये केवल भक्तों का कल्याण करने के लिए ही साकार रूप धारण करते हैं।इसलिए इनके गोत्र ; प्रवर आदि जानने के भ्रमजाल मे मत फँसिये।
नारद जी की बातों को सुनकर हिमालय को ज्ञान हो गया।उनके मन का सम्पूर्ण विस्मय नष्ट हो गया।उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक निम्नलिखित मन्त्र बोलते हुए भगवान शिव जी के लिए अपनी कन्या का दान कर दिया ---
इमां कन्यां तुभ्यमहं ददामि परमेश्वर।
भार्यार्थं परिगृह्णीष्व प्रसीद सकलेश्वर।।
भगवान शिव जी ने प्रसन्नता पूर्वक वेदमन्त्रों के साथ पार्वती जी के करकमलों को अपने हाथ मे ग्रहण कर लिया।फिर क्या था ; सम्पूर्ण त्रैलोक्य मे जय जयकार का शब्द गूँजने लगा।इसके बाद शैलराज ने शिव जी को कन्यादान की यथोचित सांगता प्रदान की।साथ ही अनेक प्रकार के द्रव्य ; रत्न ; गौ ; अश्व ; गज ; रथ आदि प्रदान किया।इसके बाद विवाह की सम्पूर्ण क्रियायें सम्पन्न की गयीं।
Wednesday, 22 June 2016
दिव्य दूल्हन पार्वती जी -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
शिव जी की बारात जब हिमाचल पुरी पहुँची तब मेना ने शिव जी की विधिवत आरती की।इसके बाद द्वारपूजा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।द्वारपूजा आदि के बाद बारात जनवासे की ओर चल पड़ी।इधर पार्वती जी अपनी कुलदेवी का पूजन करने गयीं।उस समय उनका स्वरूप अत्यन्त सुन्दर एवं दर्शनीय था।उनकी अंगकान्ति नीलाञ्जन सदृश अत्यन्त मनमोहक थी।उनके अंग-प्रत्यंग सौन्दर्य से परिपूर्ण थे।उनका मुखमण्डल मन्द मुस्कान से सुशोभित था।उनकी दृष्टि अत्यन्त पैनी एवं मनोहारिणी थी।नेत्रों की आकृति कमल को भी लज्जित कर रही थी।उनकी केशराशि बहुत सुन्दर एवं हृदयाकर्षक थी।कपोलों पर बनी हुई पत्रभंगी के कारण उनकी शोभा द्विगुणित हो रही थी।ललाट मे कस्तूरी और सिन्दूर कि बिन्दी अत्यधिक शोभायमान थी।
पार्वती जी का सम्पूर्ण शरीर बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित था।उन्होंने वक्षस्थल पर जो रत्नजटित हार धारण कर रखा था ;उससे दिव्य दीप्ति निःसृत हो रही थी।उनकी भुजाओं मे केयूर ; कंकण ; वलय आदि आभूषण सुशोभित हो रहे थे।उन्होंने कानों मे जो रत्नकुण्डल धारण कर रखा था ; उससे उनके मनोहर कपोलों की रमणीयता और अधिक बढ़ गयी थी।उनकी दन्तपंक्ति मणियों एवं रत्नों की शोभा को भी लज्जित कर रही थी।उनके अधर एवं ओष्ठ सुन्दर बिम्बाफल के समान सुशोभित हो रहे थे।पैरों मे रत्नाभ महावर विराजमान थी।उनके एक हाथ मे रत्नजटित दर्पण और दूसरे हाथ मे क्रीडाकमल सुशोभित हो रहा था।
पार्वती जी के शरीर की शोभा अत्यन्त सुन्दर एवं अवर्णनीय थी।उनके सम्पूर्ण शरीर मे चन्दन ; अगरु ; कस्तूरी और कंकुम का अंगराग सुशोभित था।उनके पैरों की पायजेब मधुर संगीत बिखेर रही थी।उनके इस दिव्य रूप को देखकर सभी देवता भक्तिभाव से नतमस्तक हो गये।भगवान शिव जी ने भी कनखियों के द्वारा पार्वती जी मे सती जी की आकृति का अवलोकन किया ; जिससे उनकी विरह वेदना समाप्त हो गयी।उनके सम्पूर्ण अंग रोमाञ्चित हो उठे।उस समय ऐसा प्रतीत होता था ; मानो गौरी जी शिव जी की आँखों मे समा गयी हों।
इधर पार्वती जी अपने कुलदेवी का पूजन करने लगीं।उनके साथ अनेक ब्राह्मण - पत्नियाँ भी विद्यमान थीं।पूजनोपरान्त सभी लोग हिमालय के राजभवन मे चली गयीं।बाराती भी जनवासे मे जाकर विश्राम करने लगे।