Thursday, 9 June 2016

शिव जी द्वारा पार्वती की परीक्षा -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           पार्वती जी की तपस्या के स्तर को सुनकर शिव जी ने स्वयं उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया।वे परीक्षा के बहाने पार्वती जी को देखना भी चाहते थे।अतः शिव जी एक जटाधारी तपस्वी का रूप धारण कर पार्वती जी के आश्रम मे पहुँचे।पार्वती जी ने उनका यथोचित सत्कार किया और कुशल-क्षेम पूछा।तब तपस्वी रूपी शिव जी ने पार्वती जी से पूछा -- तुम कौन हो ? इस निर्जन वन मे किस प्रयोजन से कठोर तप कर रही हो ? क्या तुम किसी तपस्वी की पत्नी हो ; जो तुम्हें छोड़कर कहीं अन्यत्र चला गया है ? क्या तुम वेदमाता गायत्री ; लक्ष्मी या सरस्वती हो ? तुम जो भी हो ; अपना स्पष्ट परिचय प्रदान करो।
            पार्वती जी अपना परिचय देकर बोलीं -- मै शिव जी को पति रूप मे प्राप्त करना चाहती हूँ।इसीलिए यह कठोर तप कर रही हूँ।किन्तु वे अब तक नहीं प्राप्त हो सके हैं।इसलिए मै अग्नि मे प्रवेश कर जाना चाहती थी ; तभी आप आ गये। आपका सत्कार कर चुकी हूँ।अब मै अग्नि मे प्रवेश करने जा रही हूँ।इतना कहकर पार्वती जी अग्नि मे प्रविष्ट हो गयीं।परन्तु उनके तप के प्रभाव से अग्नि चन्दन की भाँति शीतल हो गयी।पार्वती जी आकाश की ओर उठने लगीं।इतने मे तपस्वी ने हँसते हुए कहा कि तुम्हारा तप मेरी समझ मे नहीं आ रहा है।यहाँ अग्नि मे तुम्हारा शरीर नहीं जला ; इससे प्रतीत होता है कि तुम्हारी तपस्या सफल हो गयी है।किन्तु अभी तक मनोरथ पूर्ण न होना तुम्हारी तपस्या की विफलता का सूचक है।अतः तुम अपना मनोरथ स्पष्ट रूप से मुझे बतलाओ।तब पार्वती के निर्देशानुसार उनकी सखी विजया ने उनके पूर्व जन्म से लेकर आज तक का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया।बाद मे पार्वती जी ने भी अपने मुखारविन्द से अपना मनोरथ अभिव्यक्त किया।
              इसे सुनकर तपस्वी बोले -- शिव जी के प्रति मेरी प्रगाढ़ आस्था है।मै उनको भलीभाँति जानता हूँ।वे अत्यन्त अमंगल वेषधारी एवं अभक्ष्यभक्षी हैं।उनका कुल-वंश आदि भी अज्ञात है।वे घर-गृहस्थी के भोगों से विरक्त एवं नंग-धड़ंग रहने वाले हैं।उनके पास भूत-प्रेत आदि का समूह एकत्रित रहता है।उनकी शारीरिक संरचना भी अच्छी नहीं है।उन्हें पहले दक्ष जी ने त्यागा बाद मे सती जी ने भी त्याग दिया था।तुम स्त्रीरत्न होते हुए भी ऐसे विचित्र पति की अभिलाषा क्यों करती हो ? तुम अत्यन्त रूपवती होकर एक कुरूप व्यक्ति को अपना पति बनाना चाहती हो।यह तुम्हारी घोर अज्ञानता का परिचय है।तुम्हें सुख देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है।अतः तुम्हें उनके साथ अपना मन नहीं जोड़ना चाहिए।
            उस तपस्वी की बातों को सुनकर पार्वती जी बहुत कुपित हुईं।उन्होंने डाँटते हुए कहा कि तुम शिव जी के विषय मे कुछ नहीं जानते हो।उनके विषय मे मुझे पर्याप्त ज्ञान है।वे कभी-कभी अपनी लीलाशक्ति से प्रेरित होकर विचित्र वेष धारण कर लेते हैं ; किन्तु सत्य तो यह है कि वे साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं।उन्होंने अपनी इच्छानुसार ही शरीर धारण किया है।वे निर्गुण ब्रह्म होते हुए भी विशेष कारणवश सगुण हो गये हैं।वे समस्त विद्याओं के एकमात्र आधार ; ज्ञान के सागर ; सबके आदि कारण ; सर्वोपास्य ; अक्षय शक्तिप्रदाता एवं मृत्युञ्जय हैं।उन्हीं की कृपा से सभी देवगण देवत्व को प्राप्त हुए हैं।वे सर्वेश्वर ; कल्याणस्वरूप एवं अवढर दानी हैं।ऋद्धि-सिद्धि आदि सदैव उनकी सेवा करती हैं।फिर उन्हें किस वस्तु का अभाव होगा।
            इस प्रकार पर्याप्त देर तक पार्वती जी भगवान शिव जी के माहात्म्य का वर्णन करती रहीं।तपस्वी जी चुपचाप सुनते रहे।पार्वती जी का क्रोध बढ़ता जा रहा था।उन्होंने अपनी सखी से कहा कि यह ब्राह्मण होने के कारण वध्य तो नहीं है ; किन्तु त्याज्य अवश्य है।अतः हम लोग किसी दूसरे वन मे चली चलें ; जहाँ ऐसे शिव-निन्दक का मुख न देखना पड़े।ऐसा कहकर पार्वती जी ने जैसे ही पैर उठाया ; वैसे ही भगवान शिव जी अपने साक्षात् स्वरूप मे प्रकट हो गये।उन्होंने पार्वती का हाथ पकड़कर कहा -- प्रिये ! मुझे छोड़कर कहाँ जाओगी ? अब मै तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा।मै प्रसन्न हूँ।तुम अभीप्सित वर माँगो।अभी तक मै तुम्हारी परीक्षा ले रहा था।तुम उसमे सफल हो चुकी हो।तुम मेरी पत्नी हो और मै तुम्हारा पति हूँ।मै शीघ्र ही तुम्हें अपने साथ कैलास पर ले चलूँगा।इसे सुनकर पार्वती जी ने कहा कि यह सत्य है कि मै आपकी पत्नी हूँ और आप मेरे पति हैं।फिर भी आप मेरे पिता जी से मेरा हाथ माँगिये क्योंकि यही इस लोक की रीति है।शिव जी ने उनकी बात मान ली।बाद मे वे अन्तर्धान हो गये और पार्वती जी अपने घर चली गयीं।

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