पार्वती जी भगवान शिव जी को वर रूप मे प्राप्त करने के लिए कठोर तप मे संलग्न थीं।उनकी तपस्या का स्तर निरन्तर उच्चात्युच्च शिखर की ओर अग्रसर था।उसे देखकर शिव जी भी आश्चर्यचकित हो गये।उन्होने पार्वती की भक्ति की दृढ़ता की परीक्षा लेने का मन बनाया।इसके लिए उन्होंने सप्तर्षियों को बुलाया और पार्वती की परीक्षा लेने की आज्ञा दी।सप्तर्षिगण शिव जी को प्रणाम कर पार्वती जी के आश्रम की ओर चल पड़े।
सातों ऋषि जब गौरी-शिखर नामक पर्वत पर पहुँचे तब उन्होंने देखा कि माता पार्वती जी तपस्या की मूर्तिमती द्वितीय सिद्धि के समान विराजमान थीं।वे अनुपम तेज से अत्यधिक प्रकाशमान थीं।सप्तर्षियों ने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया और पूछा कि तुम किसलिए तप कर रही हो ? इसके द्वारा किस देवता और किस फल को प्राप्त करना चाहती हो ? इसे सुनकर माता जी बोलीं -- यद्यपि मुझे कहने मे तो संकोच हो रहा है फिर भी कहती हूँ।ऋषियो ! मै नारद जी के उपदेशानुसार भगवान शिव जी को पति रूप मे प्राप्त करने के लिए यह कठोर तप कर रही हूँ।मेरा मन रूपी पक्षी पंख रहित होते हुए भी आकाश मे उड़ान भर रहा है।किन्तु मुझे विश्वास है कि मेरे स्वामी करुणानिधान भगवान शिव जी मेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण करेंगे।
पार्वती के दृढ़ निश्चय को सुनकर सप्तर्षि हँसने लगे।परन्तु उनका सम्मान करते हुए छलयुक्त मिथ्या वचन मे बोले -- देवि ! देवर्षि नारद जी व्यर्थ ही अपने आपको ज्ञानी पण्डित मानते हैं। आप उन्हें यथार्थतः जानती नहीं हैं।वे अत्यन्त क्रूर एवं छलिया हैं।उन्होंने जिनको-जिनको उपदेश दिया है ; वे सभी विनाश की ओर ही अग्रसर हुए हैं।तुम भी उनके भुलावे मे आकर दुष्कर तपस्या की भँवर मे फँस गयी हो।तुम जिन्हें वर रूप मे प्राप्त करना चाहती हो वे रुद्र जी नितान्त उदासीन ; निर्विकार ; कामारि ; निर्लज्ज एवं अमंगल वेषधारी हैं।उनके पास तो घर-द्वार भी नहीं है।उनके कुल-परिवार का भी पता नहीं है।अतः ऐसे वर को प्राप्त कर तुम कौन सा सुख पाओगी ? वे तो वही रुद्र हैं ; जिन्होंने निर्दोष सती का परित्याग कर दिया था।इसलिए हमारी बात मानो और रुद्र से विवाह करने का विचार त्यागकर भगवान विष्णु जी से विवाह कर लो।वे आपके लिए हर प्रकार से उपयुक्त वर हैं।
सप्तर्षियों की बातें सुनकर माता जी हँसती हुई बोलीं -- आप अपनी समझ से उचित ही कह रहे हैं ; किन्तु मेरी प्रतिज्ञा अटल है।नारद जी मेरे लिए गुरु सदृश हैं और गुरुजनों का वचन सदैव सत्य होता है।इसलिए मै उनके उपदेशानुसार ही तप करूँगी।जहाँ तक शिव जी की बात है ; वे तो साक्षात् ब्रह्म हैं।इसीलिए वे निर्विकार हैं।वे केवल भक्तों के लिए ही साकार रूप धारण करते हैं।मै उन्हें यथार्थ रूप से जानती हूँ।यदि वे मुझे पत्नी रूप मे स्वीकार नहीं करेंगे तो मै आजीवन कुमारी ही रहूँगी।किसी अन्य से विवाह करने का प्रश्न ही नहीं है।सूर्य चाहे पूर्व से पश्चिम दिशा मे उदय होने लगे ; अग्नि अपनी दाहकता का परित्याग कर शीतलता ग्रहण कर ले ; मेरु पर्वत अपनी अटलता त्याग दे अथवा कमल चाहे पर्वत-शिलाओं पर खिलने लगे ; फिर भी मै अपनी प्रतिज्ञा से विचलित नहीं हो सकती हूँ।इतना कहने के बाद पार्वती जी चुप हो गयीं।
इस प्रकार पार्वती जी के दृढ़ निश्चय एवं अटल शिव-भक्ति को देखकर सप्तर्षि भी उनकी जय जयकार करने लगे।वे मातेश्वरी को शुभाशीष प्रदान कर शिव जी की ओर चल पड़े।शिव जी के पास पहुँच कर उन्हें प्रणाम किया और सम्पूर्ण वृत्तान्त से अवगत कराया।इस वृत्तान्त को सुनकर शिव जी बहुत प्रसन्न हुए।बाद मे सप्तर्षियों को विदाकर स्वयं तपस्या मे संलग्न हो गये।
Wednesday, 8 June 2016
पार्वती की परीक्षा -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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