Saturday, 25 June 2016

पञ्चाक्षरीविद्या या पञ्चाक्षरमन्त्र -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            शिव जी के विभिन्न मन्त्रों मे पञ्चाक्षरीविद्या अथवा पञ्चाक्षरमन्त्र अर्थात् " नमः शिवाय " या षडक्षर रूप मे " ऊँ नमः शिवाय " का विशेष महत्त्व है।इस मन्त्र का उपदेश स्वयं शिव जी ने माता पार्वती जी को दिया था।इस मन्त्र का महत्त्व इतना अधिक है कि उसका वर्णन सौ करोड़ वर्षों मे भी किया जाना संभव नहीं है।प्रलयकाल मे जब समस्त चराचर जगत् ; देव ; असुर ; नाग ; राक्षस आदि नष्ट हो जाते हैं ; देवी पार्वती सहित सभी पदार्थ प्रकृति मे लीन होकर प्रलय को प्राप्त हो जाते हैं।उस समय एकमात्र शिव ही रह जाते हैं।दूसरा कोई भी नहीं रहता है।उस समय सभी वेद और शास्त्र उसी पञ्चाक्षरमन्त्र मे स्थित रहते हैं।वे सभी भगवान शिव की शक्ति से अनुपालित रहते हैं।इसलिए उनका विनाश नही होता है।
            उस समय शिव जी अकेले होते हुए भी प्रकृति और आत्मा के भेद से दो रूपों मे विद्यमान रहते हैं।वे ही ब्रह्मा और विष्णु के रूप मे प्रकट होते हैं।फिर स्वयं शिव ही अपने पाँच मुखों से पाँच अक्षरों का उच्चारण करते हैं।उन्हीं पञ्चाक्षरों के प्रयोग से ब्रह्मा जी सिद्धि प्राप्त करके अपने पुत्रों को भी उसी का उपदेश देते हैं।बाद मे ब्रह्मा के पुत्रों ने इसी महामन्त्र के द्वारा शिव जी की आराधना की और नानाविध सिद्धियाँ प्राप्त कीं।
           यह पञ्चाक्षर मन्त्र अल्पाक्षर होते हुए भी महान अर्थों वाला ; वेदों के सारस्वरूप ; मुक्तिप्रद ; आज्ञासिद्ध ; असन्दिग्ध ; सुनिश्चित अर्थों वाला ; गम्भीर एवं परमेश्वर स्वरूप है।यह सुख पूर्वक उच्चारण करने योग्य ; सम्पूर्ण प्रयोजनो को सिद्ध करने वाला ; सभी विद्याओं के बीजस्वरूप ; आद्यमन्त्र ; परम सुन्दर एवं अति सूक्ष्म है।यह वट वृक्ष के बीज की भाँति वेदस्वरूप ; तीनों गुणों से परे ; सर्वज्ञ ; सर्वसमर्थ एवं सब कुछ करने वाला है।
           इस महामन्त्र मे " ऊँ " एकाक्षरी मन्त्र है।इसमे सर्वव्यापी शिव का सदैव निवास रहता है।पाँच अक्षर रूपी शरीर वाले शिव स्वभाव से ही सूक्ष्म षडक्षर मन्त्र ( ऊँ नमः शिवाय ) मे वाच्य-वाचक भाव से विराजमान रहते हैं।भगवान शिव जी इस मन्त्र के वाच्य हैं और यह मन्त्र उनका वाचक है।वेद अथवा शिवागम मे षडक्षर मन्त्र स्थित है किन्तु लोक मे पञ्चाक्षर मन्त्र की प्रमुखता मानी गयी है।जिस व्यक्ति के हृदय मे परमेश्वर स्वरूप यह महामन्त्र विराजमान है ; उसे अन्य मन्त्रों अथवा विस्तृत शास्त्रों की आवश्यकता ही नहीं है।जो व्यक्ति इसका ज्ञान प्राप्त करके यथोचित रीति से इसका जप करता है ; वह सब कुछ अनुष्ठित कर लेता है।उसे अन्य किसी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं रहती है।एकमात्र यह मन्त्र ही शिवज्ञान ; परमपद एवं ब्रह्मविद्या है।अतः समस्त आस्तिक जनों को इसका जप अवश्य करना चाहिए।
           प्रणव सहित इस मन्त्र का स्वरूप " ऊँ नमः शिवाय " होता है।यह भगवान शिव का हृदय है।यह गूढ़ातिगूढ़ एवं सर्वोत्तम भोगज्ञान है।इस मन्त्र के ऋषि ; छन्द ; देवता आदि इस प्रकार हैं ---
         " ऊँ नमः शिवाय " रूपी इस मन्त्र के ऋषि वामदेव ; छन्द पंक्ति ; देवता शिव ; बीज नकार और शक्ति पार्वती जी हैं।
            अ उ म शिव जी के प्रणव मे स्थित हैं और उ म अ पार्वती जी के प्रणव मे हैं।यह तीन मात्राओं वाला है।इसका स्वर उदात्त ; ऋषि ब्रह्मा ; शरीर श्वेत ; छन्द गायत्री और अधिदेवता परमात्मा हैं।
" न " का वर्ण पीत ; स्थान पूर्वमुख ; अधिदेवता इन्द्र ; छन्द गायत्री और ऋषि गौतम हैं।
" म " का वर्ण कृष्ण ; स्थान दक्षिण मुख ; अधिदेवता रुद्र ; छन्द अनुष्टुप् और ऋषि अत्रि हैं।
" शि " का वर्ण धूम्र ; स्थान पश्चिम मुख ; अधिदेवता विष्णु ; छन्द त्रिष्टुप् और ऋषि विश्वामित्र हैं।
" वा " का वर्ण हेम ; स्थान उत्तर मुख ; अधिदेवता ब्रह्मा ; छन्द बृहती और ऋषि अंगिरा हैं।
" य " का वर्ण लाल ; स्थान ऊर्ध्व मुख ; अधिदेवता स्कन्द ; छन्द विराट और ऋषि भरद्वाज हैं।
             इस प्रकार गुरु से प्राप्त इस महामन्त्र को विधिवत् समझकर न्यास आदि विधियों का पालन करते हुए नित्य जप करना चाहिए।इसका पुरश्चरण भी किया जा सकता है।जो व्यक्ति बिना भोजन किये एक हजार आठ मन्त्र नित्य जपता है वह परम गति को प्राप्त कर लेता है।इसका बीस लाख जप करने से पुरश्चरण होता है।इससे सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं।

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