एक बार प्रजापति दक्ष ने कनखल नामक तीर्थस्थल मे एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया।उसमे उन्होंने ब्रह्मा ; विष्णु सहित समस्त देवताओं एवं ऋषियों-मुनियों को आमंत्रित किया।किन्तु अपनी पुत्री सती एवं दामाद शिव जी को आमंत्रित नहीं किया।इसलिए शिव एवं सती को इस यज्ञ के विषय मे जानकारी नहीं थी।
संयोगवश सती जी अपनी सखियों के साथ गन्धमादन पर्वत पर क्रीडा कर रही थीं।उसी समय रोहिणी सहित चन्द्रमा कहीं जाते हुए दिखाई पड़े।सती जी ने अपनी सखी से कहा कि तुम शीघ्र जाकर पता लगाओ कि चन्द्रदेव कहाँ जा रहे हैं।विजया ने पता लगाकर बताया कि ये प्रजापति दक्ष के यज्ञ मे सम्मिलित होने जा रहे हैं।अतः अपने पिता द्वारा यज्ञ किये जाने की सूचना पाकर उन्हें अतीव प्रसन्नता हुई।वे तत्काल शिव जी के पास चल पड़ीं।
सती जी ने शिव जी से निवेदन किया कि मेरे पिता जी एक विशाल यज्ञ कर रहे हैं।अतः आप भी मेरे साथ उस यज्ञ मे सम्मिलित होने के लिए चलें।शिव जी ने समझाया कि तुम्हारे पिता जी मुझसे विशेष द्रोह रखते हैं।उन्होंने हम दोनो को आमंत्रित भी नहीं किया है।इसलिए उस यज्ञ मे हमारा तुम्हारा चलना उचित नहीं है।परन्तु भवितव्यतावश सती जी हठ कर बैठीं।वे बार-बार चलने की प्रार्थना करने लगीं।शिव जी ने समझाया कि अनाहूत कहीं भी नहीं जाना चाहिए।किन्तु सती जी नहीं मानीं।अन्त मे उनके स्नेहवश उन्हें प्रमथगणों के साथ जाने का आदेश दे दिया।स्वयं नहीं गये।
सती जी नन्दी पर सवार होकर प्रमथगणों के साथ यज्ञशाला मे पहुँचीं।उस समय केवल उनकी माता ने ही उनका सत्कार किया।किन्तु पिता दक्ष ने उन्हें स्नेह और सम्मान नहीं दिया।यज्ञशाला मे भी ब्रह्मा ; विष्णु आदि देवताओं के लिए भाग निर्धारित थे।परन्तु शिव जी के लिए कहीं कोई भाग नहीं था।इसे देखकर सती जी को भयानक क्रोध आया।उन्होने अपने पिता जी से पूछा कि आपने इस यज्ञ मे शिव जी को आमंत्रित क्यों नहीं किया ? उनके बिना यज्ञ की सिद्धि कैसे संभव है ? आपने उनका अनादर क्यों किया है ?
सती की बातों को सुनकर प्रजापति दक्ष कुपित हो गये।उन्होंने क्रोधावेश मे कहा कि यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है।तुम जाओ या रहो।यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है।वे शिव नितान्त अमंगलरूप ; उदण्ड और दुरात्मा हैं।वे वेदों से भी बहिष्कृत हैं।इसलिए उन्हें इस यज्ञ मे नहीं बुलाया गया है।इन अपमानजनक बातों को सुनकर सती जी बहुत दुःखी हुईं।वे मन मे सोचने लगीं कि मै लौटकर शिव जी से क्या बताऊँगी।साथ ही शिव जी की निन्दा करने वाला अथवा उसे सुनने वाला व्यक्ति नरकगामी होता है।अतः इस समय मुझे अपने शरीर का त्याग कर देना ही उचित होगा।इसके बाद उन्होंने यज्ञ मे सम्मिलित होने वाले देवताओं एवं ऋषियों - मुनियों को भी बहुत धिक्कारा।इसके बाद उन्होंने भगवान शिव जी के चरणार्विन्दों का स्मरण कर योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर दिया।
इस घटना को देखकर वहाँ उपस्थित देवगण हाहाकार करते हुए दक्ष की भर्त्सना करने लगे।इधर सती के साथ आने वाले प्रमथगण भी हाहाकार करने लगे।उसी समय आकाशवाणी हुई कि हे दुराचारी दक्ष ! तूने कैसा अनर्थकारी कार्य कर डाला ? भगवान शिव तो जगत्पिता और सती जी जगन्माता हैं।तूने उनका सत्कार नहीं किया है।इसलिए तेरा और तेरे यज्ञ का विनाश अवश्यम्भावी है।इस प्रकार वह यज्ञ विनष्ट हो गया।
Wednesday, 1 June 2016
सती जी का भस्म होना -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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