Saturday, 28 May 2016

सती का मोह -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            एक बार भगवान शिव जी अपनी धर्मपत्नी सती जी के साथ भ्रमण करते हुए दण्कारण्य पहुँच गये।वहाँ उन्होंने लक्ष्मण सहित भगवान श्री राम को देखा ; जो रावण द्वारा हरण की गयी सीता के वियोग मे तड़प रहे थे।वे पेड़ ; पौधे ; पशु ; पक्षी आदि से भी सीता के विषय मे पूछ रहे थे।शिव जी ने उन्हें सादर प्रणाम किया और जय जयकार करते हुए दूसरी ओर चले गये।
            इस दृश्य को देखकर सती जी को बहुत विस्मय हुआ।उन्होंने शिव जी से कहा कि आप तो सभी देवों द्वारा सेव्य एवं आदरणीय हैं।फिर भी आपने उन दोनो राजकुमारों मे से ज्येष्ठ राजकुमार को प्रणाम किया है।मेरी दृष्टि से यह उचित नहीं है।इसे सुनकर शिव जी ने कहा कि मैने वरदान के प्रभाव से ही उन्हें प्रणाम किया है।वे दोनो भाई सर्वसम्मान्य हैं।इनके नाम राम और लक्ष्मण हैं।इनमे से श्री राम जी भगवान विष्णु के और लक्ष्मण जी श्री शेषनाग के अवतार हैं।ये लोककल्याण के लिए ही इस धरा पर अवतरित हुए हैं।
           यद्यपि शिव जी ने सती जी को विधिवत् समझाने का प्रयास किया किन्तु भवितव्यतावश उन्हें विश्वास नहीं हुआ।तब शिव जी ने कहा कि यदि तुम्हें मेरे कथन पर विश्वास नहीं है तो स्वयं ही उनकी परीक्षा ले लो।इसे सुनकर सती जी श्री राम के कुछ समीप जाकर उसी मार्ग मे सीता का रूप धारण कर बैठ गयीं।श्री राम ने उन्हें देखते ही पहचान लिया।उन्होने सती जी को प्रणाम किया और पूछा कि शिव जी कहाँ हैं ? आप यहाँ अकेली क्यों बैठी हुई हैं ? आपने अपना स्वरूप त्यागकर दूसरा स्वरूप क्यों धारण कर रखा है ?
           श्री राम के इन प्रश्नों को सुनकर सती जी बहुत आश्चर्य चकित एवं लज्जित हुईं।उन्होंने अपने वास्तविक स्वरूप मे आकर उनसे क्षमा माँगी और उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया।साथ ही कहा कि अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि आप साक्षात विष्णु के अवतार हैं।मैने आपकी प्रभुता प्रत्यक्ष देख ली है।अब मेरा संशय दूर हो गया है।इसके बाद श्री राम सीतान्वेषण मे चल दिये और सती जी शिव जी के पास चली आयीं।

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