Saturday, 28 May 2016

सती का मोह -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            एक बार भगवान शिव जी अपनी धर्मपत्नी सती जी के साथ भ्रमण करते हुए दण्कारण्य पहुँच गये।वहाँ उन्होंने लक्ष्मण सहित भगवान श्री राम को देखा ; जो रावण द्वारा हरण की गयी सीता के वियोग मे तड़प रहे थे।वे पेड़ ; पौधे ; पशु ; पक्षी आदि से भी सीता के विषय मे पूछ रहे थे।शिव जी ने उन्हें सादर प्रणाम किया और जय जयकार करते हुए दूसरी ओर चले गये।
            इस दृश्य को देखकर सती जी को बहुत विस्मय हुआ।उन्होंने शिव जी से कहा कि आप तो सभी देवों द्वारा सेव्य एवं आदरणीय हैं।फिर भी आपने उन दोनो राजकुमारों मे से ज्येष्ठ राजकुमार को प्रणाम किया है।मेरी दृष्टि से यह उचित नहीं है।इसे सुनकर शिव जी ने कहा कि मैने वरदान के प्रभाव से ही उन्हें प्रणाम किया है।वे दोनो भाई सर्वसम्मान्य हैं।इनके नाम राम और लक्ष्मण हैं।इनमे से श्री राम जी भगवान विष्णु के और लक्ष्मण जी श्री शेषनाग के अवतार हैं।ये लोककल्याण के लिए ही इस धरा पर अवतरित हुए हैं।
           यद्यपि शिव जी ने सती जी को विधिवत् समझाने का प्रयास किया किन्तु भवितव्यतावश उन्हें विश्वास नहीं हुआ।तब शिव जी ने कहा कि यदि तुम्हें मेरे कथन पर विश्वास नहीं है तो स्वयं ही उनकी परीक्षा ले लो।इसे सुनकर सती जी श्री राम के कुछ समीप जाकर उसी मार्ग मे सीता का रूप धारण कर बैठ गयीं।श्री राम ने उन्हें देखते ही पहचान लिया।उन्होने सती जी को प्रणाम किया और पूछा कि शिव जी कहाँ हैं ? आप यहाँ अकेली क्यों बैठी हुई हैं ? आपने अपना स्वरूप त्यागकर दूसरा स्वरूप क्यों धारण कर रखा है ?
           श्री राम के इन प्रश्नों को सुनकर सती जी बहुत आश्चर्य चकित एवं लज्जित हुईं।उन्होंने अपने वास्तविक स्वरूप मे आकर उनसे क्षमा माँगी और उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया।साथ ही कहा कि अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि आप साक्षात विष्णु के अवतार हैं।मैने आपकी प्रभुता प्रत्यक्ष देख ली है।अब मेरा संशय दूर हो गया है।इसके बाद श्री राम सीतान्वेषण मे चल दिये और सती जी शिव जी के पास चली आयीं।

Friday, 27 May 2016

शिव सती विवाह -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           सती जी अपने माता-पिता के घर शुक्ल पक्षीय चन्द्रकला सदृश निरन्तर बढ़ रही थीं।उनकी बाल-लीलाओं से माता-पिता बहुत प्रसन्न थे।एक दिन उनका दर्शन करने के लिए नारद सहित ब्रह्मा जी पहुँच गये।उनकी शैशव-लीलाओं को देखकर ब्रह्मा जी बहुत प्रभावित हुए।उन्होंने सती जी को भगवान शिव जी की पत्नी बनने का शुभाशीष प्रदान किया।इसे सुनकर केवल सती ही नहीं ; अपितु सम्पूर्ण परिवार बहुत प्रसन्न हुआ।
          सती जी जब युवावस्था को प्राप्त हुईं ; तब वे शिव जी को वर रूप मे प्राप्त करने के लिए तपस्या करने हेतु उद्यत हुईं।वे अपनी माता से आज्ञा लेकर शिवाराधन करने लगीं।कालान्तर मे उनकी तपस्या को देखने के ब्रह्मा ; विष्णु आदि देवगण भी गये।सबने सती जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की।उसके बाद सब लोग शिव जी की शरण मे गये और उनसे सती जी को पत्नीरूप मे स्वीकार करने का निवेदन किया।शिव जी ने कहा कि मै सदैव तपस्या मे रत रहने वाला ; विरक्त एवं योगी हूँ।इसलिए वैवाहिक बन्धन मे बँधना मेरे लिए उचित नहीं है।देवताओं ने सती के कठोर तप का वर्णन करते हुए उनसे पुनः निवेदन किया।अन्त मे शिव जी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
             इधर सती जी की तपस्या निरन्तर वृद्धिंगत हो रही थी।उन्होंने आश्विन शुक्ला आष्टमी को उपवास करके नवमी को ध्यानमग्न हो गयीं।उसी समय शिव जी ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और उनसे वर माँगने को कहा।सती जी ने अपने लिए अटल वर की याचना की।तब शिव जी ने स्वयं ही कह दिया कि तुम मेरी भार्या बन जाओ।इतना सुनते ही सती जी भावविभोर हो गयीं।इस प्रकार सती जी को मनोवाँछित वर प्रदान कर शिव जी कैलास चले गये।सती जी अपने घर आईं और एक सखी के माध्यम से सम्पूर्ण वृत्तान्त अपने माता-पिता को कहलाया।इसे सुनकर वे भी बहुत प्रसन्न हुए।
           बाद मे शिव जी की आज्ञा से ब्रह्मा जी दक्ष के पास आये और उन्हें सम्पूर्ण समाचारों से अवगत कराया।उसे सुनकर दक्ष जी बहुत प्रसन्न हुए और वर रूप मे शिव जी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।इधर शिव जी समस्त देवताओं एवं अपने गणों के साथ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी रविवार को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र मे बारात लेकर चल पड़े।प्रजापति दक्ष ने बारातियों का यथोचित सत्कार किया।उसके बाद शुभ मुहूर्त मे वैदिक विधि-विधान से शिव और सती का विवाह सम्पन्न हुआ।तदनन्तर बारात सहित वर-वधू की विदाई हुई।सभी देवगण अपने-अपने स्थान को गये।शिव और सती कैलास गये और सानन्द रहने लगे।

Thursday, 26 May 2016

सती-अवतार 2 -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            कल्पभेद से जगदम्बा सती के अवतार सम्बन्धी अनेक कथायें उपलब्ध हैं।एक कल्प मे वे प्रजापति दक्ष की पत्नी असिक्नी ( वीरिणी ) की पुत्री के रूप मे अवतरित हुई थीं।कुछ लोग शिवा या सती को प्रजापति दक्ष की ज्येष्ठा पुत्री मानते हैं।दूसरे लोग मझली पुत्री और कुछ लोग कनिष्ठा पुत्री मानते हैं।वास्तव मे कल्पभेद से ये तीनों मत सत्य हैं।इसे विवाद का विषय नहीं बनाना चाहिए।
          एक बार पत्नी सहित दक्ष ने मन ही मन जगदम्बिका शिवा का ध्यान किया।फिर भावपूर्ण वाणी से उनकी स्तुति की।इससे मातेश्वरी शिवा प्रसन्न हो गयीं।उन्होंने विचार किया कि मुझे दक्ष की पत्नी वीरिणी के गर्भ से अवतार लेना चाहिए।इस प्रकार की भावना बनाकर वे प्रजापति दक्ष के हृदय मे निवास करने लगीं।दक्ष ने शुभ मुहूर्त मे अपनी पत्नी वीरिणी मे गर्भाधान किया।अब वीरिणी के चित्त मे भी शिवा जी निवास करने लगीं।धीरे-धीरे नौ महीने का समय व्यतीत हो गया।दसवें मास मे शुभ मुहूर्त मे देवी शिवा जी अपने स्वरूप मे माता वीरिणी के समक्ष प्रकट हुईं।
            भगवती का दर्शन करते ही वीरिणी एवं दक्ष को विश्वास हो गया कि ये जगदम्बा शिवा ही हैं ; जो मेरी पुत्री के रूप मे अवतरित हुई हैं।दक्ष ने उन्हें सादर प्रणाम किया और नानाविध स्तुति आरम्भ कर दी।उसके बाद भगवती शिवा ने शिशु रूप धारण कर शैशव-लीला प्रारम्भ कर दी।चारो ओर प्रसन्नता का वातावरण छा गया।नित्य नवीन मंगलकृत्य होने लगे।उस समय उनका नाम उमा रखा गया।धीरे-धीरे वे बढ़ने लगीं।जब वे कुछ बड़ी हुईं तब शिवाराधन मे संलग्न हो गयीं।वे सदैव शिव जी का ही स्मरण करती रहती थीं।

सती -अवतार 1 -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि की रचना आरम्भ की तब उन्होंने सर्वप्रथम पञ्चतत्त्वों ; पर्वतों ; समुद्रों ; वृक्षों ; काल-विभाग आदि असंख्य पदार्थों की रचना की।इसके बाद मरीचि ; भृगु ; अंगिरा ; पुलह ; पुलस्त्य ; वसिष्ठ ; क्रतु ; अत्रि ; दक्ष ; नारद ; कर्दम ; धर्म ; देवताओं ; असुरों आदि को उत्पन्न किया।फिर ब्रह्मा जी आधे शरीर से स्त्री और आधे शरीर से पुरुष हो गये।उन दोनो के संयोग से स्वायम्भुव मनु और शतरूपा का जन्म हुआ।
          बाद मे स्वायम्भुव एवं शतरूपा का विवाह हुआ ; जिससे मैथुनी सृष्टि का आरम्भ हुआ।उनसे प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र तथा तीन पुत्रियाँ हुईं।पुत्रियों के नाम -- आकूति ; देवहूति और प्रसूति थे।इनमे से प्रसूति का विवाह प्रजापति दक्ष के साथ हुआ।इनसे चौबीस पुत्रियाँ हुईं।इन चौबीस पुत्रियों मे सती भी थीं ; जिनका विवाह शिव जी के साथ हुआ।
             सती कोई नवीन देवी नहीं थीं ; बल्कि शिव जी की अभिन्न शक्ति ही थीं।प्राचीन काल मे सर्वव्यापी भगवान शिव जी ने जिन्हें तपस्या के लिए प्रकट किया तथा रुद्रदेव ने त्रिशूल के अग्रभाग पर रखकर सदैव जिनकी रक्षा की थी ; वे ही भगवती शिवा लोकहित के लिए दक्ष के घर मे सती के रूप मे प्रकट हुई थीं।इस विषय मे एक रोचक आख्यान उपलब्ध है।
           एक बार प्रजापति दक्ष ने जगदम्बिका शिवा को पुत्री रूप मे प्राप्त करने की इच्छा से तीन सहस्र दिव्य वर्षों तक कठोर तप किया।भगवती शिवा प्रसन्न हो गयीं।उन्होंने दक्ष को प्रत्यक्ष दर्शन दिया और वर माँगने को कहा।दक्ष ने स्तुति करने के बाद निवेदन किया कि भगवान शिव जी रुद्र नाम से ब्रह्मा जी के पुत्र के रूप मे अवतरित हो चुके हैं।अतः आप भी मेरी पुत्री के रूप मे अवतरित होने की कृपा करें ; जिससे आप रुद्र जी की पत्नी बन सकें।जगदम्बा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।कालान्तर मे वही जगदम्बा शिवा ही सती के रूप मे अवतरित हुईं।

Wednesday, 25 May 2016

शिव एवं शक्ति का प्राकट्य -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            सृष्टि-संरचना के पूर्व समस्त चराचर जगत् नष्ट हो गया था।सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार व्याप्त था।सूर्य और चन्द्रमा भी नहीं थे।जल ; वायु ; पृथ्वी और अग्नि की भी सत्ता नहीं थी।एकमात्र आकाश ही शेष था।किसी प्रकार के तेज ; शब्द ; स्पर्श ; गन्ध ; रूप आदि की अभिव्यक्ति नहीं होती थी।उस समय एकमात्र " सत् " ही शेष था।
            इस सत् को योगीजन अपने हृदयाकाश के अन्दर निरन्तर देखते रहते हैं।वह सत्तत्त्व मन और वाणी का विषय नहीं है क्योंकि वह नाम ; रूप ; रंग ; आकार आदि से सर्वथा शून्य है।वह सत्य ; ज्ञानस्वरूप ; अनन्त ; परमानन्दमय ; परमज्योतिःस्वरूप ; अप्रमेय ; आधार-रहित ; निर्विकार ; निराकार ; निर्गुण ; योगिगम्य ; सर्वव्यापी ; निर्विकल्प ; मायाशून्य ; अद्वितीय ; अनादि ; अनन्त तथा चिन्मय है।
           कालान्तर मे उस एकमात्र सत् या परमब्रह्म ने द्वितीय की इच्छा प्रकट की।उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ।तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से मूर्तिरूप धारण किया।वह सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न ; सर्वज्ञानमय ; शुभस्वरूप ; सर्वव्यापी ; सर्वस्वरूप ; सर्वदर्शी ; सर्ववन्द्य ; सर्वाद्य एवं सर्वप्रद था।इसके बाद वह अद्वितीय ब्रह्म अन्तर्हित हो गया।जो मूर्ति रहित परम ब्रह्म है ; उसी की मूर्ति या साकार स्वरूप को भगवान सदाशिव कहा जाता है।वे ही ईश्वर हैं।उन्हें ही परमपुरुष ; ईश्वर ; शिव ; शम्भु ; महेश्वर आदि कहा जाता है।
            उन शिव जी के मस्तक पर आकाश गंगा और भालप्रदेश मे बाल-चन्द्रमा सुशोभित हैं।उनके पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुख मे तीन-तीन नेत्र विराजमान हैं।वे सदैव प्रसन्नचित्त रहने वाले हैं।वे दश भुजाओं वाले एवं त्रिशूलधारी हैं।उनका शरीर कर्पूर सदृश श्वेत वर्ण का है।उनके समस्त अंगों मे सुन्दर भस्म सुशोभित रहती है।उन्होंने अपने आवास के लिए जिस शिवलोक नामक उत्तम क्षेत्र का निर्माण किया ; उसे ही काशी कहते हैं।
            इसके बाद उन सदाशिव ने अपने विग्रह से स्वयं ही एक स्वरूपभूता शक्ति की सृष्टि की ; जिसे अम्बिका कहा जाता है।उन्हीं को प्रकृति ; सर्वेश्वरी ; त्रिदेवजननी ; नित्या और मूलकारण भी कहा जाता है।वे अष्टभुजी ; शुभलक्षणा ; अनुपम कान्तियुक्ता ; सर्वाभरण-भूषिता ; शस्त्रास्त्र-धारिणी ; कमलनयनी ; अचिन्त्य तेजसम्पन्ना ; सर्वयोनि और उद्यमशीला हैं।एकाकिनी होने पर भी वे अपनी माया से अनेक हो जाती हैं।कालान्तर मे इन्हीं शिव-शक्ति की इच्छानुसार ही विष्णु ; ब्रह्मा आदि देवों की उत्पत्ति और बाद मे सृष्टि की संरचना हुई थी।
           

Tuesday, 24 May 2016

अर्धनारीश्वर अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           सृष्टि के आरम्भ मे ब्रह्मा जी सृष्टि-संरचना हेतु बहुत प्रयत्नशील थे।उन्होंने अनेक मानस पुत्रों का सृजन किया।इसी क्रम मे सनक ; सनन्दन ; सनातन और सनत्कुमार को उत्पन्न किया।ये चारो महान वैरागी एवं उत्तम व्रतधारी थे।ब्रह्मा जी ने उनसे प्रजावृद्धि मे सक्रिय भाग लेने को कहा।परन्तु उन्होंने उक्त कार्य मे सम्मिलित होना अस्वीकार कर दिया।इस पर ब्रह्मा जी बहुत क्रुद्ध हुए परन्तु वे कर ही क्या सकते थे।
            ब्रह्मा जी को कोई उपाय नहीं सूझ रहा था।तब उन्होंने श्री विष्णु का स्मरण किया।विष्णु जी ने उन्हें शिव जी की आराधना करने का निर्देश दिया।ब्रह्मा जी शिवाराधना मे संलग्न हो गये।उन्होंने शिव जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया।शिव जी स्वभाव से ही परम दयालु एवं आशुतोष हैं।वे ब्रह्मा जी के तप से प्रसन्न होकर अर्धनारीश्वर स्वरूप मे प्रकट हो गये।उनका आधा शरीर पुरुष का और आधा शरीर स्त्री का था।स्त्री-शरीर शक्तिरूप मे और पुरुष-शरीर शिवरूप मे था।उनका दर्शन पाकर ब्रह्मा जी अत्यन्त प्रसन्न हुए।उन्होंने अर्धनारीश्वर भगवान की विधिवत् स्तुति की।
            ब्रह्मा जी की स्तुति से प्रभुवर प्रसन्न हो गये।उन्होंने अपने वामभाग से अपनी परमाशक्ति को प्रकट कर दिया।ब्रह्मा जी ने परमाशक्ति से निवेदन किया कि मैने अनेक मानस-पुत्रों को उत्पन्न किया किन्तु प्रजावृद्धि नहीं हुई।प्रजावृद्धि का सरल उपाय मैथुनी-सृष्टि है।परन्तु मै नारी की सृष्टि करने मे सक्षम नहीं हूँ।आप ही इस सृष्टि की प्रथम नारी हैं।अब आप मेरे मानसपुत्र दक्ष के यहाँ अवतरित होकर सृष्टि-संरचना मे सहयोग दें।तभी मेरा कार्य पूर्ण हो सकेगा।
           उन परमाशक्ति ने अपनी भौंहों के बीच से एक देवी को प्रकट किया।वही देवी दक्षपुत्री सती के रूप मे अवतरित हुईं।बाद मे वे शिव जी की धर्मपत्नी बनीं।इस प्रकार सृष्टि-रचना के लिए ही भगवान शिव जी का अर्धनारीश्वर स्वरूप प्रकट हुआ था।जब सती रूपी नारी का अवतरण हो गया तब ब्रह्मा जी नारी-सृष्टि के लिए अर्ह हो गये।उन्होंने अपने शरीर से मनु और शतरूपा को उत्पन्न किया।बाद मे इन्हीं दोनो से सम्पूर्ण सृष्टि की रचना आरम्भ हुई।

यक्षावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            समुद्र-मन्थन से प्रकट होने वाले अमृत का पान करने के पश्चात देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त कर ली।इस विजय के कारण उन्हें भयानक अहंकार हो गया।वे इस प्रकार उन्मत्त हुए कि सर्वेश्वर शिव जी की आराधना करना भी भूल गये।यह बात शिव जी को अच्छी नहीं लगी ; क्योंकि यह अहंकार ही उनके भक्त देवताओं के पतन का कारण बन सकता है।अतः उन्होंने देवताओं के इस अहंकार को नष्ट करने के लिए एक विचित्र सी लीला रच दी।
            शिव जी यक्ष का रूप धारण कर देवताओं के सन्निकट पहुँचे।उन्होने देवताओं के एकत्रित होने का कारण पूछा।इसके उत्तर मे सभी देवगण आत्म प्रशंसा मे जुट गये।सभी लोग समुद्र-मन्थन एवं देवासुर संग्राम के सन्दर्भ मे अपने-अपने बल-पौरुष का बखान करने लगे।उन्होंने इतना तक कह डाला कि इस युद्ध मे मिलने वाली विजय हमारे बल-पौरुष का ही परिणाम थी।उसमे किसी अन्य देवता का योगदान नहीं था।वे इतना भी भूल गये कि समुद्र-मन्थन से निकलने वाले महाविष को शिव जी यदि न ग्रहण करते तो सम्पूर्ण सृष्टि के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग गया होता।
            इस पर यक्षरूपी शिव जी ने समझाया कि आप लोग व्यर्थ का गर्व न करें।इसमे उन महेश्वर शिव जी का विशेष योगदान रहा है।यदि आप लोग इतने महा बलशाली हैं तो मेरे द्वारा दिये गये इस तृण को तोड़ दें तो मै भी मान लूँ।उस तृण को पहले देवताओं ने अकेले अकेले तोड़ने का प्रयास किया परन्तु जब न टूट सका तब सभी इकट्ठा होकर तोड़ने लगे।फिर भी उनका प्रयास व्यर्थ गया।वह तृण टूट नहीं सका।
           उसी समय आकाशवाणी हुई कि भगवान शिव ही परम शक्तिमान एवं ईश्वरों के भी ईश्वर हैं।उन्हीं के बल से आप लोग बलवान बने हैं।इसलिए सभी लोग अपने समक्ष प्रस्तुत उन्हीं सर्वेश्वर की शरण ग्रहण करें।इसे सुनकर देवगण बहुत लज्जित हुए और शिव जी की स्तुति करने लगे।उनकी भावपूर्ण स्तुति सुनकर शिव जी अपने वास्तविक स्वरूप मे प्रकट हो गये।इस प्रकार उनका दर्शन करके देवगण धन्य हो गये।

Monday, 23 May 2016

किरातावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          सुयोधन ने जब पाण्डवों को जूए मे पराजित कर दिया तब वे द्रौपदी सहित द्वैतवन मे रहने लगे।वहाँ श्रीकृष्ण एवं व्यास जी ने उन्हें शिव जी की आराधना करने का निर्देश दिया।अतः अर्जुन इन्द्रकील पर्वत पर जाह्नवी के तट पर पार्थिव शिवलिंग बनाकर उनकी उपासना करने लगे।इससे अर्जुन के शिरोभाग से तेज की ज्वाला निकलने लगी।उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवराज इन्द्र ने पहले उनकी परीक्षा ली उसके बाद उन्हें शिव-मन्त्र बतलाकर उसी का जप करने की आज्ञा दी।
             अर्जुन शिवोपासना मे पूर्णतः तल्लीन हो गये।वे एक पैर पर खड़े होकर शिव जी के पञ्चाक्षर मन्त्र का जप करते हुए घोर तप करने लगे।उसी समय दुर्योधन द्वारा भेजा गया मूक नामक दैत्य शूकर का रूप धारण कर अर्जुन का अनिष्ट करने आ गया।इधर अर्जुन भी आत्मरक्षा हेतु धनुष-बाण लेकर खड़े हो गये।इसी समय शिव जी अर्जुन की रक्षा करने ; उनकी भक्ति की परीक्षा लेने तथा मूक का वध करने के लिए किरात ( भील ) के रूप मे प्रकट हो गये।अर्जुन और शिव जी दोनो ने शूकर पर एक साथ प्रहार किया ; जिससे उसकी मृत्यु हो गयी।
             उसके शिव जी ने अपने बाण को वापस लाने के लिए एक अनुचर को भेजा।इधर अर्जुन भी अपना बाण लेने आ गये।शिव जी की लीला के कारण वहाँ केवल अर्जुन का ही बाण था।दोनो लोग उसे ही अपना बाण कहने लगे।इस विषय पर दोनो मे विवाद छिड़ गया।इसे सुनकर किरात वेशधारी शिव जी अपनी सेना सहित अर्जुन के समक्ष आ गये।दोनो मे भयानक युद्ध आरम्भ हो गया।अर्जुन ने किरात के दोनो पैर पकड़ कर घुमाना आरम्भ कर दिया।इस प्रकार अर्जुन के पराक्रम एवं भक्ति को देखकर शिव जी प्रसन्न हो गये।वे तत्काल अपने वास्तविक स्वरूप मे प्रकट हो गये।शिव जी को देखकर अर्जुन बहुत लज्जित हुए और उनसे क्षमा-याचना करने लगे।
           भक्तवत्सल शिव जी ने प्रसन्न होकर अर्जुन से वर माँगने को कहा।अर्जुन ने निवेदन किया कि आप तो अन्तर्यामी हैं।अतः स्वेच्छापूर्वक कृपा करें।शिव जी ने अर्जुन के मनोभाव के अनुरूप उन्हें पाशुपत नामक अमोघ अस्त्र प्रदान किया।फिर उनके शिर पर अपना वरद हस्त रख दिया।अर्जुन ने उनकी विधिवत स्तुति की।इसके बाद शिव जी अन्तर्धान हो गये।अर्जुन भी अपने भाइयों के पास लौट आये और सानन्द रहने लगे।इस प्रकार शिव जी का किरात अवतार हुआ था।

Sunday, 22 May 2016

सुरेश्वरावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           महर्षि उपमन्यु जी व्याघ्रपाद मुनि के पुत्र थे।वे बचपन मे अपनी माता के साथ ननिहाल मे रहते थे।उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी।एक दिन उन्हें पीने के लिए बहुत कम दूध मिला।वे अपनी माता से और अधिक दूध माँगने लगे।माता ने कुछ बीजों को पीस कर घोल बनाया और उन्हें पीने को दिया।उपमन्यु जान गये कि यह दूध नहीं है।वे पुनः रोने लगे।इससे माता को घोर कष्ट हुआ।उन्होंने समझाया कि शिव जी की कृपा के बिना किसी को भी दूध नहीं मिलता है।अतः उन्हीं से दूध की याचना करो।
             इस प्रकार माता की बात सुनकर उपमन्यु ने शिव जी की आराधना करने का निर्णय लिया।वे हिमालय पर्वत पर केवल वायु पीकर कठोर तप मे संलग्न हो गये।वे प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंग बनाकर उनका पूजन एवं पञ्चाक्षर मंत्र " ऊँ नमः शिवाय " का जप करने लगे।उनकी तपस्या से सम्पूर्ण त्रिभुवन संतप्त हो उठा।तब देवताओं के अनुरोध पर शिव जी उनकी परीक्षा लेने के लिए चल पड़े।उस समय शिव जी ने सुरेश्वर इन्द्र का ; पार्वती जी ने इन्द्राणी का ; नन्दीश्वर ने ऐरावत का और अन्य गणों ने सम्पूर्ण देवताओं का रूप धारण किया।
            वे सभी उपमन्यु के पास गये।सुरेश्वर रूपधारी शिव ने उपमन्यु से वर माँगने को कहा।उपमन्यु ने शिवभक्ति माँगी।इसके बाद सुरेश्वर ने शिव जी की निन्दा करनी आरम्भ कर दी।इस पर उपमन्यु ने क्रुद्ध होकर सुरेश्वर पर अघोरास्त्र चला दिया।उसे नन्दी ने रोक लिया।इसके बाद अपने को जलाने के लिए जब अग्नि की धारणा की तब उसे शिव जी ने शान्त कर दिया।उनकी अनन्य भक्ति को देखकर शिव जी प्रसन्न हो गये।बाद मे सभी लोग अपने-अपने रूप मे प्रकट हो गये।
           शिव जी ने उन्हें अपना पुत्र मानकर सनातन कुमारत्व प्रदान किया।उसके बाद उन्हें असंख्य वरदान प्रदान कर अपना परम पद भी अर्पित कर दिया।साथ ही उनके आश्रम पर नित्य निवास करने का वचन भी दिया।माता पार्वती ने उन्हें पुत्र कह कर अक्षय कुमार पद प्रदान किया।इस प्रकार उत्तमोत्तम वर प्राप्त कर उपमन्यु अपने घर चले आये और शिव जी की कृपा से अत्यन्त सुखी तथा पूज्य बन गये।

Saturday, 21 May 2016

भिक्षुवर्यावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           विदर्भ देश मे सत्यरथ नामक एक शिवभक्त राजा राज्य करते थे।एक बार शाल्व देश के राजाओं ने उनकी राजधानी पर आक्रमण कर दिया।दोनो पक्षों मे भयानक युद्ध हुआ।अन्त मे राजा सत्यरथ वीरगति को प्राप्त हुए।उनकी महारानी किसी प्रकार बचकर बाहर निकल गयीं।वे उस समय गर्भवती थीं।अतः वे भगवान शिव जी के चरणार्विन्दों का स्मरण करती हुई एक सरोवर के तट पर स्थित वृक्ष की छाया मे बैठ गयीं।वहीं उन्होंने एक दिव्य बालक को जन्म दिया।
              थोड़ी देर बाद रानी को प्यास लग गयी।वे पानी पीने के लिए सरोवर मे गयीं ; तभी एक ग्राह ने उन्हें निगल लिया।इधर मातृ-पितृ विहीन शिशु करुण क्रन्दन करने लगा।इसी समय शिव जी आ गये और उसकी सुरक्षा करने लगे।उसी समय एक विधवा ब्राह्मणी अपने एक वर्षीय बालक को गोद मे लिए हुए आ गयी।उसने करुण क्रन्दन करते हुए नवजात शिशु को देखा तो उसके हृदय मे मातृत्व भाव जग उठा।वह उसका पालन-पोषण करने के लिए लालायित हो गयी।तभी शिव जी सन्यासी भिक्षु के रूप मे आ गये।उन्होंने ब्राह्मणी को उस बच्चे का परिचय दिया।साथ ही उसे अपने स्वरूप का दर्शन भी दिया।
            ब्राह्मणी उस बच्चे को लेकर अपने घर " एकचक्रा " ग्राम मे चली गयी।उसने अपने पुत्र के साथ उस राजकुमार बालक का पालन-पोषण किया।माता की प्रेरणा से दोनो बच्चे भी शिवाराधन मे लगे रहते थे।एक दिन दोनो बालक वन मे भ्रमण करने गये।वहाँ उस राजकुमार बालक का विवाह एक गन्धर्व कन्या के साथ हो गया।बाद मे वह धर्मगुप्त नाम से विदर्भ देश का शासक बना।उसकी माता भी राजमाता पद पर प्रतिष्ठित हुई।उसने चिरकाल तक राजोचित सुख का भोग कर अन्त मे शिवलोक को प्राप्त किया।