Saturday, 14 May 2016

श्री नागेश्वर -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

           द्वादश ज्योतिर्लिंगों के क्रम मे श्री नागेश्वर जी की गणना दशम स्थान पर की जाती है।ये गुजरात प्रान्त मे द्वारका पुरी से लगभग 25 किमी की दूरी पर प्रतिष्ठित हैं।यह स्थान गोमती-द्वारका से वेट-द्वारका जाते समय पूर्वोत्तर दिशा मे थोड़ी दूर पर पड़ता है।इनके प्रादुर्भाव की कथा बहुत मनोरम है।
           प्राचीन काल मे दारुका नामक एक राक्षसी थी।वह पार्वती जी के वरदान से बहुत बलवती हो गयी और अपने पति दारुक के साथ मिलकर सत्पुरुषों का संहार करने लगी।पीड़ित जनों ने महर्षि और्व से अपनी व्यथा सुनायी।महर्षि ने उन राक्षसों को शाप दे दिया कि वे पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा या यज्ञ-विध्वंश करेंगे तो वे अपने प्राणों से हाथ धो बैठेंगे।इस भय से वे समुद्र मे निवास करने लगे।
           एक बार अनेक लोग नौका से यात्रा कर रहे थे।तभी उन राक्षसों ने सबको पकड़ कर कारागार मे डाल दिया।उन यात्रियों मे सुप्रिय नामक एक शिवभक्त वैश्य भी था।वह नित्य अपने मित्रों के साथ " ऊँ नमः शिवाय " का जप और शिव जी का ध्यान करता था।यह सूचना जब दारुक को मिली तब वह बहुत क्रुद्ध हुआ।वह सुप्रिय को मारने के लिए दौड़ा।सुप्रिय भगवान शिव जी की प्रार्थना करने लगा।अतः शिव जी अपने भक्त की रक्षा करने के लिए सर्परूप मे एक विवर से निकल पड़े।उनके साथ एक मन्दिर भी प्रकट हुआ ; जिसमे एक ज्योतिर्लिंग प्रकाशित हो रहा था।शिव जी ने तत्काल सभी राक्षसों का विनाश कर दिया।साथ ही यह वरदान दिया कि आज से इस वन मे राक्षस नहीं रहेंगे।यहाँ केवल शिवभक्त ही रहेंगे।
            बाद मे पार्वती जी के अनुरोध पर शिव जी ने दारुका सहित अन्य राक्षसों को भी वहाँ रहने की अनुमति दे दी।फिर शिव जी शिवा सहित वहीं ज्योतिर्लिंग स्वरूप प्रतिष्ठित हो गये।शिव जी नागेश्वर नाम से और शिवा जी नागेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हुईं।वे अपने भक्तों एवं दर्शनार्थियों की समस्त कामनायें पूर्ण करने वाले हैं।जो इस कथा को सुनता है ; वह निष्पाप होकर सभी मनोरथ प्राप्त कर लेता है।
         

No comments:

Post a Comment