समुद्र-मन्थन से प्रकट होने वाले अमृत का पान करने के पश्चात देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त कर ली।इस विजय के कारण उन्हें भयानक अहंकार हो गया।वे इस प्रकार उन्मत्त हुए कि सर्वेश्वर शिव जी की आराधना करना भी भूल गये।यह बात शिव जी को अच्छी नहीं लगी ; क्योंकि यह अहंकार ही उनके भक्त देवताओं के पतन का कारण बन सकता है।अतः उन्होंने देवताओं के इस अहंकार को नष्ट करने के लिए एक विचित्र सी लीला रच दी।
शिव जी यक्ष का रूप धारण कर देवताओं के सन्निकट पहुँचे।उन्होने देवताओं के एकत्रित होने का कारण पूछा।इसके उत्तर मे सभी देवगण आत्म प्रशंसा मे जुट गये।सभी लोग समुद्र-मन्थन एवं देवासुर संग्राम के सन्दर्भ मे अपने-अपने बल-पौरुष का बखान करने लगे।उन्होंने इतना तक कह डाला कि इस युद्ध मे मिलने वाली विजय हमारे बल-पौरुष का ही परिणाम थी।उसमे किसी अन्य देवता का योगदान नहीं था।वे इतना भी भूल गये कि समुद्र-मन्थन से निकलने वाले महाविष को शिव जी यदि न ग्रहण करते तो सम्पूर्ण सृष्टि के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग गया होता।
इस पर यक्षरूपी शिव जी ने समझाया कि आप लोग व्यर्थ का गर्व न करें।इसमे उन महेश्वर शिव जी का विशेष योगदान रहा है।यदि आप लोग इतने महा बलशाली हैं तो मेरे द्वारा दिये गये इस तृण को तोड़ दें तो मै भी मान लूँ।उस तृण को पहले देवताओं ने अकेले अकेले तोड़ने का प्रयास किया परन्तु जब न टूट सका तब सभी इकट्ठा होकर तोड़ने लगे।फिर भी उनका प्रयास व्यर्थ गया।वह तृण टूट नहीं सका।
उसी समय आकाशवाणी हुई कि भगवान शिव ही परम शक्तिमान एवं ईश्वरों के भी ईश्वर हैं।उन्हीं के बल से आप लोग बलवान बने हैं।इसलिए सभी लोग अपने समक्ष प्रस्तुत उन्हीं सर्वेश्वर की शरण ग्रहण करें।इसे सुनकर देवगण बहुत लज्जित हुए और शिव जी की स्तुति करने लगे।उनकी भावपूर्ण स्तुति सुनकर शिव जी अपने वास्तविक स्वरूप मे प्रकट हो गये।इस प्रकार उनका दर्शन करके देवगण धन्य हो गये।
Tuesday, 24 May 2016
यक्षावतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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