Wednesday, 18 May 2016

पिप्पलाद अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            एक बार दैत्यों ने वृत्रासुर के सहयोग से इन्द्रादि देवताओं को पराजित कर दिया।सभी देवगण ब्रह्मा जी के पास गये और अपनी व्यथा सुनायी।ब्रह्मा जी ने बताया कि महर्षि दधीचि ने शिवोपासना करके अपनी अस्थियों को वज्र सदृश होने का वर प्राप्त कर लिया है।यदि उन अस्थियों से वज्रदण्ड का निर्माण किया जाय तो उससे वृत्रासुर का वध किया जा सकता है।
            इसे सुनकर सभी देवगण महर्षि दधीचि के आश्रम पर गये और एकान्त मे अपना प्रयोजन बताया।महर्षि ने शिव जी का ध्यान करके अपना शरीर छोड़ दिया।विश्वकर्मा ने उन अस्थियों से वज्र आदि अस्त्रों का निर्माण किया।इन्द्र ने वृत्रासुर पर आक्रमण करके उसी वज्र से उसका वध कर दिया।इससे सम्पूर्ण देव समाज प्रसन्न हो गया।
            इधर महर्षि की पत्नी सुवर्चा जब आश्रम के अन्दर गयीं तो वहाँ अपने पति को मृत पाया।उन्होंने क्रुद्ध होकर सभी देवताओं को पशु होने का शाप दे दिया।इसके बाद उन्होंने पतिलोक मे जाने के लिए चितारोहण का उपक्रम किया।उसी समय शिव जी की प्रेरणा से आकाशवाणी हुई कि तुम्हारे गर्भ मे मुनि का तेज विद्यमान है।अतः उस गर्भ की रक्षा के लिए चितारोहण मत करो।
            आकाशवाणी को सुनकर उन्होंने चितारोहण का विचार तो त्याग दिया किन्तु पत्थर से अपने उदर को विदीर्ण कर दिया।इससे परम दिव्य एवं प्रकाशमान शरीर वाला एक बालक उत्पन्न हुआ।वह बालक साक्षात् रुद्र का अवतार था।ऋषि-पत्नी ने उसकी स्तुति करके उसे अश्वत्थ वृक्ष के समीप चिरकाल तक स्थित रहने का आदेश दिया।उसके बाद वे समाधियोग द्वारा पतिलोक को चली गयीं।
            उसके बाद इन्द्रादि देवगण सहित अनेक ऋषि मुनि वहाँ पहुँच गये।सबने उनकी स्तुति की।उस बालक ने उस समय  अश्वत्थ ( पीपल ) के पत्ते खाये थे ; इसलिए उनका नाम पिप्पलाद रख दिया।उन्होंने उसी पीपल के नीचे चिरकाल तो तपस्या की।बाद मे उन्होंने वरदान दिया कि सोलह वर्ष की अवस्था वाले मनुष्यों तथा शिवभक्तों को शनि की पीड़ा नहीं होगी।उनका यह वरदान आज भी चरितार्थ हो रहा है।

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