Wednesday, 11 May 2016

श्री ओंकारेश्वर -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            द्वादश ज्योतिर्लिंगों के क्रम मे श्री ओंकारेश्वर जी की गणना चतुर्थ स्थान पर की जाती है।ये मध्यप्रदेश के खण्डवा जिले मे नर्मदा नदी के तट पर स्थित मान्धाता पर्वत पर प्रतिष्ठित हैं।इन्हें अमलेश्वर भी कहा जाता है।इनके प्रादुर्भाव की कथा बहुत रोचक एवं शिक्षाप्रद है।
           एक बार नारद जी भ्रमण करते हुए विन्ध्य पर्वत पर पहुँच गये।पर्वतराज ने उनका विधिवत सत्कार किया।किन्तु अप्रासंगिक रूप से अपनी प्रशंसा करने लगा।उसकी गर्वोक्ति नारद जी को अच्छी नहीं लगी।उन्होंने कहा कि तुम्हारे पास सब कुछ है ; फिर भी मेरुपर्वत तुमसे बहुत ऊँचा एवं सम्मानित है।इतना कहकर नारद जी चले गये।
          इधर नारद जी के कथन को स्मरण करते हुए विन्ध्य बहुत दुःखी हुआ।वह अपना दुःख दूर करने के लिए शिव जी की शरण मे गया।वहाँ वह शिव जी की पार्थिव-मूर्ति बनाकर उनकी आराधना करने लगा।उसने छः मास तक कठोर तप किया।भक्तवत्सल शिव जी प्रसन्न हो गये।वे उसके समक्ष प्रकट हुए और उसे मनोवाँछित वर प्रदान किया।
          उसी समय अनेक ऋषि ; मुनि ; देवगण आदि आ गये और सबने शिव जी से प्रार्थना किया कि आप लोककल्याण के लिए यहाँ स्थिर रूप से निवास करें।शिव जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।उसी समय वहाँ विद्यमान ओंकार लिंग दो स्वरूपों मे विभक्त हो गया।प्रणव मे जो सदाशिव थे ; वे ओंकार नाम से प्रसिद्ध हुए।पार्थिवमूर्ति मे जो शिवज्योति प्रतिष्ठित हुई ; उन्हें परमेश्वर कहा गया।इन्हीं परमेश्वर को अमलेश्वर भी कहा जाता है।
           इस प्रकार वहाँ ओंकारेश्वर एवं परमेश्वर नामक दो शिवलिंग हैं।दोनो ही बहुत प्रभावशाली एवं भक्तवत्सल हैं।इनकी उपासना करने से मनुष्य की सभी कामनायें पूर्ण हो जाती हैं और वह जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।

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