यह बड़े हर्ष का विषय है कि आजकल अन्य पर्वों की भाँति मातृ दिवस को भी एक पुनीत पर्व की भाँति मनाया जाता है।अपने देश मे यह पर्व मई महीने के द्वितीय रविवार को मनाने की परम्परा है।यह दिन माता के गौरवशाली महत्त्व को अभिव्यक्त करने वाला पर्व माना जाता है।
अखिल विश्व मे जितने भी सम्बन्धी हैं ; उनमे माता का स्थान सर्वोपरि है।इसीलिए प्रायः सभी धर्मों एवं संस्कृतियों मे माँ के गौरवशाली महत्व को उन्मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया गया है।तैत्तिरीय उपनिष्द मे " मातृदेवो भव " कहकर माता को देवता सदृश समादृत माना गया है।इतना ही नहीं बल्कि माँ का स्थान तो स्वर्ग से भी महनीय है --
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
यदि गम्भीरता पूर्वक विचार करें तो ज्ञात होता है कि माता तो त्याग ; तपस्या ; ममता ; करुणा ; दया ; परोपकार आदि की जीवन्त प्रतिमूर्ति है।गर्भस्थ शिशु के पालन-पोषण मे वह जितनी तपस्या करती है ; उतनी तपस्या अन्य किसी के द्वारा संभव ही नहीं है।उस समय तो वह अपना सर्वस्व निछावर कर देती है।वह अपने जीवन के अमूल्य अंश को प्रदान कर उसकी रक्षा एवं पोषण करती है।जन्मोपरान्त भी वह शिशु-सेवा मे ही संलग्न रहती है।शिशु को जो सुख ; शान्ति एवं आनन्द माँ की गोद मे मिलता है ; उसका लाखवाँ अंश भी अन्यत्र संभव नहीं है।बेटा चाहे जितना बड़ा हो जाय किन्तु माँ की दृष्टि मे वह बच्चा ही रहता है।युवा एवं वृद्ध पुत्र को भी माँ बारम्बार बलैया लेती है।वह उसे चूमती और पुचकारती भी है।
माता का हृदय अत्यन्त दयालु एवं विशाल होता है।उसमे अपनी सन्तानों के लिए सदैव स्नेह-सागर लहराता रहता है।पुत्र अपनी माँ को सम्मान दे अथवा न दे ; किन्तु माँ की ममता कभी कम नहीं होती है।इतना ही नहीं बल्कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है किन्तु माता कुमाता नही हो सकती है --
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।
माता का महत्त्व केवल मानव-समाज मे ही नहीं ; बल्कि देव-समाज मे भी है।देवगण भी उसे यथोचित सम्मान देते हैं।दैवी अवतारों ने भी अपनी दिव्य लीलाओं के द्वारा माता के महत्त्व को प्रकाशित किया है।मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम साक्षात् ब्रह्म के अवतार माने जाते हैं।वे भी प्रतिदिन अपने माता-पिता का चरण-वन्दन करते थे --
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा।
मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।
यद्यपि पिता का भी पर्याप्त महत्व है किन्तु माता का महत्व उनसे और अधिक है।पिता की आज्ञा की अपेक्षा माता की आज्ञा अधिक बलवती होती है।श्रीराम ने जब अपनी माता कौसल्या से बतलाया कि पिता जी ने मुझे वनवास दे दिया है ; तब कौसल्या ने कहा था कि यदि केवल पिता की आज्ञा हो तो माता को पिता से बड़ी समझकर वन को मत जाओ --
जौ केवल पितु आयसु ताता।
तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।।
इसी तथ्य को व्याख्यायित करते हुए वेदव्यास ने भी कहा है कि गौरव की दृष्टि से दस आचार्यों से बढ़कर एक उपाध्याय ; दस उपाध्यायों से बढ़कर पिता होता है।परन्तु माता का गौरव पिता के दस गुना अधिक होता है।माता तो अपने गौरव से सम्पूर्ण पृथ्वी को तिरस्कृत कर देती है।अर्थात् माता के गौरव के समक्ष सम्पूर्ण विश्व का गौरव नगण्य है --
दशाचार्यानुपाध्याय उपाध्यायान् पिता दश।
दश चैव पितृन् माता सर्वा वा पृथिवीमपि।।
परब्रह्म परमात्मा के साक्षात् अवतार एवं सोलहों कलाओं से परिपूर्ण लीलापुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने माता को जो सम्मान दिया है ; वह सम्पूर्ण विश्व के लिए एक महान् आदर्श है।वे तो अपनी माँ की डाँट फटकार भी सुनते थे।इतना ही नहीं बल्कि माँ की आज्ञा से कान पकड़ कर उठक-बैठक भी लगाते थे।मेरी समझ मे विश्व के किसी भी अवतार या महापुरुष ने अपनी माँ को इतना सम्मान नहीं दिया होगा।श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवर मे बैठा कर सम्पूर्ण तोर्थों का भ्रमण कराया था और उन्हीं की सेवा जीवन भी दे दिया था।ऐसा महान् मातृ-स्नेह अन्यत्र कहाँ देखने को मिलेगा।यह तो भारत-भूमि पर ही संभव है।
माता ही बच्चे की प्रथम गुरु है।वही बच्चे को विश्व से परिचय कराती है।वह चाहे तो अपने बच्चे को महत्ता की शिखर पर पहुँचा दे अथवा गर्त मे धकेल दे।परन्तु माँ सदैव अपने बच्चों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है।उसे महान से महानतम बनाने का प्रयास करती है।महात्मा गाँधी ; वीर शिवाजी आदि अपनी माँ के कारण ही महान बने हैं।
अतः अपने उदर रूपी विवर मे रखकर हमारी हर प्रकार से रक्षा करने वाली पराशक्ति स्वरूपा जननी को नमस्कार है।हे माता आपने बड़े कष्ट से मुझे अपने उदर मे धारण किया और आपकी कृपा से ही मुझे यह संसार देखने को मिला है।अतः आपको बारम्बार नमस्कार है।पृथिवी पर जितने तीर्थ ; समुद्र आदि पवित्र स्थल हैं ; आप उन सबकी साक्षात् स्वरूप हैं।अतः अपने कल्याण-प्राप्ति के लिए मै आपको नमस्कार करता हूँ ----
या कुक्षिविवरे कृत्वा स्वयं रक्षति सर्वतः।
नमामि जननीं देवीं परा प्रकृतिरूपिणीम्।।
कृच्छ्रेण महता देव्या धारितोऽहं यथोदरे।
त्वत्प्रसादाज्जगद्दृष्टं मातर्नित्यं नमोऽस्तु ते।।
पृथिव्यां यानि तीर्थानि सागरादीनि सर्वशः।
वसन्ति यत्र तां नौमि मातरं भूतिहेतवे।।
Friday, 6 May 2016
मातृ दिवस -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी
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