Friday, 20 May 2016

अवधूतेश्वर अवतार -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

            शिव जी बहुत लीला विहारी हैं।वे कभी कभी बहुत विचित्र लीला कर बैठते हैं।एक बार देवराज इन्द्र ने समस्त देवताओं एवं गुरु बृहस्पति के साथ भगवान शिव जी का दर्शन करने के लिए प्रस्थान किया।शिव जी उनकी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए अवधूत रूप मे प्रकट होकर मार्ग मे खड़े हो गये।किन्तु इन्द्र अपने अहंकार के कारण उन्हें पहचान नहीं सके।इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम अवधूत जी का परिचय पूछा उसके बाद शिव जी के विषय मे जानकारी प्राप्त करनी चाही।इन्द्र ने पूछा कि शिव जी कहाँ हैं ? हम लोग उनका दर्शन करना चाहते हैं।
           इन्द्र ने इसी प्रश्न को कई बार पूछा किन्तु उनकी गर्वोक्ति को सुनकर शिव जी ने कोई उत्तर नहीं दिया।अब तो इन्द्र के क्रोध की सीमा न रही।उन्होंने क्रोधावेश मे आकर शिव जी के लिए अनेक अपमान जनक शब्द कहे।इतना ही नहीं बल्कि उन पर प्रहार करने के लिए वज्र उठा लिया।शिव जी ने वज्र सहित इन्द्र का हाथ स्तम्भित कर दिया और क्रोध के कारण जो तेज उत्पन्न हुआ ; उससे उनका शरीर प्रज्ज्वलित हो उठा।इस दृश्य को देखकर बृहस्पति ने समझ लिया कि ये कोई अन्य नहीं बल्कि स्वयं शिव जी ही हैं।अतः बृहस्पति ने उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे।उन्होने इन्द्र को भी शिव जी के चरणों गिरा कर क्षमा याचना की।
            बृहस्पति की स्तुति एवं इन्द्र की शरणगति से शिव जी प्रसन्न हो गये।उन्होंने हँसते हुए कहा कि क्रोध के कारण मेरे नेत्रों से निकली हुई अग्नि को वापस करना सम्भव नहीं है।इसलिए इस अग्नि को मै बहुत दूर भेज रहा हूँ।इतना कहकर शिव जी ने उस अग्नि को समुद्र मे फेंक दिया।तभी उस तेज से एक बालक उत्पन्न हुआ जो जलन्धर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।इस प्रकार सभी को वरदान देकर शिव जी अन्तर्धान हो गये।

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