Tuesday, 3 May 2016

प्रणव-मन्त्र -- डाॅ कृष्ण पाल त्रिपाठी

          शिव जी के महामन्त्र ओंकार ( ऊँ ) को प्रणव-मन्त्र कहा जाता है।शास्त्रों मे इसकी असीम महत्ता वर्णित है।इसका जप करने से मनुष्य का उद्धार हो जाता है।वह इस अगाध भवसागर से बहुत आसानी से पार हो जाता है।उसे अन्य किसी साधन की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है।इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि " प्र " अर्थात् प्रकृति से उत्पन्न संसार रूपी महासागर को पार करने के लिए यह दूसरी " नव " ( नौका ) है।इसीलिए इसको प्रणव कहा जाता है --
प्रो हि प्रकृतिजातस्य संसारस्य महोदधेः।
नवं नावान्तरमिति प्रणवं वै विदुर्बुधाः।।
          प्रणव का जप करने से मनुष्य सांसारिक प्रपञ्चों से मुक्त हो जाता है।वह संसार मे निवास तो करता है किन्तु उसके ऊपर सांसारिक प्रपञ्चों का प्रभाव नहीं पड़ता है।प्रणव ( प्रनव ) शब्द के तीनों अक्षर इसी भाव को द्योतित करते हैं।यहाँ प्र = प्रपञ्च ; न = नहीं है ; वः = तुम लोगों के लिए -- अर्थात् जिसको जपने से मनुष्यों पर सांसारिक प्रपञ्चों का प्रभाव नहीं रहता है या समाप्त हो जाता है ; उसे प्रणव कहते हैं --
प्रः प्रपञ्चो हि नास्ति वो युष्माकं प्रणवं विदुः।
          मानव -जीवन के लिए चार पुरुषार्थ बताये गये हैं ; जिन्हें धर्म ; अर्थ ; काम और मोक्ष कहा जाता है।इनमे से मोक्ष प्राप्त करना ही चरम लक्ष्य माना गया है।इसी की प्राप्ति के लिए योगी ; यती ; ऋषि ; मुनि आदि सभी प्रयत्नशील रहते हैं।इसके लिए वे जप ; तप ; पूजा ; पाठ करते रहते हैं ; फिर भी निश्चित नहीं रहता कि उन्हें मोक्ष मिल ही जायेगा।परन्तु प्रणव जप से मोक्ष-प्राप्ति सुनिश्चित है।यह तथ्य इस शब्द की व्युत्पत्ति से पूर्णतः स्पष्ट है -- प्र = प्रकर्षेण ; न = नयेत् ; वः = युष्मान् मोक्षं इति प्रणवः -- अर्थात् यह महामन्त्र तुम सब जापकों को बलपूर्वक मोक्ष तक पहुँचा देता है।इसलिए इसको प्रणव कहा जाता है --
प्रकर्षेण नयेद्युष्मान्मोक्षं वः प्रणवं विदुः।
            इस महामन्त्र प्रणव को समस्त सांसारिक कर्मों के विनाश  एवं नूतन दिव्य ज्ञान की प्राप्ति का प्रमुख साधन माना जाता है।जिसे नूतन ज्ञान प्राप्त हो जाता है ; वह शिवस्वरूप हो जाता है।इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यह मन्त्र अपना अर्थात् ओंकार का जप करने वाले योगियों एवं अपने मन्त्र की पूजा करने वाले उपासकों के समस्त कर्मों का नाश करके दिव्य नूतन ज्ञान प्रदान करता है।इसीलिए इसको प्रणव कहा जाता है --
स्वजापकानां योगिनां स्वमन्त्रपूजकस्य च।
सर्वकर्मक्षयं कृत्वा दिव्यज्ञानं तु नूतनम्।।
           प्रणव साक्षात् शिव स्वरूप है।उसे शिव जी का वाचक माना जाता है।शास्त्रों मे माया-रहित महेश्वर को ही " नव " अर्थात् नूतन कहा जाता है।वे परमात्मा प्रकृष्ट रूप से नव अर्थात् शुद्धस्वरूप होने के कारण प्रणव कहलाते हैं।इसलिए प्रणव का जप करने वाला व्यक्ति शिव को ही जपता है।यहाँ यह भी निश्चित है कि शिव को जपने वाला शिव स्वरूप हो जाता है।इसमे कोई सन्देह नहीं है।इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि प्रणव मन्त्र अपने साधकों को प्रकृष्ट रूप से नव अर्थात् शिव स्वरूप बना देता है --
प्रकर्षेण महात्मानं नवं शुद्धस्वरूपकम्।
नूतनं वै करोतीति प्रणवं तं विदुर्बुधाः।।
           नव शब्द का एक अर्थ दिव्य परमात्म ज्ञान भी होता है।यह मन्त्र प्रकृष्ट रूप से उस दिव्य परमात्म ज्ञान को प्रकट करता है।इसलिए इसे प्रणव कहा जाता है।यह प्रणव ही ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यन्त सभी प्राणियों का प्राण है।इसलिए इसको प्रणव कहा जाता है --
ब्रह्मादिस्थावरान्तानां सर्वेषां प्राणिनां खलु।
प्राणः प्रणव एवायं तस्मात् प्रणव ईरितः।।
           इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रणव साक्षात् शिव स्वरूप है।यह समस्त मन्त्रों का मूल है।केवल इसी का जप करने से मनुष्य को भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति हो जाती है।अन्य किसी मन्त्र का आश्रय ग्रहण करने की आवश्यकता ही नहीं रहती है।अतः समस्त आस्तिक जनों को इस महामन्त्र का जप अवश्य करना चाहिए।    

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