Thursday, 31 December 2015

मार्तण्डसप्तमी-व्रत

           मार्तण्डसप्तमी-व्रत पौष मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को किया जाता है।इसमे भगवान मार्तण्ड अर्थात् सूर्यदेव का पूजन किया जाता है।इसीलिए इसे मार्तण्ड सप्तमी कहा जाता है।

कथा --

           प्राचीन काल मे जब विभिन्न देवी-देवताओं के मध्य तिथियों का आबंटन हुआ तब सप्तमी तिथि का स्वामित्व सूर्यदेव को प्राप्त हुआ।इसलिए उन्हें सप्तमी तिथि विशेष प्रिय है।

विधि --

          व्रती स्नानादि नित्यकर्म के बाद व्रत का संकल्प ले।फिर गन्ध अक्षत आदि से मार्तण्ड नाम से सूर्यदेव का विधिवत् पूजन करे।पूजनोपरान्त गोदान करे।इस प्रकार एक वर्ष तक प्रत्येक मास की शुक्ला सप्तमी का व्रत करके उद्यापन करे।

माहात्म्य --

           यह व्रत भगवान सूर्यनारायण की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।इससे उत्तम पुण्यफल की प्राप्ति होती है।

Wednesday, 30 December 2015

विधिपूजन-व्रत

          विधिपूजन-व्रत पौष मास के शुक्ल पक्ष की उस द्वितीया तिथि को किया जाता है ; जब उस दिन गुरुवार हो।द्वितीया तिथि के स्वामी ब्रह्मा जी हैं।इस व्रत मे विधि अर्थात् ब्रह्मा जी का ही पूजन होता है।इसीलिए इसे विधिपूजा कहा जाता है।

विधि ---

           व्रती पौष शुक्ल द्वितीया को स्नानादि करके व्रत का संकल्प ले।फिर गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से ब्रह्मा जी का विधिवत् पूजन करे।दिन भर उपवास करे।रात्रि मे एक बार शुद्ध - सात्विक आहार ग्रहण करे।

माहात्म्य ---

           यह पर्व बहुत महत्वपूर्ण एवं पुण्यदायक है।जो व्यक्ति इस तिथि को ब्रह्मा जी का पूजन एवं उनके निमित्त व्रत करता है।ब्रह्मा जी उसे सब प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करते हैं।व्रती पूर्ण सुखी एवं सम्पन्न हो जाता है।उसे कभी भी धनाभाव का कष्ट नहीं होता है।

Tuesday, 29 December 2015

आरोग्य-व्रत

           आरोग्य-व्रत पौष मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को किया जाता है।इसमे चन्द्रोदय-व्यापिनी द्वितीया ली जाती है।अर्थात् जिस दिन चन्द्रोदय काल मे द्वितीया तिथि वर्तमान हो ; उस दिन आरोग्य-व्रत किया जाता है।इस व्रत को करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है।इसलिए इसे आरोग्य-व्रत कहते हैं।

विधि ---

           व्रत करने के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह पौष शुक्ल द्वितीया को स्नानादि करके व्रत का संकल्प ले।दिन भर भगवान का नाम-स्मरण करते हुए उपवास करे।सायंकाल गाय के सींग के धोये हुए जल से स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण करे।चन्द्रोदय होने पर द्वितीया के चन्द्रमा का गन्ध अक्षत श्वेत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से विधिवत् पूजन करे।उस समय ब्राह्मणों को गुड़ दही खीर आदि का भोजन कराये।उन्हें दक्षिणा देकर शुभाशीष प्राप्त करे।उसके बाद स्वयं छाछ पीकर भूशयन करे।
           इस प्रकार एक वर्ष तक प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की चन्द्रोदय-व्यापिनी द्वितीया का व्रत करे।वर्ष के अन्त मे ब्राह्मण को गन्ना के रस से परिपूर्ण घड़ा ; सुवर्ण ; वस्त्र आदि वस्तुयें प्रदान कर उद्यापन करे।

माहात्म्य ---

           आरोग्य-प्राप्ति के लिए यह व्रत बहुत उत्तम है।जो व्यक्ति एक वर्ष तक श्रद्धा-भक्ति पूर्वक इस व्रत को करता है ; वह समस्त रोगों से मुक्त हो जाता है।उसे समस्त सांसारिक सुखों को भोगने का सौभाग्य प्राप्त होता है।

Monday, 28 December 2015

सम्प्राप्ति-द्वादशी-व्रत

           सम्प्राप्ति-द्वादशी-व्रत का आरम्भ पौष मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि से किया जाता है।इस व्रत की सम्पूर्ण अवधि एक वर्ष की है।इसे छः छः महीने मे दो बार मे पूरा किया जाता है।पहली बार पौष से ज्येष्ठ मास तक तथा दूसरी बार आषाढ़ से मार्गशीर्ष तक किया जाता है।इस व्रत के द्वारा समस्त कामनायें सम्यक् रूप से पूर्ण हो जाती हैं।इसीलिए इसे सम्पूर्ति-द्वादशी-व्रत कहा जाता है।

कथा --

          इस व्रत का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से किया था।द्वादशी तिथि के स्वामी भगवान विष्णु हैं।श्री कृष्ण जी विष्णु जी के अवतार हैं।अतः उनके द्वारा उपदेशित यह पर्व निश्चित रूप से उत्तम पुण्य फलदायक है।

विधि ---

           व्रती को चाहिए कि वह पौष मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को प्रातः नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्रत एवं पूजन का संकल्प ले।फिर गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि के द्वारा भगवान पुण्डरीकाक्ष का षोडशोपचार पूजन करे।दिन भर उपवास पूर्वक विष्णु जी का संकीर्तन करे।दूसरे दिन ब्राह्मण-भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन ग्रहण करे।
           यह व्रत छः महीने तक किया जाता है।अतः माघ आदि अग्रिम पाँच महीनों की कृष्णा द्वादशी को क्रमशः माधव ; विश्वरूप ; पुरुषोत्तम ; अच्युत एवं जय नाम से भगवान का पूजन करे।प्रत्येक बार ब्राह्मण-भोजन एवं दक्षिणा प्रदान करे।आषाढ़ मास मे पुनः अग्रिम छः मास के लिए संकल्प लेकर पहले की भाँति व्रत करे।

माहात्म्य ---

           यह व्रत बहुत प्रभावशाली एवं पुण्यदायक है।जो व्यक्ति इस व्रत को पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति से एक वर्ष तक करता है ; उसकी समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।वह पूर्ण सुखमय जीवन व्यतीत करने के बाद अन्त मे भगवान के लोक को प्राप्त करता है।अतः प्रत्येक व्यक्ति को इस व्रत को अवश्य करना चाहिए।

Saturday, 26 December 2015

सफला-एकादशी-व्रत

           सफला-एकादशी-व्रत पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को किया जाता है।यह व्रत जाने-अनजाने मे भी हो जाय तो भी पूर्ण फल प्राप्त होता है।इसीलिए इसको सफला-एकादशी-व्रत कहा जाता है।

कथा --

           प्राचीन काल मे चम्पावती मे माहिष्मत नामक राजा राज्य करता था।वह बहुत सुयोग्य एवं धार्मिक था।उसके पाँच पुत्र थे।ज्येष्ठ पुत्र का नाम लुम्भक था।वह बहुत उच्छृङ्खल ; दुराचारी एवं परस्त्रीगामी था।राजा ने उसे सुधारने का बहुत प्रयास किया किन्तु सफलता नही मिली।अतः राजा ने उसे अपने राज्य से बहिष्कृत कर दिया।वह जंगलों मे निवास करते हुए चोरी आदि के द्वारा अपना जीवन-यापन करने लगा।एक दिन उसे चोरी करते हुए सिपाहियों ने पकड़ लिया किन्तु राजकुमार होने के कारण उसे मुक्त कर दिया।उसके मन-मस्तिष्क पर इस घटना का बहुत प्रभाव पड़ा।उसने उसी दिन से चोरी करनी बन्द कर दी।अब वह मांस ; मछली ; फल-फूल आदि के आधार पर जीवन-यापन करने लगा।
           संयोगवश पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि आ गयी।उस दिन उसे मांस नहीं मिल सका।उसने फल-फूल आदि खाकर दिन-रात व्यतीत किया।दूसरे दिन एकादशी के दिन भी अशक्त होने के कारण भूखा पड़ा रहा।शाम को फल-फूल ढूँढ कर लाया।उसने अचानक भगवान को स्मरण कर फल-फूल उन्हें समर्पित कर दिया।अस्वस्थता एवं अशक्तता के कारण राम-राम कहते हुए रात्रि व्यतीत की।द्वादशी को प्रातः आकाशवाणी हुई कि हे राजकुमार तुमने अनजाने मे ही सफला-एकादशी का व्रत कर लिया है।अतः तुम शीघ्र ही पुत्र एवं राज्य को प्राप्त कर लोगे।इसके प्रभावस्वरूप कालान्तर मे उसे राज्य पुत्र आदि सब कुछ प्राप्त हो गया।दीर्घकाल तक सानन्द शासन करने के बाद उसने विष्णुलोक को प्राप्त किया।

विधि ---

           सफला-एकादशी-व्रत करने के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह पौष कृष्ण पक्ष की एकादशी को नित्यकर्म करके व्रत का संकल्प ले।फिर गन्ध ; पुष्प ; धूप ; दीप ; नैवेद्य आदि से भगवान विष्णु का विधिवत् पूजन करे।दिन भर उपवास या फलाहार करे।दूसरे दिन यथाविधि पारणा करे।

माहात्म्य --

           सामान्य रूप से सभी एकादशियाँ भगवान विष्णु को प्रिय एवं पुण्य-फलदायक हैं।परन्तु सफला एकादशी विशेष महत्वपूर्ण है।इसे जाने अनजाने किसी भी प्रकार कर लेने पर पूर्ण फल की प्राप्ति होती है।जो व्यक्ति इस व्रत का श्रद्धा एवं भक्ति के साथ करता है ; वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।उसे समस्त सुखों की प्राप्ति अनायास हो जाती है।अन्त मे मृत्यु के पश्चात् उसे विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।

अन्वष्टका - श्राद्ध

           अष्टका - श्राद्ध का वर्णन करते समय श्राद्ध एवं उसके विभिन्न भेदों पर चर्चा की जा चुकी है।वहीं पर श्राद्ध के जो 96 अवसर बताये गये हैं ; उन्हीं मे अन्वष्टका श्राद्ध भी परिगणित हुई है।
         शास्त्रों मे बताया गया है कि मार्गशीर्ष ; पौष ; माघ ; फाल्गुन तथा भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष मे किये जाने वाले अष्टका श्राद्ध की अग्रिम तिथि को अन्वष्टका कहा जाता है।अर्थात् उपर्युक्त मासों के कृष्ण पक्ष की नवमी को अन्वष्टकाश्राद्ध करने का विधान है।इसमे अपराह्न-व्यापिनी नवमी ली जाती है।अष्टकाश्राद्ध की भाँति अन्वष्टका श्राद्ध भी अनिवार्य मानी गयी है।अतः सभी को यह श्राद्ध करना चाहिए।

अष्टका - श्राद्ध

           अपने पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले कर्मविशेष को श्राद्ध कहा जाता है।शास्त्रों मे श्राद्ध के तीन भेद हैं -- नित्य ; नैमित्तिक और काम्य।परन्तु यमस्मृति मे नित्य ; नैमित्तिक ; काम्य ; वृद्धि एवं पार्वण नामक पञ्चविध श्राद्धों का उल्लेख हुआ है।प्रतिदिन किये जाने वाले श्राद्ध को नित्यश्राद्ध ; एकोदिष्टश्राद्ध को नैमित्तिकश्राद्ध ; कामना-पूर्ति हेतु किये जाने वाले को काम्यश्राद्ध ; पुत्रजन्म आदि अवसरों पर किये जाने वाले को वृद्धिश्राद्ध तथा पितृपक्ष आदि मे किये जाने वाले को पार्वण श्राद्ध कहा जाता है।
           धर्मसिन्धु मे 96 ऐसे अवसरों का उल्लेख हुआ है ; जब श्राद्ध करना चाहिए।ये अवसर इस प्रकार हैं --

अमायुगमनुक्रान्तिधृतिपातमहालयाः ।
अष्टकाऽन्वष्टका पूर्वेद्युः श्राद्धैर्नवति षट् ।।

           अर्थात् वर्ष भर की बारह अमावस्यायें ; चार युगादि तिथियाँ ; चौदह मन्वादि तिथियाँ ; बारह संक्रान्तियाँ ; बारह वैधृति योग ; बारह व्यतिपात् योग ; पितृ पक्ष की पन्द्रह महालय श्राद्ध ; पाँच अष्टका ; पाँच अन्वष्टका ; तथा पाँच पूर्वेद्युः -- ये 96 ऐसे अवसर हैं ; जब श्राद्ध किये जाते हैं।
           शास्त्रों मे बताया गया है कि मार्गशीर्ष की पूर्णिमा के पश्चात् पौष कृष्ण पक्ष की अष्टमी अष्टका है।इसी प्रकार पौष आदि तीन महीनो अर्थात् पौष ; माघ तथा फाल्गुन की कृष्णा अष्टमी अष्टका है।आश्वलायन के अनुसार हेमन्त और शिशिर ऋतुओं के चार महीनो की अष्टमी अथवा एक मास की अष्टमी अष्टका कहलाती है।कुछ स्थानो पर पाँच अष्टका का उल्लेख हुआ है।उसमे हेमन्त तथा शिशिर ऋतुओं के चार महीनो की चार कृष्णाष्टमी तथा पाँचवीं भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की गणना की गयी है।
          अष्टका श्राद्ध के लिए अपराह्न - व्यापिनी अष्टमी ली जाती है।परन्तु मार्गशीर्ष आदि मास मे मलमास पड़ जाय तो अष्टकाश्राद्ध नही करना चाहिए।शास्त्रों मे अष्टका की अनिवार्यता प्रतिपादित की गयी है।जो व्यक्ति इसे नहीं करते हैं ; उन्हें भारी क्षति उठानी पड़ती है।अतः सभी को अष्टकाश्राद्ध करना चाहिए।

रुक्मिणी - अष्टमी

           रुक्मिणी - अष्टमी पौष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाती है।इस दिन रुक्मिणी का जन्म हुआ था।इसीलिए इसको रुक्मिणी - अष्टमी कहा जाता है।

कथा --

           रुक्मिणी जी भगवान श्रीकृष्ण की पटरानियों मे प्रमुख थीं।वे विदर्भ - नरेश महाराज भीष्मक की पुत्री थीं।वे साक्षात् लक्ष्मी की अवतार थीं।युवावस्था होने पर उन्हें श्री कृष्ण के सौन्दर्य ; बल-पराक्रम ; गुण ; वैभव आदि की जानकारी मिली।उन्होंने श्रीकृष्ण के पास अपने विवाह का प्रस्ताव भेजा।रुक्मिणी का भाई रुक्मी उनका विवाह शिशुपाल के साथ करना चाहता था।अतः श्री कृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर अपने साथ विवाह कर लिया।

विधि --

         व्रत एवं पूजन करने के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह पौष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को स्नानादि से निवृत्त होकर संकल्प ले।फिर किसी चौकी आदि पर सुवर्ण - निर्मित श्रीकृष्ण ; रुक्मिणी एवं प्रद्युम्न की प्रतिमा स्थापित करे।गन्ध पुष्प अक्षत धूप दीप आदि से विधिवत् पूजन करे।नैवेद्य के लिए विविधविध उत्तम पदार्थों को अर्पित करे।इसके बाद आठ सुवासिनी - सुहागिनी स्त्रियों को भोजन एवं दक्षिणा से सन्तुष्ट कर आशीष प्राप्त करे।

माहात्म्य ---

           यह पर्व बहुत महत्वपूर्ण एवं पुण्यदायक है।इस व्रत को करने से रुक्मिणी जी की अतिशय कृपा प्राप्त होती है।ये भगवान श्रीकृष्ण की प्रियतमा थीं।इसलिए इस पूजन से भगवान श्रीकृष्ण की भी अनुकम्पा प्राप्त होती है।

Friday, 25 December 2015

पौष मास के व्रत एवं पर्व

           इस वर्ष पौष मास दिनांक 26-12-2015 से दिनांक 24-01-2016 तक है।इस बीच पड़ने वाले प्रमुख व्रत एवं पर्व इस प्रकार हैं --
कृष्ण पक्ष ----
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1-- पौष कृष्ण प्रतिपदा -- 26-12-2015
2-- संकष्टी चतुर्थी व्रत -- 28-12-2015
3-- रुक्मिणी अष्टमी ; अष्टका श्राद्ध - 02-01-2016
4-- सफला एकादशी व्रत - 05-01-2016
5-- सुरूप द्वादशी -- 06-01-2016
6-- प्रदोष व्रत - 07-01-2015
7-- मास शिवरात्रि -- 08-01-2016
8-- श्राद्ध आदि की अमावस्या - 09-01-2016
9-- स्नान-दानादि की अमावस्या -- 10-01-2016
शुक्ल पक्ष ---
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10-- आरोग्य व्रत -- 11-01-2016
11-- वैनायिकी गणेश चतुर्थी -- 13-01-2016
12-- मकर संक्रान्ति जन्य पुण्यकाल -- 15-01-2016
13-- उभय सप्तमी ; मार्तण्ड सप्तमी -- 16-01-2016
14 -- महाभद्राष्टमी -- 17-01-2016
15-- शाम्ब दशमी -- 19-01-2016
16-- पुत्रदा एकादशी -- 20-01-2016
17-- प्रदोष व्रत -- 21-01-2016
18 -- घृतदान -- 22-01-2016
19-- व्रत की पूर्णिमा ; विरूपाक्ष पूजन ; ईशान व्रत
20-- स्नान दान आदि की पूर्णिमा ; माघ स्नान-व्रत-यम-नियम आदि का आरम्भ ; प्रयाग मे कल्पवास प्रारम्भ- 24-01-2016

Thursday, 24 December 2015

पौष-कृष्ण-प्रतिपदा

           पौष मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि का महत्व शास्त्रों की अपेक्षा लोकरीति मे अधिक है।इस तिथि से सम्बन्धित प्रमुख मान्यतायें इस प्रकार हैं --
1-- इस दिन जो व्यक्ति जिस प्रकार का भोजन करता है ; उसे वर्ष-पर्यन्त उसी प्रकार का भोजन प्राप्त होता है।इसलिए प्रायः सभी घरों मे विविध प्रकार के सुस्वादु व्यञ्जनों का निर्माण किया जाता है।परिवार के सभी लोग प्रायः एक साथ प्रेम पूर्वक भोजन करते हैं।
2-- इस तिथि को कोई भी व्यक्ति दूसरों के घर अतिथि रूप मे नही जाता है और न तो दूसरों के घर मे भोजन ही करता है।अन्यथा उसे वर्ष भर दूसरों के घर मे ही भटकना पड़ता है।उसे घर का सुखमय भोजन उपलब्ध नही हो पाता है।
3-- यदि इस दिन किसी के घर पर अतिथि आ गये तो वर्ष भर अतिथियों का आवागमन लगा रहता है।
4-- इस दिन कोई व्यक्ति उधार पैसे नही देता है ।अन्यथा उस पैसे के वापस होने मे सन्देह बना रहता है।
5-- इस तिथि को कोई व्यक्ति ऋण की वापसी भी नही करता और न ऋण लेता है।अन्यथा वर्ष भर ऋणग्रस्तता बनी रहती है।
6-- इस दिन दुकानदार भी उधार सामान नही देता है।अन्यथा वर्ष पर्यन्त उधार ही देता रहेगा।
7-- इस दिन लोग कम से कम व्यय करते हैं।अन्यथा वर्ष भर अपव्यय होता रहता है।

पूजन कार्य --

         शास्त्रीय दृष्टि से प्रतिपदा तिथि के स्वामी अग्निदेव हैं।मानव-जीवन मे अग्नि की असीम महत्ता है।भोजन बनाने और यज्ञ करने से लेकर अन्त्येष्टि क्रिया तक अग्नि की ही प्रधानता है।इसके अभाव मे तो मानव-जीवन के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जायेगा।ऋग्वेद मे भी सर्वप्रथम अग्नि की ही उपासना की गयी है।अतः प्रतिपदा को अग्निदेव का विधिवत् पूजन करना चाहिए।इनके पूजन हेतु " ऊँ अग्नये नमः " मंत्र ही पर्याप्त है।इसी मंत्र से गन्ध पुष्प अक्षत धूप दीप नैवेद्य आदि समर्पित करना चाहिए।
           पहले जब चूल्हे मे भोजन बनता था ; तब महिलायें पहली रोटी छोटी सी बनाकर चूल्हे की अग्नि मे डाल देती थीं।यह रोटी अग्निदेव को हवन के रूप मे दी जाती थी।परन्तु अब चूल्हों के अभाव मे यह कार्य संभव नही हो पाता है।अतः सबको चाहिए कि प्रतिदिन अग्निदेव को किसी भी ढंग से एकादि आहुति अवश्य दें।इससे अग्निदेव की कृपा सदैव बनी रहती है।

विष्णु के अंशावतार - दत्तात्रेय जी

           विष्णु भगवान के चौबीस अवतारों मे दत्तात्रेय जी छठवें अवतार के रूप मे प्रसिद्ध हैं।ये महर्षि अत्रिमुनि एवं माता अनसूया के सुपुत्र थे।एक बार अत्रिमुनि ने घोर तपस्या की।भगवान विष्णु जी प्रकट हुए और मुनिवर से वर माँगने को कहा।मुनिवर ने कहा कि मुझे समस्त प्राणियों का दुःख निवारण करने वाला पुत्र चाहिए।विष्णु जी ने कहा कि मैने स्वयं को ही तुम्हें दान कर दिया है।इसीलिए इनका नाम " दत्त " हुआ।ये अत्रिमुनि के पुत्र होने के कारण " आत्रेय " कहलाये।इस प्रकार दत्त और आत्रेय इन दोनो शब्दों के मेल से ये " दत्तात्रेय " कहलाने लगे।
           भगवान दत्तात्रेय की माता अनसूया जी महासती एवं परम सौभाग्यशालिनी थीं।एक बार नारद जी ने उनके सतीत्व की प्रशंसा माता पार्वती ; लक्ष्मी जी एवं सरस्वती जी के समक्ष कर दिया।ये तीनो देवियाँ ईर्ष्या से जलने लगीं।उन्होंने अपने-अपने पतियों से अनसूया के सतीत्व को भंग करने का हठ किया।अतः ब्रह्मा ; विष्णु और महेश तीनो लोग साधुवेश धारण कर अत्रिमुनि के आश्रम मे पहुँचे।उस समय माता अनसूया जी अकेली थीं।उन्होने तीनों साधुओं का आतिथ्य करना चाहा।परन्तु उन तीनो साधुओं ने कहा कि हम आपका आतिथ्य तभी स्वीकार करेंगे ; जब आप निर्वस्त्र होकर हमारे समक्ष आयें।
           अनसूया जी ने सोचा कि यह तो बहुत विषम परिस्थिति आ गयी है।परन्तु अतिथि-सेवा भी आवश्यक है।अतः उन्होने भगवान का स्मरण एवं अत्रिमुनि का ध्यान करके कहा कि हे प्रभुवर ! यदि मेरा पातिव्रत धर्म सत्य एवं अखण्ड है तो ये तीनो साधु छः छः महीने के शिशु बन जायँ।इतना कहते ही वे तीनो शिशु बन गये।माता अनसूया ने तीनो को अपना स्तनपान कराया।तीनो शिशु वहीं रहन लगे।कुछ दिनो बाद लक्ष्मी आदि को नारद जी के द्वारा सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्ञात हुआ।वे तीनों देवियाँ माता अनसूया के पास गयीं और उनके चरणों मे गिरकर क्षमायाचना करने लगीं।माता जी को दया आ गयी और उन्होने तीनो शिशुओं को पुनः ब्रह्मा ; विष्णु और महेश बना दिया।उस समय तीनो देवों ने अनसूया से वर माँगने को कहा।अनसूया जी ने तीनो को पुत्ररूप मे माँगा।तीनो देवों ने एवमस्तु कह दिया।कालान्तर मे अनसूया को ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा ; शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय जी पुत्ररूप मे प्राप्त हुए।बड़े होने पर दत्तात्रेय जी का विवाह नदी नामक कन्या के साथ हुआ ; जो साक्षात् लक्ष्मी की अवतार थीं।
           भगवान दत्तात्रेय जी अनेक नामो से प्रसिद्ध हैं।समस्त प्राणियों का अज्ञान नष्ट करके उनके हृदय मे ज्ञान का प्रकाश फैलाने के कारण उन्हें " गुरुदेव " या सद्गुरु कहा जाता है।इनके अवतार की परिसमाप्ति न होने के कारण इन्हें " अविनाश " कहा जाता है।ये समस्त सिद्धों के अधिपति होने के कारण " सिद्धराज " कहलाते हैं।इन्हे योगविद्या का असाधारण ज्ञान था।इसीलिए इनको योगिराज कहा जाता है।धर्म का साक्षात्कार होने के कारण इन्हे धर्मविग्रही कहा जाता है।

दिव्यशक्ति - सम्पन्न --

           भगवान दत्तात्रेय जी अवधूत विद्या के परमाचार्य एवं अनेक दिव्यशक्तियों से सुसम्पन्न थे।दत्तात्रेय वज्रकवच मे कहा गया है कि ये प्रातःकाल वाराणसी मे स्नान और कोल्हापुर के देवी-मन्दिर मे जप-ध्यान करते थे।माहुरीपुर ( मातापुर ) मे भिक्षाग्रहण करते थे और सह्याद्रि मे विश्राम करते थे।गिरनार इनका सिद्धपीठ है।इनकी गुरुचरण-पादुकायें वाराणसी ; आबूपर्वत आदि अनेक स्थानों पर विद्यमान हैं।

दत्तात्रेय के गुरु --

         दत्तात्रेय जी विद्या के महान प्रेमी थे।उन्होने चौबीस गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी। उनके गुरुओं के नाम इस प्रकार हैं -- पृथ्वी ; वायु ; आकाश ; जल ; अग्नि ; चन्द्रमा ; सूर्य ; कबूतर ; अजगर ; समुद्र ; पतंग ; मधुमक्खी ; हाथी ; मधु निकालने वाला ; हिरन ; मछली ; पिंगला नामक वेश्या ; कुररी पक्षी ; बालक ; कुमारी कन्या ; बाण-निर्माता ; सर्प ; मकड़ी और भृंगी कीट।

दत्तात्रेय के शिष्य --

           दत्तात्रेय जी एक महान गुरु थे।उन्होने कार्तिकेय ; गणेश ; परशुराम ; प्रह्लाद ; राजा यदु ; अलर्क ; पुरूरवा ; कार्तवीर्य आदि को उपदेश दिया था।बाद मे श्रीसन्त ज्ञानेश्वर ; श्रीजनार्दन स्वामी ; संत एकनाथ ; श्रीसंत दासोपन्त ; श्री संत तुकाराम ; शंकराचार्य ; गोरक्षनाथ ; नागार्जुन आदि को भी इनकी कृपा प्राप्त हुई थी।

सम्प्रदाय --

         भगवान दत्तात्रेय के अनुयायिओं की संख्या बहुत अधिक थी।उनकी शिक्षाओं के आधार पर अनेक सम्प्रदाय प्रचलित हुए।उन सम्प्रदायों मे दासोपन्त ; महानुभाव ; गोसाईं ; गुरुचरित्र ; दत्त-सम्प्रदाय आदि विशेष प्रसिद्ध हैं।

दत्तात्रेय-जयन्ती

           दत्तात्रेय-जयन्ती मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है।यह पूर्णिमा तिथि का सौभाग्य ही है कि उसे भगवान विष्णु के अवतार भगवान दत्तात्रेय की जन्मतिथि होने का गौरव प्राप्त हुआ है।दत्तात्रेय जी महामुनि अत्रि जी एवं माता अनसूया जी के पुत्र थे।जिस प्रकार पूर्णिमा को चन्द्रमा सोलह कलाओं से युक्त होकर पूर्ण प्रकाशमान होता है।उसी प्रकार दत्तात्रेय जी योग एवं अवधूत विद्या के ज्ञानरूपी प्रकाश से पूर्णरूपेण प्रकाशमान थे।वे इन विद्याओं के परमाचार्य थे।अतः ऐसे महापुरुष की जयन्ती भी उसी प्रकार मनाई जानी आवश्यक है।
             दत्तात्रेय-जयन्ती मनाने के इच्छुक व्यक्तियों को चाहिए कि वे मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को एक छोटा सा मञ्च अथवा चौकी को ही सुसज्जित कर लें।उस पर भगवान दत्तात्रेय की प्रतिमा स्थापित करें।सुन्दर गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से उनका विधिवत् पूजन करें।दत्तात्रेय जी के जीवन पर प्रकाश डालने हेतु व्याख्यान आदि आयोजित करें।इस प्रकार भगवत्स्मरण करते हुए भव्य आयोजन करें।अन्त मे प्रसाद-वितरण के बाद विसर्जन करें।