विष्णु भगवान के चौबीस अवतारों मे दत्तात्रेय जी छठवें अवतार के रूप मे प्रसिद्ध हैं।ये महर्षि अत्रिमुनि एवं माता अनसूया के सुपुत्र थे।एक बार अत्रिमुनि ने घोर तपस्या की।भगवान विष्णु जी प्रकट हुए और मुनिवर से वर माँगने को कहा।मुनिवर ने कहा कि मुझे समस्त प्राणियों का दुःख निवारण करने वाला पुत्र चाहिए।विष्णु जी ने कहा कि मैने स्वयं को ही तुम्हें दान कर दिया है।इसीलिए इनका नाम " दत्त " हुआ।ये अत्रिमुनि के पुत्र होने के कारण " आत्रेय " कहलाये।इस प्रकार दत्त और आत्रेय इन दोनो शब्दों के मेल से ये " दत्तात्रेय " कहलाने लगे।
भगवान दत्तात्रेय की माता अनसूया जी महासती एवं परम सौभाग्यशालिनी थीं।एक बार नारद जी ने उनके सतीत्व की प्रशंसा माता पार्वती ; लक्ष्मी जी एवं सरस्वती जी के समक्ष कर दिया।ये तीनो देवियाँ ईर्ष्या से जलने लगीं।उन्होंने अपने-अपने पतियों से अनसूया के सतीत्व को भंग करने का हठ किया।अतः ब्रह्मा ; विष्णु और महेश तीनो लोग साधुवेश धारण कर अत्रिमुनि के आश्रम मे पहुँचे।उस समय माता अनसूया जी अकेली थीं।उन्होने तीनों साधुओं का आतिथ्य करना चाहा।परन्तु उन तीनो साधुओं ने कहा कि हम आपका आतिथ्य तभी स्वीकार करेंगे ; जब आप निर्वस्त्र होकर हमारे समक्ष आयें।
अनसूया जी ने सोचा कि यह तो बहुत विषम परिस्थिति आ गयी है।परन्तु अतिथि-सेवा भी आवश्यक है।अतः उन्होने भगवान का स्मरण एवं अत्रिमुनि का ध्यान करके कहा कि हे प्रभुवर ! यदि मेरा पातिव्रत धर्म सत्य एवं अखण्ड है तो ये तीनो साधु छः छः महीने के शिशु बन जायँ।इतना कहते ही वे तीनो शिशु बन गये।माता अनसूया ने तीनो को अपना स्तनपान कराया।तीनो शिशु वहीं रहन लगे।कुछ दिनो बाद लक्ष्मी आदि को नारद जी के द्वारा सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्ञात हुआ।वे तीनों देवियाँ माता अनसूया के पास गयीं और उनके चरणों मे गिरकर क्षमायाचना करने लगीं।माता जी को दया आ गयी और उन्होने तीनो शिशुओं को पुनः ब्रह्मा ; विष्णु और महेश बना दिया।उस समय तीनो देवों ने अनसूया से वर माँगने को कहा।अनसूया जी ने तीनो को पुत्ररूप मे माँगा।तीनो देवों ने एवमस्तु कह दिया।कालान्तर मे अनसूया को ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा ; शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय जी पुत्ररूप मे प्राप्त हुए।बड़े होने पर दत्तात्रेय जी का विवाह नदी नामक कन्या के साथ हुआ ; जो साक्षात् लक्ष्मी की अवतार थीं।
भगवान दत्तात्रेय जी अनेक नामो से प्रसिद्ध हैं।समस्त प्राणियों का अज्ञान नष्ट करके उनके हृदय मे ज्ञान का प्रकाश फैलाने के कारण उन्हें " गुरुदेव " या सद्गुरु कहा जाता है।इनके अवतार की परिसमाप्ति न होने के कारण इन्हें " अविनाश " कहा जाता है।ये समस्त सिद्धों के अधिपति होने के कारण " सिद्धराज " कहलाते हैं।इन्हे योगविद्या का असाधारण ज्ञान था।इसीलिए इनको योगिराज कहा जाता है।धर्म का साक्षात्कार होने के कारण इन्हे धर्मविग्रही कहा जाता है।
दिव्यशक्ति - सम्पन्न --
भगवान दत्तात्रेय जी अवधूत विद्या के परमाचार्य एवं अनेक दिव्यशक्तियों से सुसम्पन्न थे।दत्तात्रेय वज्रकवच मे कहा गया है कि ये प्रातःकाल वाराणसी मे स्नान और कोल्हापुर के देवी-मन्दिर मे जप-ध्यान करते थे।माहुरीपुर ( मातापुर ) मे भिक्षाग्रहण करते थे और सह्याद्रि मे विश्राम करते थे।गिरनार इनका सिद्धपीठ है।इनकी गुरुचरण-पादुकायें वाराणसी ; आबूपर्वत आदि अनेक स्थानों पर विद्यमान हैं।
दत्तात्रेय के गुरु --
दत्तात्रेय जी विद्या के महान प्रेमी थे।उन्होने चौबीस गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी। उनके गुरुओं के नाम इस प्रकार हैं -- पृथ्वी ; वायु ; आकाश ; जल ; अग्नि ; चन्द्रमा ; सूर्य ; कबूतर ; अजगर ; समुद्र ; पतंग ; मधुमक्खी ; हाथी ; मधु निकालने वाला ; हिरन ; मछली ; पिंगला नामक वेश्या ; कुररी पक्षी ; बालक ; कुमारी कन्या ; बाण-निर्माता ; सर्प ; मकड़ी और भृंगी कीट।
दत्तात्रेय के शिष्य --
दत्तात्रेय जी एक महान गुरु थे।उन्होने कार्तिकेय ; गणेश ; परशुराम ; प्रह्लाद ; राजा यदु ; अलर्क ; पुरूरवा ; कार्तवीर्य आदि को उपदेश दिया था।बाद मे श्रीसन्त ज्ञानेश्वर ; श्रीजनार्दन स्वामी ; संत एकनाथ ; श्रीसंत दासोपन्त ; श्री संत तुकाराम ; शंकराचार्य ; गोरक्षनाथ ; नागार्जुन आदि को भी इनकी कृपा प्राप्त हुई थी।
सम्प्रदाय --
भगवान दत्तात्रेय के अनुयायिओं की संख्या बहुत अधिक थी।उनकी शिक्षाओं के आधार पर अनेक सम्प्रदाय प्रचलित हुए।उन सम्प्रदायों मे दासोपन्त ; महानुभाव ; गोसाईं ; गुरुचरित्र ; दत्त-सम्प्रदाय आदि विशेष प्रसिद्ध हैं।