अबाधक-व्रत का आरम्भ किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि से किया जा सकता है।इस व्रत के सुप्रभाव से समस्त बाधायें नष्ट हो जाती हैं।इसलिए इसे अबाधक-व्रत कहा जाता है।
कथा --
भगवान श्रीकृष्ण एवं बलराम जी संदीपनि मुनि के यहाँ अध्ययन करते थे।उनका अध्ययन जब पूरा हो गया तब उन्होंने अपने गुरुदेव से गुरुदक्षिणा माँगने का अनुरोध किया।गुरुदेव ने कहा कि हे प्रभो ! मेरा पुत्र प्रभासक्षेत्र जा रहा था तभी समुद्र मे किसी जीव ने उसकी हत्या कर दी।अतः मुझे गुरुदक्षिणा के रूप मे उसी पुत्र की प्राप्ति कराइये।श्रीकृष्ण ने यमलोक से गुरुपुत्र को लाकर गुरुदेव को समर्पित कर दिया।जब वे चलने लगे तब गुरुदेव ने कहा कि आप दोनो यहीं अपने चरण-चिह्न भी अंकित कर दीजिए।उन दोनो ने अपनै गुरु की आज्ञानुसार चरण-चिह्न अंकित कर दिये।आज भी वहाँ बलराम के दाहिने पैर का ; मध्य मे सर्वमंगला का और कृष्ण के वाम पैर का चिह्न अंकित है।वहाँ इन्हीं का पूजन होता है।
विधि ---
व्रती को चाहिए कि वह किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।इस व्रत मे एकभुक्त ; नक्तव्रत अथवा उपवास मे से कोई भी ग्रहण किया जा सकता है।पूजन हेतु सुवर्ण अथवा मृत्तिका-निर्मित बलराम ; श्रीकृष्ण एवं सर्वमंगला दुर्गादेवी की प्रतिमा स्थापित करे।उनका गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से विधिवत् पूजन करे।फिर अपने संकल्पित व्रतानुसार पारणा करे।
माहात्म्य ---
यह व्रत भगवान श्रीकृष्ण से सम्बन्धित होने के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण है।जो व्यक्ति इस व्रत को करता है ; उसे जीवन मे किसी भी प्रकार की बाधा या संकट का सामना नहीं करना पड़ता है।वह समस्त पापों से मुक्त होकर सुखमय जीवन व्यतीत करता है।अन्त मे मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग मे निवास करता है।
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