श्रीपञ्चमी - व्रत मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को किया जाता है।इसमे श्री अर्थात् लक्ष्मी - पूजन की प्रधानता होने के कारण इसे श्रीपञ्चमी कहा जाता है।
कथा ---
प्राचीन काल मे महर्षि भृगु की पत्नी " ख्याति " से लक्ष्मी जी का आविर्भाव हुआ।युवा होने पर लक्ष्मी का विवाह भगवान विष्णु के साथ हुआ।इससे देवगण भी सुखी ; सम्पन्न और आनन्दित हो गये।उनकी सम्पन्नता को देखकर दैत्यगण भी लक्ष्मी - प्राप्ति के लिए तप करने लगे।उधर देवताओं को लक्ष्मी का मद हो गया।वे अनाचार मे लिप्त हो गये।अतः लक्ष्मी जी दैत्यों के पास चली गयीं।कुछ दिनों बाद दैत्यों को भी अहंकार हो गया।अतः लक्ष्मी जी क्षीरसागर मे प्रविष्ट हो गयीं।
एक बार देवराज इन्द्र ने अपने गुरु बृहस्पति से किसी ऐसे व्रत के विषय मे पूछा ; जिसे करने से स्थिर लक्ष्मी जी की प्राप्ति हो जाय।गुरुदेव बृहस्पति ने उन्हें श्रीपञ्चमी - व्रत करने कहा।इन्द्र ने उस व्रत का विधिवत् अनुष्ठान किया।बाद मे विष्णु आदि अन्य देवों ने भी उस व्रत को किया।इसी व्रत के प्रभाव से समुद्र - मन्थन से प्रकट होने वाली लक्ष्मी ने विष्णु का वरण किया और इन्द्र को स्वर्गलोक का राज्य प्राप्त हुआ।
विधि ---
व्रती को चाहिए कि वह मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पञ्चमी को नित्यकर्म से निवृत्त होकर देवपूजन एवं पितृतर्पण करे।फिर सुवर्ण रजत अथवा ताम्र से निर्मित लक्ष्मी - प्रतिमा स्थापित करे।यह प्रतिमा कमलासना ; कमललोचनी एवं सर्वाभरणभूषिता होनी चाहिए।उनके दोनो हाथों मे कमल - पुष्प हों।चार श्वेत हाथी सुवर्णकलशों के जल से उनका अभिषेक कर रहे हों।ऐसी दिव्य प्रतिमा के समस्त अंगों का पूजन इस प्रकार करें ---
ऊँ चपलायै नमः पादौ पूजयामि ; ऊँ चञ्चलायै नमः जानुनी पूजयामि ; ऊँ कमलवासिन्यै नमः कटिं पूजयामि ; ऊँ ख्यात्यै नमः नाभिं पूजयामि ; ऊँ मन्मथवासिन्यै नमः स्तनौ पूजयामि ; ऊँए ललितायै नमः भुजद्वयं पूजयामि ; ऊँ उत्कण्ठितायै नमः कण्ठं पूजयामि ; ऊँ माधव्यै नमः मुखमण्डलं पूजयामि ; ऊँ श्रियै नमः शिरः पूजयामि।
इस प्रकार सर्वाङ्ग पूजन करने के बाद उन्हें नैवेद्य अर्पित करे।तदनन्तर सुवासिनी स्त्रियों का पूजन कर उन्हें भोजन कराये।चावल और घृतपूर्ण पात्र ब्राह्मण को दान कर "श्रीशः सम्प्रीयताम् " कहकर प्रार्थना करे।फिर मौन धारण कर भोजन करे।
इस व्रत को इसी विधि से एक वर्ष तक करे।प्रत्येक मास मे क्रमशः श्री ; लक्ष्मी ; कमला ; सम्पत् ; रमा ; नारायणी ; पद्मा ; धृति ; स्थिति ; पुष्टि ; ऋद्धि एवं सिद्धि -- इन बारह नामो से लक्ष्मी जी का पूजन करे।बारहवें महीने की पञ्चमी को मण्डप बनाकर सुन्दर सुसज्जित शय्या पर लक्ष्मी का पूजन करे।फिर सवत्सा गौ सहित मूर्ति को किसी सुपात्र ब्राह्मण को दान करे।यथाशक्ति ब्राह्मण - भोजन कराये।इस प्रकार व्रत का समापन करे।
माहात्म्य ---
इस व्रत का माहात्म्य बहुत अधिक है।जो इस व्रत को करता है ; वह धन-धान्य ; सुख-समृद्धि ; स्त्री-पुत्र आदि का पूर्ण सुख प्राप्त करता है।उसके घर मे लक्ष्मी का स्थायी निवास हो जाता है।अन्त मे उसे लक्ष्मीलोक की प्राप्ति होती है।यदि इस व्रत को कोई स्त्री करे तो वह अखण्ड सौभाग्य ; रूप ; पुत्र-पौत्र ; धन-सम्पत्ति से परिपूर्ण होकर पतिप्रिया बन जाती है।
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