Sunday, 20 December 2015

विभूति-द्वादशी-व्रत

          भगवान विष्णु सम्बन्धी अनेकानेक व्रतों मे विभूति-द्वादशी-व्रत का महत्वपूर्ण स्थान है।इसे चैत्र ; वैशाख ; आषाढ़ ; कार्तिक ; मार्गशीर्ष अथवा फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को किया जाता है।इसे करने से मनुष्य को नाना प्रकार की विभूतियों की प्राप्ति हो जाती है।इसीलिए इसे विभूति-द्वादशी- व्रत कहा जाता है।

कथा --

            एक बार देवर्षि नारद ने नन्दिकेश्वर जी से किसी ऐसे व्रत के विषय मे जिज्ञासा व्यक्त की ; जिसे करने से मनुष्य सर्वविध विभूति एवं ऐश्वर्य प्राप्त कर सके।उस समय नन्दिकेश्वर जी ने विभूति-द्वादशी-व्रत करने का निर्देश किया था।

विधि ---

           व्रत करने के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह उपर्युक्त किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को स्वल्पाहार करे।सायंकालीन सन्ध्या से निवृत्त होकर इस प्रकार संकल्प करे --" हे प्रभो ! मै एकादशी को निराहार रहकर भगवान जनार्दन की विधिवत् पूजा करूँगा और द्वादशी को ब्राह्मणों के संग भोजन करूँगा।हे केशव ! मेरा यह व्रत निर्विघ्न सम्पन्न हो जाय और पूर्ण फलदायक हो।" इसके बाद " ऊँ नमो नारायणाय " मंत्र का जप करते हुए सो जाय।
           दूसरे दिन एकादशी को प्रातः स्नानादि करके श्वेत पुष्पों की माला और चन्दन आदि से भगवान पुण्डरीकाक्ष का सर्वाङ्ग पूजन इस प्रकार करे -- ऊँ विभूतये नमः पादौ पूजयामि से दोनो चरणों की ; अशोकाय नमः जानुनी पूजयामि से दोनो जानुओं की ; शिवाय नमः ऊरू पूजयामि से उरुओं की ; विश्वमूर्ते नमः कटिम् पूजयामि से कटि की ; कन्दर्पाय नमः मेढ्रम् पूजयामि से जननेन्द्रिय की ; आदित्याय नमः करौ पूजयामि से हाथों की ; दामोदराय नमः उदरं पूजयामि से उदर की ; वासुदेवाय नमः स्तनौ पूजयामि से स्तनों की ; माधवाय नमः वक्षं पूजयामि से वक्षस्थल की ; उत्कण्ठिने नमः कण्ठं पूजयामि से कण्ठ की ; श्रीधराय नमः मुखं पूजयामि से मुख की ; केशवाय नमः केशान् पूजयामि से केशों की ; शार्ङ्गधराय नमः पृष्ठं पूजयामि से पीठ की ; वरदाय नमः श्रवणौ पूजयामि से कानों की ; सर्वात्मने नमः शिरः पूजयामि से शिर की पूजा करे।इसके बाद " शंखचक्रासिगदाजलजपाणये नमः " कहकर अपना नाम लेते हुए प्रणाम करे।
          इसके बाद मूर्ति के समक्ष कलश स्थापित करे।उसके ऊपर तिल-गुड़ से परिपूर्ण एवं श्वेत वस्त्र से परिवेष्टित पात्र रखे।पात्र पर सुवर्ण-निर्मित कमल सहित मत्स्य - प्रतिमा स्थापित करे।कथा - श्रवण करते हुए रात्रि- जागरण करे।दूसरे दिन प्रातः सभी वस्तुयें ब्राह्मण को दान कर दे।फिर भगवान से प्रार्थना करे --

यथा न मुच्यसे देव सदा सर्वविभूतिभिः।
तथा मामुद्धराशेषदुःखसंसारकर्दमात् ।।

         इसके बाद ब्राह्मणों के संग भोजन करे।इस प्रकार बारह महीने क्रमशः विष्णु जी के दश अवतारों ; दत्तात्रेय एवं व्यास जी की स्वर्णमयी मूर्ति को स्वर्णमय कमल सहित दान करे।अथवा यथाशक्ति दान करे।वर्ष के अन्त मे गुरु को लवण-पर्वत के साथ गौसहित शय्यादान करे और ब्राह्मण-भोजन कराये।

माहात्म्य --

          यद्यपि यह व्रत बहुत कष्टसाध्य एवं व्ययसाध्य है किन्तु इसका माहात्म्य बहुत अधिक है।इसे करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।उसकी एक सौ पीढ़ियाँ तर जाती हैं।उसे जन्म-जन्मान्तर तक रोग ; शोक ; आधि-व्याधि ; दरिद्रता ; बन्धन आदि का कष्ट नहीं होता है।प्रत्येक जन्म मे उसके हृदय मे भगवान विष्णु और शिव जी की भक्ति का प्रादुर्भाव होता है।अन्त मे वह अनन्तकाल तक स्वर्गलोक मे निवास करता है।पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक मे जन्म लेकर राजा बनता है।

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