Sunday, 20 December 2015

श्रीमद्भगवद्गीता

          सनातन धर्म मे श्रीमद्भगवद्गीता का असीम महत्व है।अतः इसके विषय मे चर्चा करना नितान्त आवश्यक है।गीता का अर्थ है -- गायी हुई।अर्थात् योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द द्वारा गायी हुई उपदेशावली को ही श्रीमद्भगवद्गीता कहा जाता है।यह भगवान के मुखारविन्द से निःसृत हुई है।इसलिए इसकी वेदवत् प्रतिष्ठा है।इसमे सम्पूर्ण वेदों का सार संग्रहीत है।भगवान के गुण ; प्रभाव एवं मर्म का जैसा सुन्दर वर्णन इस ग्रन्थ मे हुआ है ; वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।इसके प्रत्येक शब्द मे गम्भीरातिगम्भीर सदुपदेश निहित हैं।इसीलिए महर्षि वेदव्यास का कथन है कि यह गीता सुगीता करने योग्य है।अर्थात् स्वयं श्रीपद्मनाभ विष्णु के मुखारविन्द से निकली हुई इस गीता को जो व्यक्ति विधिवत् पढ़कर अर्थ और भाव सहित अन्तःकरण मे धारण कर ले तो अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ? इसका अभिप्राय यह है कि जिसने गीता का विधिवत् अध्ययन एवं धारण कर लिया है ; उसे अन्य विस्तृत शास्त्रों को पढ़ने की आवश्यकता ही नही है --

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ।।
          
           श्रीमद्भगवद्गीता को गीतोपनिषद् भी कहा जाता है।इसमे सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान के सार को अत्यन्त सरल एवं रोचक शैली मे प्रस्तुत किया गया है।इसमे जिस योगपद्धति का वर्णन हुआ है ; उसे सर्वप्रथम सूर्यदेव की बतलाया गया था।बाद मे सूर्यदेव ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु को बतलाया और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को बतलाया।इस प्रकार गुरु - परम्परा से यह योगपद्धति निरन्तर आगे बढ़ती रही।परन्तु कालान्तर मे यह छिन्न-भिन्न हो गयी।इसीलिए श्रीकृष्ण ने पुनः अर्जुन को बतलाया।उन्होंने अर्जुन को इसलिए बतलाया क्योंकि वह उनका मित्र एवं भक्त था।अतः स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ विशेष रूप से भगवद्भक्तों के लिए है।
          गीता ब्रह्मविद्या है।जिस व्यक्ति को इसका परिज्ञान हो जाता है ; वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर कृष्ण - सायुज्य को प्राप्त कर लेता है।इस ग्रन्थ मे भक्तियोग ; ज्ञानयोग और कर्मयोग की जैसी सुन्दर व्याख्या उपलब्ध है ; वैसी अन्यत्र दुर्लभ है।भगवान श्रीकृष्ण ने योग के विविध रूपों और उनसे प्राप्त होने वाली उपलब्धियों को अत्यन्त सरल शब्दावली मे प्रस्तुत किया है।यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि श्रीकृष्ण कोई साधारण राजकुमार नहीं ; बल्कि परम ब्रह्म हैं।अतः उनके मुखारविन्द से निःसृत प्रत्येक शब्द प्रामाणिक एवं सर्वमान्य हैं।
           गीता से हमे यह शिक्षा मिलती है कि प्रत्येक व्यक्ति को यथोचित आचरण करना चाहिए।किसी को स्वेच्छाचारी बनने की स्वतन्त्रता नहीं है।जो व्यक्ति शास्त्रीय विधि का परित्यागकर अपनी इच्छानुसार आचरण करता है ; वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परम गति को ही।अतः कर्तव्याकर्तव्य व्यवस्था मे शास्त्रीय विधि से ही कर्म करना चाहिए।साथ ही काम ; क्रोध ; लोभ ; मोह आदि का सर्वथा त्याग करते हुए सभी प्राणियों मे भगवद्बुद्धि रखते हुए अपने कर्तव्य-पथ पर निरन्तर अग्रसर रहें और समस्त कर्मों को भगवान को समर्पित कर उन्हीं की शरण मे चला जाय।जो व्यक्ति ऐसा करता है ; वह दिव्य - सम्पत्ति का अधिकारी बन जाता है।
             इस ग्रन्थ से यह भी शिक्षा मिलती है कि संसार के समस्त जड़ - चेतन पदार्थों मे भगवान का वास है।अतः सभी के साथ समता का व्यवहार करना चाहिए।किसी के साथ वैर-विरोध का भाव न रखे।सभी के साथ मनसा वाचा कर्मणा प्रीतिपूर्ण व्यवहार करे।सदैव सत्य ; अहिंसा ; परोपकार ; पवित्रता ; गुरुजनों की सेवा आदि सत्कर्मों मे लगा रहे।इसी मे अपना और दूसरों का भी कल्याण निहित है।
           अन्त मे सारांश स्वरूप कहा जा सकता है कि गीता समस्त उपनिषदों का सार है।ये उपनिषदें गाय के समान हैं ; जिनको दुहने वाले गोपाल - नन्दन श्रीकृष्ण हैं।अर्जुन बछड़े के समान है क्योंकि श्रीकृष्ण ने उपनिषद रूपी गाय को दुह कर  ( गीतोपदेश रूपी ) दुग्ध को अर्जुन को ही पहिले पिलाया था।अन्य विद्वान एवं भक्तगण गीता के अमृतमय दुग्ध का पान करने वाले हैं।अतः देवकीपुत्र श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निःसृत गीता ही एकमात्र शास्त्र है।श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं।जिसमे उनके कृष्ण ; गोविन्द ; माधव आदि पवित्र नाम हों ; वही एकमात्र मंत्र है।उनकी सेवा ही एकमात्र कर्म है।

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