इस व्रत को मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को किया जाता है।इसे सर्वप्रथम रम्भा ने किया था ; इसीलिए इसे रम्भातृतीया - व्रत कहा जाता है।इस व्रत की अवधि एक वर्ष की है।अतः प्रत्येक मास की शुक्ला तृतीया को किया जाता है।
कथा ---
एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव जी से किसी ऐसे व्रत के विषय मे जानना चाहा ; जिसे करने से सपत्नियों से उत्पन्न क्लेश की शान्ति एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति हो सके।उस समय शिव जी ने रम्भातृतीया - व्रत का उल्लेख किया था।
विधि ---
इस व्रत को स्त्री और पुरुष दोनो कर सकते हैं।व्रती को चाहिए कि वह मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्रत ग्रहण करने के लिए माता पार्वती से इस प्रकार प्रार्थना करें ---
देवि संवत्सरं यावत्तृतीयायामुपोषिता ।
प्रतिमासं करिष्यामि पारणं चापरेऽहनि।
तदविघ्नेन मे यातु प्रसादात् तव पार्वति ।।
इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद पार्वती जी का विधिवत् पूजन करे।दिन भर उपवास करते हुए रात्रि मे कुशोदक पान करे।दूसरे दिन प्रातः ब्राह्मण-भोजन कराये।दक्षिणा मे सुवर्ण और लवण प्रदान करे।भगवान शिव जी को नैवेद्य अर्पित करने के बाद स्वयं भी भोजन करे।
इस व्रत को मार्गशीर्ष मास से आरम्भ करके एक वर्ष पर्यन्त किया जाता है।प्रत्येक मास की शुक्ला तृतीया को भिन्न-भिन्न नामों से पार्वती जी का पूजन करना चाहिए।पौष मास मे पार्वती नाम से ; माघ मे सुदेवी ; फाल्गुन मे गौरी ; चैत्र मे विशालाक्षी ; वैशाख मे श्रीमुखी ; ज्येष्ठ मे श्रीमुखी ; आषाढ़ मे माधवी ; श्रावण मे श्रीदेवी ; भाद्रपद मे हरताली ; आश्विन मे गिरिपुत्री ; कार्तिक मे पद्मोद्भवा नाम से पार्वती जी का पूजन करना चाहिए।साथ ही प्रत्येक मास मे रात्रि के समय क्रमशः कुशोदक ; गोमूत्र ; गोमय ; गोदुग्ध ; गोदधि ; गोघृत ; घृत ; तिलोदक ; गोश्रृङ्गजल ;
महिषी-दुग्ध ; तण्डुल मिश्रित जल और पञ्चगव्य का प्राशन करना चाहिए।एक वर्ष के बाद विधिवत उद्यापन करे।
माहात्म्य ---
इस व्रत को करने से मनुष्य के सभी पाप निर्मूल हो जाते हैं।उसे धन-धान्य ; पुत्र-पौत्र आदि का पूर्ण सुख प्राप्त होता है।यह व्रत सब प्रकार की व्याधियों को शमन करने वाला एवं सौभाग्य प्रदान करने वाला है।यदि किसी को सपत्नीजन्य क्लेश हो तो वह अविलम्ब दूर हो जाता है।इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य सुखी ; सम्पन्न ; पुण्यात्मा एवं ऐश्वर्यवान हो जाता है।
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