अखण्डद्वादशी - व्रत मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को किया जाता है।इसे करने से खण्डित व्रतानुष्ठानादि का भी अखण्ड- फल प्राप्त हो जाता है।इसीलिए इसे अखण्डद्वादशी - व्रत कहा जाता है।
कथा --
एक बार महाराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा कि व्रत ; उपवास ; यज्ञ ; अनुष्ठान आदि मे कोई त्रुटि हो जाय तो उसका क्या फल होता है।साथ ही उसके निवारण का उपाय क्या है।इस पर श्रीकृष्ण ने बतलाया कि उपर्युक्त कार्यों मे त्रुटि हो जाने पर लोग अंधे काने लूले लँगड़े हो जाते हैं।स्त्री-पुरुषों मे वियोग एवं दुर्भगत्व हो जाता है।उसे अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है।अतः इन कार्यों मे कोई त्रुटि हो जाय तो दोष-निवारण हेतु उसे अखण्डद्वादशी का व्रत करना चाहिए।
विधि ---
व्रत करने के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को प्रातःस्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्रत एवं जनार्दन - पूजन का संकल्प ले।फिर उपवास - पूर्वक भगवान जनार्दन का गन्ध ; अक्षत ; पुष्प ; धूप ; दीप ; नैवेद्य ; नीराजन ; पुष्पाञ्जलि आदि द्वारा षोडशोपचार पूजन करे।पञ्चगव्य मिश्रित जल से स्नान करके जौ एवं धान से परिपूर्ण पात्र किसी सुपात्र ब्राह्मण को प्रदान करे।उसके बाद भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करे --
सप्तजन्मनि यत्किंचिन्मया खण्डव्रतं कृतम्।
भगवन् त्वत्प्रसादेन तदखण्डमिहास्तु मे।।
यथाखण्डं जगत् सर्वं त्वयैव पुरुषोत्तम ।
तथाखिलान्यखण्डानि व्रतानि मम सन्तु वै।।
इसके बाद पारणा करे। इस प्रकार एक वर्ष तक प्रत्येक मास की शुक्ला द्वादशी को व्रत करना चाहिए।इसमे चार-चार मास पर पारणा करने का विधान है।अतः दूसरी पारणा चैत्र मे और तीसरी श्रावण मे करनी चाहिए।वर्ष पूर्ण हो जाने पर बारह ब्राह्मणों को खीर का भोजन कराये।वस्त्राभूषण देकर त्रुटियों के निवारण हेतु क्षमायाचना करे।
माहात्म्य --
इस व्रत का प्रथम महत्व यही है कि पहले किये हुए किसी भी व्रतानुष्ठानादि की त्रुटियों से उत्पन्न होने वाले सभी दोष समाप्त हो जाते हैं।साथ ही अग्रिम सात जन्मों तक जो भी व्रतानुष्ठानादि किये जायेंगे ; वे सभी पूर्ण फलदायक होंगे।इस व्रत को स्त्री-पुरुष कोई भी कर सकता है।
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