Saturday, 26 December 2015

अष्टका - श्राद्ध

           अपने पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले कर्मविशेष को श्राद्ध कहा जाता है।शास्त्रों मे श्राद्ध के तीन भेद हैं -- नित्य ; नैमित्तिक और काम्य।परन्तु यमस्मृति मे नित्य ; नैमित्तिक ; काम्य ; वृद्धि एवं पार्वण नामक पञ्चविध श्राद्धों का उल्लेख हुआ है।प्रतिदिन किये जाने वाले श्राद्ध को नित्यश्राद्ध ; एकोदिष्टश्राद्ध को नैमित्तिकश्राद्ध ; कामना-पूर्ति हेतु किये जाने वाले को काम्यश्राद्ध ; पुत्रजन्म आदि अवसरों पर किये जाने वाले को वृद्धिश्राद्ध तथा पितृपक्ष आदि मे किये जाने वाले को पार्वण श्राद्ध कहा जाता है।
           धर्मसिन्धु मे 96 ऐसे अवसरों का उल्लेख हुआ है ; जब श्राद्ध करना चाहिए।ये अवसर इस प्रकार हैं --

अमायुगमनुक्रान्तिधृतिपातमहालयाः ।
अष्टकाऽन्वष्टका पूर्वेद्युः श्राद्धैर्नवति षट् ।।

           अर्थात् वर्ष भर की बारह अमावस्यायें ; चार युगादि तिथियाँ ; चौदह मन्वादि तिथियाँ ; बारह संक्रान्तियाँ ; बारह वैधृति योग ; बारह व्यतिपात् योग ; पितृ पक्ष की पन्द्रह महालय श्राद्ध ; पाँच अष्टका ; पाँच अन्वष्टका ; तथा पाँच पूर्वेद्युः -- ये 96 ऐसे अवसर हैं ; जब श्राद्ध किये जाते हैं।
           शास्त्रों मे बताया गया है कि मार्गशीर्ष की पूर्णिमा के पश्चात् पौष कृष्ण पक्ष की अष्टमी अष्टका है।इसी प्रकार पौष आदि तीन महीनो अर्थात् पौष ; माघ तथा फाल्गुन की कृष्णा अष्टमी अष्टका है।आश्वलायन के अनुसार हेमन्त और शिशिर ऋतुओं के चार महीनो की अष्टमी अथवा एक मास की अष्टमी अष्टका कहलाती है।कुछ स्थानो पर पाँच अष्टका का उल्लेख हुआ है।उसमे हेमन्त तथा शिशिर ऋतुओं के चार महीनो की चार कृष्णाष्टमी तथा पाँचवीं भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की गणना की गयी है।
          अष्टका श्राद्ध के लिए अपराह्न - व्यापिनी अष्टमी ली जाती है।परन्तु मार्गशीर्ष आदि मास मे मलमास पड़ जाय तो अष्टकाश्राद्ध नही करना चाहिए।शास्त्रों मे अष्टका की अनिवार्यता प्रतिपादित की गयी है।जो व्यक्ति इसे नहीं करते हैं ; उन्हें भारी क्षति उठानी पड़ती है।अतः सभी को अष्टकाश्राद्ध करना चाहिए।

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