यह व्रत मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाता है।इसमे उमा और महेश्वर के पूजन की प्रधानता होने के कारण इसे उमामहेश्वर - व्रत कहा जाता है।
कथा --
इस व्रत का प्रचार माता पार्वती जी ने दुर्भगा ; कुरूपा एवं निर्धन स्त्रियों की हितकामना से किया था।बाद मे सीता ; अहल्या ; रोहिणी ; दमयन्ती ; तारा ; अनसूया आदि ने भी इस व्रत का लाभ उठाया था।
विधि ---
व्रत करने की इच्छुक स्त्री को चाहिए कि वह मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को गंगा आदि पवित्र नदियों मे स्नान कर व्रत का संकल्प ले।फिर निम्नलिखित मंत्र से शिव - पार्वती को प्रणाम करे ---
नमो नमस्ते देवेश उमादेहार्धधारक ।
महेदेवि नमस्तेऽस्तु हरकायार्धवासिनि ।।
घर वापस आकर शरीर - शुद्धि हेतु पञ्चगव्य का पान करे।उसके बाद शुभासन पर बैठकर भगवान शिव एवं पार्वती की प्रतिमा स्थापित करे।उनकी प्राणप्रतिष्ठा करके सुन्दर गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से षोडशोपचार पूजन करे।शिव सम्बन्धी स्तोत्रों का पाठ एवं प्रार्थना करे।अन्त मे पुष्पाञ्जलि अर्पित करे।
इसी प्रकार बारह महीनों तक व्रत एवं पूजन करने बाद उद्यापन करे।उद्यापन के समय शिव जी की चाँदी की ; और पार्वती जी की सुवर्ण की प्रतिमा बनवाकर चाँदी के वृषभ पर स्थापित कर विधिवत् पूजन कर ब्राह्मण को दान करना चाहिए।
माहात्म्य ---
यह व्रत बहुत महत्वपूर्ण एवं पुण्यफल - दायक है।इसे करने वाली स्त्री एक कल्प तक भगवान शिव के पास निवास करती है।बाद मे मृत्युलोक मे उत्तम कुल मे जन्म लेती है।वह धन-धान्य ; रूप-यौवन ; पुत्र-पौत्र ; सुख-समृद्धि आदि से परिपूर्ण रहती है।उसे समस्त सांसारिक सुखों की प्राप्ति होती है।वह दीर्घकाल तक अपने पति के साथ सुखों का भोगकर अन्त मे शिव-सायुज्य को प्राप्त करती है।
No comments:
Post a Comment