किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की अन्तिम तिथि को पूर्णिमा कहा जाता है।इस दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है।इसलिए इसे पौर्णमासी कहा जाता है।यहाँ मास का अर्थ चन्द्रमा है।अतः जिस तिथि को चन्द्रमा पूर्ण प्रकाशमान होता है ; उस तिथि को पौर्णमासी या पूर्णिमा कहा जाता है।
पूर्णिमा को सूर्य और चन्द्रमा ठीक आमने -सामने होते हैं ।अर्थात् दोनो ग्रह परस्पर सातवीं राशि पर 180 अंश के अन्तर पर स्थित होते हैं।जैसे सूर्य मेष राशि के जिस अंश पर होगा ; चन्द्रमा तुला राशि के उसी अंश पर होगा।पूर्णिमा दो प्रकार की होती है -- अनुमति पूर्णिमा और राका पूर्णिमा।जो पूर्णिमा रात्रि को एक कलाहीन ; दिन मे पूर्ण चन्द्र से युक्त और चतुर्दशी युक्त होती है ; उसे अनुमति पूर्णिमा कहा जाता है।जो पूर्णिमा रात्रि मे पूर्ण चन्द्रमा से युक्त तथा प्रतिपदा से युक्त होती है ; उसे राका पूर्णिमा कहा जाता है।व्रत मे चन्द्रोदय - व्यापिनी पूर्णिमा ली जाती है।
कथा --
पूर्णिमा तिथि को ही चन्द्रमा को तारा के गर्भ से बुध नामक पुत्र की प्राप्ति हुई थी।इसलिए पूर्णिमा उन्हें बहुत प्रिय है।
विधि --
व्रत करने के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह पूर्णिमा को प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।किसी चौकी आदि पर एक मण्डल की रचना करे।उसमे नक्षत्रों सहित चन्द्रमा को अंकित करे।फिर श्वेत गन्ध अक्षत श्वेत पुष्प श्वेत वस्त्र धूप दीप नैवेद्य आदि से विधिवत् पूजा करे।क्षमा-प्रार्थना करे।चन्द्रोदय होने के बाद इस मंत्र से चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करे --
वसन्तबान्धव विभो शीतांशो स्वस्ति नः कुरु ।
गगनार्णवमाणिक्य चन्द्र दाक्षायिणीपते ।।
इसके बाद रात्रि मे मौन होकर शाक और तिन्नी चावल का भोजन करे।इस प्रकार एक वर्ष तक व्रत करके नक्षत्र सहित चन्द्रमा की सुवर्ण प्रतिमा बनवाकर वस्त्राभरण सहित ब्राह्मण को दान करे।यदि हो सके तो इस व्रत को निरन्तर करता रहे अथवा एक बार करके उद्यापन कर दे।
माहात्म्य --
इस व्रत को करने वाला व्यक्ति सभी पापों से मुक्त होकर सदैव चन्द्रमा की भाँति सुशोभित रहता है।वह दीर्घकाल तक पुत्र पौत्र धन-धान्य आरोग्य आदि से युक्त रहते हुए समस्त सांसारिक सुखों का भोग करता है।अन्त मे विष्णुलोक को प्राप्त करता है।इस व्रत को करने वाला व्यक्ति को धन-धान्य सन्तान आदि से कभी च्युत नही होता है।
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