Tuesday, 15 December 2015

फलसप्तमी - व्रत

           फलसप्तमी - व्रत मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को किया जाता है।इसमे भगवान सूर्य नारायण के निमित्त फलदान की प्रधानता होने के कारण इसे फलसप्तमी-व्रत कहा जाता है।

विधि ---

          व्रतनिष्ठ व्यक्ति को चाहिए कि वह मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को प्रातः स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्रत एवं सूर्यपूजन का संकल्प ले।सुवर्ण का एक कमल-पुष्प एवं एक पल सुवर्ण की सूर्य - प्रतिमा का निर्माण कराये।फिर गन्ध अक्षत  पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से उनका विधिवत् पूजन करे।दिन भर उपवास करे। सायंकाल मे कमल एवं सूर्यप्रतिमा को " भानुर्मे प्रीयताम् " कहकर ब्राह्मण को दान करे।दूसरे दिन ब्राह्मणों को फलसहित दुग्ध - मिश्रित अन्न का भोजन कराने के बाद स्वयं भी भोजन करे।
           इसी प्रकार एक वर्ष तक प्रत्येक मास के दोनो पक्षों की सप्तमी को व्रत करे।प्रत्येक महीने मे क्रमशः भानु ; अर्क ; रवि ; ब्रह्मा ;सूर्य ; शुक्र ; हरि ; शिव ; श्रीमान् ; विभावसु ; त्वष्टा एवं वरुण -- इन सूर्यनामो का उच्चारण कर दान दे।प्रत्येक नाम के अन्त मे " प्रीयताम् " जोड़ दे।जैसे - " भानूर्मे प्रीयताम् " आदि।दान दी जाने वाली वस्तुओं मे फल अवश्य रहे।
        व्रत की समाप्ति पर वस्त्राभूषण द्वारा ब्राह्मण-दम्पति का पूजन करे और उन्हें स्वर्णकमल सहित शक्कर से परिपूर्ण कलश दान करे।फिर सूर्यदेव की प्रार्थना करे --

यथा न विफलाः कामास्त्वद्भक्तानां सदा रवे।
तथानन्तफलावाप्तिरस्तु मे सप्तजन्मसु ।।

माहात्म्य --

        भगवान सूर्य नारायण से सम्बन्धित व्रतों मे इसकी विशिष्ट महत्ता है।इसे करने वाला व्यक्ति समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।वह सुख-समृद्धि एवं आरोग्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने के बाद अन्त मे सूर्यलोक मे प्रतिष्ठित होता है।उसकी भूत एवं भविष्य की इक्कीस पीढ़ियाँ तर जाती हैं।इस व्रत के विधान को पढ़ने और सुनने से भी परम कल्याण की प्राप्ति होती है।
         

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