श्रवणिका-व्रत मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किया जाता है।इसमे श्रावणी देवियों की पूजा की प्रधानता होने के कारण इसे श्रवणिका व्रत कहा जाता है।श्रावणी उन देवियों को कहा जाता है ; जो मनुष्यों के शुभाशुभ कर्मो को ब्रह्मा जी को श्रवण कराती हैं।ये देवियाँ अन्य देवी-देवताओं की भाँति पूज्या एवं वन्दनीया हैं।
कथा --
एक बार राजा नहुष की पत्नी " जयश्री " महर्षि वसिष्ठ के आश्रम मे गयीं।वहाँ वसिष्ठ की पत्नी अरुन्धती जी मुनि-पत्नियों को भोजन करा रही थीं।जयश्री ने इस आयोजन के विषय मे पूछा।तब अरुन्धती ने बतलाया कि यह श्रवणिका-व्रत है।इसका उपदेश महर्षि वसिष्ठ जी ने किया है।
इसके बाद जयश्री अपने नगर को लौट गयीं।कुछ दिनो बाद वे बहुत अधिक अस्वस्थ हो गयीं।वे मरणासन्न स्थिति मे पहुँच गयीं।उन्हें घोर कष्ट हो रहा था।उसी समय अरुन्धती जी वहाँ आ गयीं।उन्होने राजा को श्रवणिका-व्रत करने का निर्देश दिया।राजा ने अविलम्ब व्रत का आयोजन किया।इस व्रत के प्रभाव से जयश्री की सुखमय मृत्यु हुई और वे इन्द्रलोक को गयीं।
विधि --
व्रती को चाहिए कि वह मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प ले।फिर गन्ध अक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदि से श्रवणिका-देवियों की विधिवत् पूजा करें।उसके बाद बारह ब्राह्मण-दम्पतियों अथवा अपने परिवार के बारह दम्पतियों को बुलाकर उनका विधिवत् पूजन-सत्कार करें।सभी के समक्ष जलपूरित ; पुष्पादि-विभूषित स्वर्णयुक्त बारह कलश रखे।फिर एक कलश उठाकर अपने शिर पर रख ले और उन ब्राह्मणियों से जीवन भर किये गये पापों के विनाश ; सुखमय-मृत्यु-प्राप्ति ; संसार-सागर से पार होने और भगवान के परम-पद की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करे।सभी ब्राह्मणियाँ भी कहें -- ऐसा ही हो।ब्राह्मण उस कलश को व्रती के शिर से उतार ले और आशीर्वाद दे।इसी प्रकार सभी ब्राह्मणियों को कलश प्रदान करे।इसके बाद उन्हें भोजन एवं दक्षिणा द्वारा सन्तुष्ट करे।इसी प्रकार एक वर्ष तक व्रत करके उद्यापन करे।
माहात्म्य --
यह व्रत बहुत पुण्यदायक एवं महत्वपूर्ण है।जो व्यक्ति इस व्रत को करता है; उसे मृत्युकाल मे कोई कष्ट नहीं होता है।मृत्यु के पश्चात् उसे यमलोक की यातनाओं का सामना नहीं करना पड़ता है।उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और मृत्यु के बाद उसे भगवान का परम-पद प्राप्त होता है।
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