संकष्टी गणेश चतुर्थी का व्रत माघ मास के कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदय-व्यापिनी चतुर्थी को किया जाता है।गणेश जन्म से सम्बन्धित होने के कारण इसे संकष्टी गणेश चतुर्थी कहा जाता है।
कथा --
गणेश जी के जन्म एवं उनके बाल्यावस्था की कुछ घटनायें कई पुराणों मे भिन्न भिन्न रूप मे वर्णित हैं।कहीं पर उनके शिर कटने की घटना शनिदेव के दृष्टिपात से बताई गयी है तो कहीं शिव जी के त्रिशूल-प्रहार से।इसी प्रकार उनकी जन्मतिथि मे भी भिन्नता पाई जाती है।वास्तव मे उनका जन्म कई कल्पों मे हुआ है।इसलिए कल्पभेद के कारण कुछ घटनाओं एवं जन्मतिथि मे अन्तर भी मिलता है।
शिवपुराण के अनुसार किसी कल्प मे गणेश जी का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को चन्द्रोदय के समय हुआ था--
चतुर्थ्यां त्वं समुत्पन्नो भाद्रे मासि गणेश्वर।
असिते च तया पक्षे चन्द्रस्योदयने शुभे ।।
परन्तु किसी अन्य कल्प मे उनका जन्म माघ मास के कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदय-व्यापिनी चतुर्थी को हुआ था --
सर्वदेवमयः साक्षात्सर्वमङ्गलकारकः ।
माघकृष्णचतुर्थ्यान्तु प्रादुर्भूतो गणेश्वरः ।।
इसी आधार पर सम्पूर्ण उत्तर भारत मे माघ कृष्ण चतुर्थी को गणेश जन्म का पर्व मनाया जाता है।
विधि --
इस व्रत को अधिकाँशतः पुत्रवती महिलायें अपने पुत्र की दीर्घायु -प्राप्ति के लिए करती हैं।अतः प्रातः स्नानादि के बाद व्रत का संकल्प लेकर गणेश जी का विधिवत् पूजन करें।दिन भर उपवास करें।सायंकाल मे पुनः स्नान करके चन्द्रोदयकाल मे गन्धाक्षत आदि से गणेश जी की विधिवत् पूजा करें।उसके बाद चन्द्रमा की पूजा करके अर्घ्य प्रदान करें ----
ज्योत्सनापते नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्योतिषां पते।
नमस्ते रोहिणीकान्त गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते ।।
इसमे तिल का भोग लगाया जाता है; जिसे पहार ( उपहार ) कहा जाता है।इसे गणेश-पूजन एवं चन्द्रार्घ्य के समय ढँक कर रख दिया जाता है।दूसरे दिन प्रातः इसे पुत्र खोलता है।बाद मे इसे प्रसाद एवं उपहार के रूप मे घर-परिवार ; भाई-बन्धुओं मे वितरित किया जाता है।इसी प्रकार तिलकुटी एवं वक्रतुण्ड चतुर्थी भी मनाई जाती है।
माहात्म्य ----
इस व्रत को करने सभी संकट दूर हो जाते हैं।पुत्र एवं पति को दीर्घायु की प्राप्ति होती है।व्रती की समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।
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