ललिता-तृतीया-व्रत माघ शुक्ल पक्ष तृतीया को किया जाता है।
कथा ---
एक बार भगवान शिव जी कैलास पर्वत पर विराजमान थे।उस समय माता पार्वती ने उनसे किसी ऐसे तृतीया-व्रत के विषय मे पूछा ; जिसे करने से स्त्रियों को सुख-सौभाग्य आदि की प्राप्ति हो सके।इसके उत्तर मे शिव जी ने इस व्रत का विधान बतलाया था।
विधि --
व्रती प्रातः नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्रत को ग्रहण करे।मध्याह्न के समय बिल्व एवं आमलक-मिश्रित जल से स्नान करे।फिर गन्ध अक्षत आदि से " ईशानी " नाम से माता पार्वती का पूजन करे।ताम्रकलश मे जल अक्षत एवं सुवर्ण डालकर ब्राह्मण को दान दे।ब्राह्मण उसी जल से व्रती महिला का अभिषेक करे।इसके बाद व्रती कुशोदक से आचमन करके रात्रि मे शयन करे।दूसरे दिन पार्वती-पूजन और ब्राह्मण-भोजन कराने के बाद स्वयं आहार ग्रहण करे।
इस प्रकार एक वर्ष तक प्रत्येक शुक्ला तृतीया को व्रत करे।इसमे प्रत्येक महीने क्रमशः ईशानी ; पार्वती ; शंकरप्रिया ; भवानी ; स्कन्दमाता ; दक्षदुहिता ; मैनाकी ; कात्यायनी ; हिमाद्रिजा ; सौभाग्यदायिनी ; उमा और गौरी नामों से पूजन करना चाहिए।साथ ही प्रत्येक महीने मे क्रमशः कुशोदक ; दुग्ध ; घृत ; गोमूत्र ; गोमय ; फल ; निम्बपत्र ; कंटकारी ; गोशृङ्गोदक ; दधि ; पञ्चगव्य और शाक का प्राशन करना चाहिए।वर्षान्त मे ब्राह्मण-दम्पती को पूजन ; भोजन ; दक्षिणा आदि से सन्तुष्ट करना चाहिए।
माहात्म्य --
इस व्रत के प्रभाव से स्त्री को सुख-सौभाग्य ; धन-धान्य ; दीर्घायु-आरोग्य ; पुत्र-पौत्र आदि का पूर्ण सुख प्राप्त होता है।मृत्यु के बाद वह अपने पति के साथ दिव्यलोक मे दीर्घकाल तक सानन्द निवास करती है।जन्मान्तर मे वे दोनो पुनः पति-पत्नी के रूप मे राज-सुख प्राप्त करते हैं।
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