Saturday, 30 January 2016

स्वामी विवेकानन्द

           साहित्य ; दर्शन एवं इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान तथा आध्यात्मिक गुरु के नाम से प्रसिद्ध स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता नगर मे एक सुप्रतिष्ठित कायस्थ परिवार मे हुआ था।इनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था।इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त एवं माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था।

बचपन एवं शिक्षा ---
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         नरेन्द्र के पिता कलकत्ता हाईकोर्ट मे वकील थे।वे पश्चिमी विचारों के समर्थक थे।वे अपने बच्चे को भी अपने जैसा बनाना चाहते थे।परन्तु नरेन्द्र की माता जी बहुत आस्तिक एवं धार्मिक विचारों वाली थीं।उनके घर पर आये दिन कथा-वार्ता होती रहती थी।इसे सुनकर नरेन्द्र ने बचपन मे ही रामायण और महाभारत के अनेक प्रसंग कण्ठस्थ कर लिए थे।
          नरेन्द्र बचपन मे बहुत चंचल ; उद्विग्न एवं हठी प्रकृति के थे।वे प्रत्येक बात को तर्क की कसौटी पर कसने के बाद ही स्वीकार करते थे।वे अपने पिता जी एवं उनके मित्रों के मध्य होने वाली वार्ता मे भी भाग लेते थे।कभी-कभी अपने विचारों एवं तर्कों से सबको आश्चर्य चकित कर देते थे।नरेन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर हुई।बाद मे उन्होने अनेक विद्यालयों मे अध्ययन करते हुए स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की।इस बीच उन्होने भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति का विस्तृत एवं गम्भीर अध्ययन कर पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर लिया।धीरे-धीरे उनके मन मे सत्य को जानने की प्रबल जिज्ञासा जागृत हुई।उन्होने अनेक सन्त-महात्माओं से ईश्वर के अस्तित्व के विषय मे प्रश्न किया किन्तु कहीं पर कोई समाधान नहीं मिला।

रामकृष्ण से भेंट ---
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            नवम्बर 1881 मे वे इसी जिज्ञासा की शान्ति हेतु कोलकाता के समीपस्थ दक्षिणेश्वर मे निवास करने वाले महान सन्त स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिले।वहाँ भी वही प्रश्न किया - क्या आपने ईश्वर को देखा है ? स्वामी जी ने बड़े धैर्य एवं प्यार से उत्तर दिया कि हाँ ; बहुत स्पष्ट एवं प्रगाढ़ रूप मे देखा है।उसके बाद स्वामी जी ने उनकी सभी शंकाओं का समाधान कर दिया।फलतः नरेन्द्र उनके शिष्य बन गये और स्वामी जी के अन्तिम समय तक उनके सान्निध्य मे बने रहे।
           नरेन्द्र ने दर्शन और वेदान्त का गहन अध्ययन किया।वे इस निष्कर्ष पर पहुँच गये कि अनुरागपूर्ण साधना के द्वारा ही सत्य अथवा ईश्वर को जाना जा सकता है।सन् 1886 मे परमहंस जी का अन्तिम समय आ गया।उन्होने अपनी सम्पूर्ण शक्तियाँ नरेन्द्र को सौंप दीं।

भारत-भ्रमण --
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            परमहंस जी की मृत्यु के बाद विवेकानन्द जी 1887 मे सन्यासी बन गये।उसके बाद वे भारत-भ्रमण मे निकल पड़े।उन्होने सम्पूर्ण देश मे अपने गुरुदेव के उपदेशों का प्रचार किया।उनके मन मे दीन-दुखियों ; दलितों ; असहायों एवं शोषितों के प्रति अगाध प्रेम था।अतः उनके उत्थान के लिए स्वामी जी ने अथक प्रयास किया।उस समय बुद्धिजीवियों के मन मे धर्म के प्रति आस्था समाप्त हो रही थी।अतः अपने धर्म एवं संस्कृति की ऐसी व्याख्या करनी आवश्यक थी; जिससे समस्त भारतीय जनमानस उसे पुनः स्वीकार कर ले।स्वामी जी ने इस विषय मे बहुत उल्लेखनीय कार्य किया ; जिसमे उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली।

विश्वधर्म-सम्मेलन --
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          सन् 1893 मे अमेरिका के शिकागो नगर मे विश्वधर्म-सम्मेलन आयोजित हुआ।खेतरी-नरेश के सहयोग से स्वामी जी भी इस सम्मेलन मे सम्मिलित हुए।वहाँ सभी वक्ता भाषण आरम्भ करने के पूर्व " अमेरिकावासी महिलाओं एवं पुरुषों " कहकर सम्बोधित करते थे।जब स्वामी जी ने अपना वक्तव्य आरम्भ किया तब उन्होने " अमेरिकावासी बहनों एवं भाइयों " कहकर सम्बोधित किया।उनके इस अपनत्व भरे सम्बोधन को सुनकर सभी श्रोता अवाक् रह गये।वे स्वामी जी की ओर मंत्र-मुग्ध हो गये।स्वामी जी ने अपनी ओजस्वी वाणी एवं धाराप्रवाह अंग्रेजी से सभी का हृदय जीत लिया।उन्होने अपने सिद्धान्तों एवं विचारों को इतने प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया कि वहाँ पर उपस्थित सभी श्रोता एवं धर्माचार्य मंत्र-मुग्ध हो गये।
           स्वामी जी ने समझाया कि सनातन धर्म सर्वाधिक महान एवं उदार है।यह सभी धर्मों की विशेषताओं को समान रूप से स्वीकार करता है।इसलिए आप लोग आपसी वैरभाव को मिटाकर एक साथ चलने का प्रयास करें।मतों का खण्डन-विखण्डन त्यागकर पारस्परिक मेल-मिलाप की बात करें।इस प्रकार इस व्याख्यान के कारण वे सम्पूर्ण विश्व मे प्रसिद्ध हो गये।

विश्वभ्रमण --
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           इस सम्मेलन के बाद स्वामी जी ने अमेरिका और इंग्लैण्ड का व्यापक भ्रमण किया।उन्होंने अपने व्याख्यानो एवं लेखों के द्वारा सम्पूर्ण विश्व मे भारतीय विचारधारा का व्यापक प्रचार किया।इस कार्य मे उन्हें अनेक विदेशी विद्वानो का भी सहयोग मिला।इसी बीच उनकी भेंट सुप्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर से भी हुई।

मिशन की स्थापना --
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           विश्वभ्रमण के बाद स्वामी जी भारत वापस आये।उन्होने सन् 1897 मे रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।इस मिशन का प्रमुख लक्ष्य सर्वधर्म समभाव था।अब स्वामी जी का सम्पूर्ण समय हिन्दू समाज को जागृत करने ; सामाजिक कुरीतियों को दूर करने ; धर्मप्रचार करने और दीन-दुखियों की सेवा करने मे व्यतीत होने लगा।

अन्त ---
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          अत्यधिक परिश्रम एवं दौड़-धूप के कारण स्वामी जी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा।स्वास्थ्य-लाभ हेतु वे दार्जिलिंग चले गये।इसी बीच कलकत्ता मे प्लेग फैल गया।स्वामी जी कलकत्ता लौट आये और रोगग्रस्त लोगों की सेवा मे जुट गये।परन्तु 04 जुलाई 1902 को बेल्लूर मे वे दैनिक पूजा-पाठ करने के बाद शाम को अपने कक्ष मे विश्राम करने गये।वहीं पर ध्यानावस्था मे अपने ब्रह्मरन्ध्र को वेधकर महासमाधि ग्रहण कर ली।इस प्रकार इस महान सन्त का अन्त हो गया।
           

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