महाशिवरात्रि-व्रत फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को किया जाता है।ईशानसंहिता के अनुसार माघ ( फाल्गुन ) कृष्ण चतुर्दशी की महानिशा मे आदिदेव महादेव करोड़ो सूर्य के समान दीप्तिसम्पन्न हो शिवलिंग रूप मे आविर्भूत हुए थे।इसीलिए इसे शिवरात्रि कहा जाता है ---
माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः।।
तत्कालव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रिव्रते तिथिः।
यहाँ शुक्ल पक्ष से मासारम्भ मानने के कारण माघ का अभिप्राय फाल्गुन मास है।एक अन्य स्थल पर इसी तथ्य को इस प्रकार कहा गया है --
फाल्गुने कृष्णपक्षस्य या तिथिः स्याच्चतुर्दशी।
तस्यां या तामसी रात्रिः सोच्यते शिवरात्रिका।।
कथा ---
प्राचीन काल मे गुरुद्रुह नामक एक भील शिकार करने के लिए वन मे गया।वह दिन भर भूखा-प्यासा भटकता रहा किन्तु कोई शिकार नहीं मिला।शाम होने पर एक वर्तन मे जल भर कर बेल के एक वृक्ष पर चढ़ गया।कुछ देर बाद सरोवर मे पानी पीने के लिए एक मृगी आई।भील ने उसे मारने के शरसंधान किया।उसके हाथ के धक्के से थोड़ा सा जल और बेल के कुछ पत्ते नीचे गिर गये।उस वृक्ष के नीचे एक शिवलिङ्ग विराजमान थे।उस दिन शिवरात्रि का पर्व भी था।संयोगवश जल और बिल्वपत्र शिवलिङ्ग पर ही गिरे।अतः अनजाने मे ही भील द्वारा रात्रि के प्रथम प्रहर मे शिव जी का पूजन हो गया।
मृगी ने शिकारी से निवेदन किया कि अभी मुझे मुक्त कर दें।मै अपने बच्चों को अपनी बहन के हाथों सौंपकर लौट आऊँगी।तब मेरा वध करना।शिकारी ने उसे मुक्त कर दिया।रात्रि के दूसरे प्रहर मे उस मृगी की बहन जल पीने आ गयी।शिकारी पुनः शरसन्धान करने लगा।उसके हाथ के धक्के से उसी प्रकार जल और बिल्वपत्र गिरे और शिवलिङ्ग पर चढ़ गये।यह मृगी भी पहले वाली मृगी की भाँति निवेदन कर मुक्त हो गयी।रात्रि के तृतीय प्रहर मे एक मृग आया।शिकारी द्वारा शरसन्धान करने पर पहले की ही भाँति हाथ के धक्के से जल और बिल्वपत्र शिवलिङ्ग पर चढ़ गये।मृग ने भी उसी प्रकार निवेदन किया।शिकारी ने उसे भी मुक्त कर दिया।
वे तीनो मृग-मृगी एक ही परिवार के थे।कुछ देर बाद तीनो अपने वादे के अनुसार शिकारी के समक्ष प्रस्तुत हुए।उसने शरसन्धान करना चाहा तो जल और बिल्वपत्र पुनः शिवलिङ्ग पर चढ़ गये।इस प्रकार अनजाने मे ही चारों प्रहर मे शिकारी भील द्वारा शिव-पूजन हो गया।इसके पुण्यस्वरूप उसके सभी पाप भस्म हो गये।उसकी बुद्धि निर्मल हो गयी।अतः उसने मृगों पर प्रहार नही किया बल्कि उन्हें जीवन-दान दे दिया।इससे शिव जी प्रसन्न हो गये और तत्काल प्रकट हो गये।उन्होंने शिकारी को दिव्य वरदान देकर उसे धन्य कर दिया।
विधि --
व्रती प्रातःकाल स्नानादि करके मस्तक मे त्रिपुण्ड्र और गले मे रुद्राक्ष की माला धारण कर व्रत का संकल्प ले।दिन भर उपवास एवं शिवनाम-स्मरण करे।सायंकाल पुनः स्नान कर शिवालय मे रात्रि के प्रथम प्रहर मे गन्ध ; अक्षत ; मन्दार-पुष्प ; धत्तूर फल आदि द्वारा शिव जी का विधिवत् पूजन करे।पूजन मे वैदिक अथवा पौराणिक मंत्रों का प्रयोग करें।अज्ञानता मे नाममंत्र से ही पूजन करें।इसी प्रकार रात्रि के द्वितीय ; तृतीय और चतुर्थ प्रहर मे भी शिव-पूजन करना चाहिए।पूजनोपरान्त इस प्रकार प्रार्थना करे ---
संसारक्लेशदग्धस्य व्रतेनानेन शंकर।
प्रसीद सुमुखो नाथ ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ।।
इस प्रकार शिवनाम-स्मरण करते हुए रात्रिजागरण करे।दूसरे दिन पुनः शिव-पूजन ; ब्राह्मण-भोजन आदि के बाद स्वयं पारणा करे।
माहात्म्य ---
इस व्रत का असीम महत्व है।इसे सभी व्रतों का राजा कहा जाता है।जो व्यक्ति इस व्रत को करता है ; उसकी भोग-मोक्ष सहित समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।वह समस्त सांसारिक सुखों को भोगकर अन्त मे शिव-सायुज्य को प्राप्त करता है।
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