अशोकाष्टमी व्रत चैत्र शुक्ल पक्ष अष्टमी को किया जाता है।यदि उस दिन पुनर्वसु नक्षत्र हो तो अधिक शुभ होता है।इसमे अशोक-कलिका-प्राशन की प्रधानता होने के कारण इसे अशोकाष्टमी कहते हैं।
कथा --
इस व्रत का वर्णन गरुड़ पुराण मे भगवान ब्रह्मा जी के मुखारविन्द से हुआ है।इसलिए इसकी विशिष्ठ महत्ता है।
विधि ---
व्रत करने के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि प्रातः स्नानिदि से निवृत्त होकर अशोक-वृक्ष का पूजन करे।फिर उसकी मञ्जरी की आठ कलिकायें लेकर निम्नलिखित मंत्र से पान करे --
त्वामशोक हराभीष्ट मधुमाससमुद्भव।
पिबामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु।।
माहात्म्य ---
इस व्रत को करने से मनुष्य सदैव शोकमुक्त रहता है।
Monday, 29 February 2016
अशोकाष्टमी व्रत
Sunday, 28 February 2016
मदन द्वादशी व्रत
मदन द्वादशी व्रत चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को किया जाता है।इसमे काम-पूजन की प्रधानता होने के कारण इसे मदन द्वादशी कहा जाता है।
कथा ---
प्राचीन काल मे देवासुर संग्राम मे दिति के सभी दैत्य- पुत्र मारे गये।इससे दुखी दिति स्यमन्तपञ्चक क्षेत्र मे सरस्वती नदी के तट पर तपस्या करने लगी।सौ वर्षों तक अनुष्ठान करने के बाद उसने वसिष्ठ आदि महर्षियों से पुत्र-शोक-नाशक किसी व्रत के विषय मे पूछा।महर्षि वसिष्ठ ने मदन-द्वादशी-व्रत करने का निर्देश दिया।दिति ने महर्षियों के निर्देशानुसार व्रत किया।इस व्रत के प्रभाव से दिति के पति महर्षि कश्यप प्रकट हुए।दिति ने उनसे ऐसे पुत्र का वरदान मागा ; जो अमित पराक्रमी हो और इन्द्र का वध कर सके।महर्षि उसे इच्छित वर देकर अन्तर्धान हो गये।बाद मे दिति को उसी व्रत के प्रभाव से उनचास पुत्र ( मरुद्गण ) प्राप्त हुए।
विधि ---
व्रती प्रातः स्नानादि करके श्वेत-चन्दनानुलिप्त ; वस्त्राच्छादित एवं चावलों से परिपूर्ण घट स्थापित करे।उसके समीप फल और गन्ने के टुकड़े रखे।कलश पर गुड़ भरा ताम्रपात्र रखकर उस पर रति और कामदेव का पूजन करे।दूसरे दिन घटदान और ब्राह्मण-भोजन के बाद स्वयं लवण-रहित भोजन करे।
इसी प्रकार वर्ष भर प्रत्येक द्वादशी को व्रत करे।तेरहवें महीने मे घृतधेनु ; कामदेव की स्वर्ण प्रतिमा ; सवत्सा गौ ; शय्यादान आदि करे।बाद मे गोदुग्ध से निर्मित हवि और श्वेत तिल से हवन करे।
माहात्म्य ---
इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य पापमुक्त होकर जीवन भर सुख ; समृद्धि ; पुत्र ; पौत्र आदि से युक्त रहता है।
Saturday, 27 February 2016
काम - त्रयोदशी - व्रत
काम-त्रयोदशी-व्रत चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को किया जाता है।कामपूजन की प्रधानता होने के कारण इसे काम-त्रयोदशी कहा जाता है।
कथा --
इस व्रत का वर्णन अग्निपुराण मे स्वयं अग्निदेव ने किया है।
विधि ---
व्रती प्रातः स्नानादि करके कज्जल और सिन्दूर से अशोक-वृक्ष की रचना करे।उसके नीचे रति एवं कामदेव की रचना करके उनका विधिवत् पूजन करे।इसी प्रकार एक वर्ष तक कामपूजन करना चाहिए।
माहात्म्य ----
इस व्रत को करने से मनुष्य की समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।
कामदा-एकादशी-व्रत
कामदा एकादशी व्रत चैत्र शुक्ल पक्ष एकादशी को किया जाता है।
कथा ---
प्राचीन काल मे नागपुर नगर मे पुण्डरीक नामक एक नाग राज्य करता था।वहीं ललित नामक एक गन्धर्व अपनी पत्नी ललिता के साथ निवास करता था।इन दोनो मे अतिशय प्रीति थी।वे एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते थे।एक बार नागराज ने संगीत का आयोजन किया।उसमे ललित का गान हो रहा था।वहाँ ललिता नहीं थी।अचानक ललित को ललिता का स्मरण हो गया ; जिससे उसका गान अवरुद्ध होने लगा।इसे देखकर नागराज को क्रोध आ गया।उसने ललित को राक्षस होने का शाप दे दिया।ललित उसी क्षण राक्षस हो गया।
इसके बाद ललित वन की ओर चला गया।उसके पीछे उसकी पत्नी भी चल पड़ी।वहाँ एक आश्रम दिखाई पड़ा।ललिता उस आश्रम मे गयी और वहाँ विराजमान मुनि को अपनी व्यथा सुनाई।मुनि ने कहा कि आज कामदा एकादशी है।तुम इसका व्रत करो और इसका पुण्यफल अपने पति को दे दो।इससे उसका उद्धार हो जायेगा।ललिता ने वहीं रहकर व्रत किया और दूसरे दिन मुनि के समक्ष ही व्रत का पुण्य अपने पति को प्रदान कर दिया।इस व्रत के प्रभाव से ललित का राक्षसत्व भाव दूर हो गया और उसे पुनः गन्धर्वत्व की प्राप्ति हो गयी।
विधि --
व्रती प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर संकल्प पूर्वक भगवान श्रीहरि का पूजन करे।दिन भर उपवास करे और दूसरे दिन विधिवत् पारणा करे।
माहात्म्य ---
इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य के ब्रह्महत्या सदृश पापों एवं पिशाचत्व-राक्षसत्व आदि दोषों का विनाश हो जाता है।यह एकादशी पाप रूपी ईंधन के लिए दावानल सदृश मानी गयी है।
Friday, 26 February 2016
सौभाग्य-शयन-व्रत
सौभाग्य-शयन-व्रत चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को किया जाता है।
कथा -----
प्राचीन काल मे जब सभी लोक दग्ध हो गये तब समस्त प्राणियों का सौभाग्य एकत्रित होकर भगवान विष्णु के वक्षःस्थल मे स्थित हो गया।कालान्तर मे सृष्टि-रचना के समय शिव-लिंगाकार एक भयानक अग्निज्वाला प्रकट हुई।उसके ताप से वह सौभाग्य गलित होकर नीचे गिरा।उसका आधा भाग दक्ष प्रजापति ने पी लिया।उसी के अंश से सती नामक कन्या का प्रादुर्भाव हुआ।बाद मे सती का विवाह शिव जी के साथ हुआ।
सौभाग्य-पुञ्ज का आधा भाग पृथ्वी पर गिरा।उससे आठ पदार्थ उत्पन्न हुए ; जो ईख ; पारा ; सेम ; राजि धान ; गोक्षीर ; कुसुम्भ-पुष्प ; कुंकुम और नमक के रूप मे प्रसिद्ध हुए।इन्हें सौभाग्याष्टक कहा जाता है।
दक्षकन्या सती ने अपनी सुन्दरता से तीनो लोकों को पराजित कर दिया था।इसीलिए उन्हें " ललिता " कहा जाता है।उनका विवाह चैत्र शुक्ल तृतीया को भगवान शिव जी के साथ सम्पन्न हुआ।इसीलिए इस दिन सती सहित शिव जी का पूजन किया जाता है।
विधि --
व्रती तिल मिश्रित जल से स्नान करके गौरी एवं चन्द्रशेखर-शिव की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित करे।फिर चन्दन मिश्रित जल ; अक्षत ; गन्ध ; पुष्प आदि से उनका विधिवत् पूजन करे।उनके पूर्वोक्त सौभाग्याष्टक रख कर " उमामहेश्वरौ प्रीयेताम् " कहे।उसके बाद गोश्रृंगोदक का प्राशन कर भूशयन करे।दूसरे दिन ब्राह्मण-दम्पति की पूजा कर उन्हें प्रतिमा सहित सौभाग्याष्टक दान करे और " ललिता प्रीयताम् " कहे।इसी प्रकार वर्ष भर प्रत्येक मास की तृतीया को पूजन आदि करना चाहिए।वर्षान्त मे शय्या पर उमामहेश्वर की स्वर्म प्रतिमा ; गौ तथा वृषभ की प्रतिमा का पूजन कर दान कर दे।
माहात्म्य ---
इस व्रत को करने से मनुष्य की समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।सती जी प्रसन्न होकर अपने भक्त को भोग और मोक्ष दोनो प्रदान कर देती हैं।
श्री रामनवमी व्रत
श्री राम नवमी व्रत चैत्र मास के शुक्ल पक्ष नवमी को किया जाता है।
कथा --
प्राचीन काल मे स्वायम्भुव मनु तथा उनकी पत्नी शतरूपा ने नैमिशारण्य मे घोर तप किया।भगवान नारायण जी प्रकट हुए।दोनो ने उनसे पुत्र रूप मे प्रकट होने की प्रार्थना की।भगवान नारायण ने स्वीकार कर लिया।बाद मे यही मनु और शतरूपा अयोध्या मे राजा दशरथ और कौसल्या के रूप मे प्रकट हुए।उन्हीं के पुत्र रूप मे भगवान श्री राम अवतरित हुए।
वाल्मीकीय रामायण के अनुसार पुत्रेष्टि यज्ञ के बारहवें मास मे चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न मे कौसल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त ; सर्वलोकवन्दित जगदीश्वर श्री राम को जन्म दिया।उस समय सूर्य ; मंगल ; बृहस्पति ; शुक्र ; शनि - ये पाँच ग्रह अपनी उच्च राशि मे विद्यमान थे।साथ ही लग्न मे चन्द्रमा और बृहस्पति विराजमान थे।
विधि ---
व्रती प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर संकल्प पूर्वक किसी चौकी आदि पर भगवान श्री राम की प्रतिमा स्थापित करे।फिर गन्धाक्षत आदि से उनका विधिवत् पूजन करे।श्रीरामचरित मानस आदि का पाठ करते हुए उपवास करे।दूसरे दिन विधिवत् पारणा करे।
माहात्म्य ---
इस व्रत से भगवान श्री राम की अनुकम्पा प्राप्त होती है।इससे मनुष्य की समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।
Thursday, 25 February 2016
दुर्गाष्टमी
दुर्गाष्टमी-व्रत चैत्र शुक्ल अष्टमी को किया जाता है।सामान्यतः नवरात्र पर्यन्त व्रत एवं दुर्गा - पूजन करना चाहिए किन्तु असमर्थता की स्थिति मे अष्टमी तिथि को दुर्गा-पूजा अवश्य करनी चाहिए।
कथा --
देवी भागवत के अनुसार प्राचीन काल मे दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंश करने वाली महाभयानक भगवती भद्रकाली करोड़ो योगिनियों सहित अष्टमी तिथि को प्रकट हुई थीं।इसलिए इस दिन इनका विशिष्ट पूजन करने का विधान है।
विधि ---
व्रती प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास पूर्वक गन्ध ; पुष्प ; चन्दन आदि से भगवती का पूजन करे।फिर विविध प्रकार के उपहारों एवं पायस - हवन से सन्तुष्ट करे।अन्त मे ब्राह्मण भोजन भी कराये।
माहात्म्य ---
इस दिन दुर्गा-पूजन करने से माता भगवती की अनुकम्पा अवश्य प्राप्त होती है।वे अपने भक्तों की समस्त कामनायें पूर्ण कर देती हैं।
Wednesday, 24 February 2016
माता सिद्धिदात्री
मातेश्वरी दुर्गा जी के नवम स्वरूप का नाम माता सिद्धिदात्री है।नवरात्र मे नवमी तिथि को इन्हीं का पूजन होता है।
माता सिद्धिदात्री के नामकरण के सम्बन्ध मे कई मत प्रचलित हैं। " सिद्धेः मोक्षस्य दात्री इति सिद्धिदात्री " --- अर्थात् ये सिद्धि या मोक्ष प्रदान करने वाली हैं।इसलिए इन्हें सिद्धिदात्री कहा जाता है। एक अन्य मत के अनुसार अणिमा ; महिमा ; गरिमा ; लघिमा ; प्राप्ति ; प्राकाम्य ; ईशित्व और वशित्व रूपी आठों सिद्धियों को प्रदान करने वाली होने के कारण इन्हें सिद्धिदात्री कहा जाता है।ब्रह्मवैवर्त पुराण मे अट्ठारह प्रकार की सिद्धियाँ बताई गयी हैं।इन सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाली देवी को सिद्धिदात्री कहा जाता है।देवीभागवत पुराण के अनुसार भगवान शिव जी ने इन्हीं देवी की उपासना करके सिद्धि प्राप्त की थी।इसीलिए इन्हें सिद्धिदात्री कहा जाता है।
माता सिद्धिदात्री का स्वरूप अत्यन्त दिव्य ; भव्य एवं मनभावन है।ये सिंहवाहिनी एवं चतुर्भुजी हैं।इनके ऊपर वाले दक्षिण हस्त मे गदा तथा निचले हाथ मे चक्र सुशोभित है।इसी प्रकार ऊपर वाले वाम हस्त मे कमलपुष्प तथा नीचे वाले हाथ मे शंख विराजमान है।ये कमलपुष्प पर भी विराजमान र होती हैं।इसलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है।
इनके नाम से ही स्पष्ट है कि ये अपने भक्तों को हर प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करने मे सक्षम हैं।ऊतः इनकी उपासना से मनुष्य लौकिक एवं पारलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की सिद्धि प्राप्त कर लेता है।उसे किसी प्रकार का अभाव नहीं रहता है।उसे संसार की निस्सारता का बोध एवं अमृतत्व की प्राप्ति हो जाती है।
माता सिद्धिदात्री की उपासना से सब कुछ पाया जा सकता है।अतः प्रत्येक आस्तिक व्यक्ति को इनकी उपासना अवश्य करनी चाहिए।इनका ध्यान इस मंत्र से करना चाहिए ---
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि ।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
----- अर्थात् सिद्धों ; गन्धर्वों ; यक्षो ; असुरों तथा देवताओं द्वारा भी सदा सेवित रहने वाली माता सिद्धिदात्री जी मेरे लिए सिद्धि प्रदान करने वाली हों।
Tuesday, 23 February 2016
माता महागौरी
परमेश्वरी दुर्गा देवी के अष्टम स्वरूप का नाम महागौरी है।नवरात्र मे अष्टमी तिथि को इन्हीं का पूजन होता है।
एक बार भगवान शिव जी तथा माता पार्वती जी मन्दराचल पर्वत पर निवास कर रहे थे।एक दिन शिव जी ने मुसकराते हुए पार्वती जी को काली कह दिया।इसे सुनते ही पार्वती जी बहुत अधिक कुपित हो गयीं।उन्होंने प्रतिज्ञा किया कि मै इस श्याम वर्ण शरीर को त्यागकर गौर वर्ण ग्रहण करूँगी अन्यथा स्वयं ही मिट जाऊँगी।मै अपनी तपस्या के द्वारा भगवान ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर गौर वर्ण प्राप्त करूँगी।
यद्यपि शिव जी ने उन्हें समझाने का प्रयास किया किन्तु वे अपनी प्रतिज्ञा से विमुख नहीं हुईं।वे हिमालय पर्वत पर आकर कठोर तप करने लगीं।कुछ दिनों बाद भगवान ब्रह्मा जी प्रकट हुए।उसी समय पार्वती जी ने अपनी काली त्वचा के आवरण को उतार कर गौरवर्ण हो गयीं।उसी समय से वे महागौरी के नाम से प्रसिद्ध हो गयीं।
नारद पाञ्चरात्र के अनुसार पार्वती के रूप मे अवतरित होकर शिव जी को पति रूप मे प्रेप्त करने के लिए इन्होने कठोर तप किया।इससे उनका शरीर धूल धूप आदि से मलिन हो गया था।बाद मे शिव जी ने इनके शरीर को गंगा जल से धुल दिया तब इनका शरीर विद्युत सदृश अत्यन्त गौर एवं कान्तिमान हो गया।इसीलिए इन्हें महागौरी कहा जाता है।
महागौरी जी का शरीर शंख ; चन्द्र एवं कुन्द के समान अत्यन्त गौर वर्ण का है।इनके वस्त्राभूषण भी श्वेतवर्णीय हैं।इनके तीन नेत्र एवं चार भुजायें हैं।ऊपर वाले दक्षिण हस्त मे अभयमुद्रा एवं नीचे वाले मे त्रिशूल सुशोभित है।इसी प्रकार ऊपर वाले वाम हस्त मे डमरू तथा नीचे वाले मे वरमुद्रा सुशोभित है।ये वृषभवाहिनी ; सुवासिनी एवं शान्तमुद्रा वाली हैं।
ये अत्यन्त दयालु ; भक्तवत्सला एवं अमोघ फलदायिनी हैं।इनकी उपासना से मनुष्य के सभी कलुष मिट जाते हैं।जन्म-जन्मान्तर के रोग ; शोक ; पाप ; ताप आदि पूर्ण रूपेण नष्ट हो जाते हैं।उसे सभी अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति हो जाती है।इस प्रकार माता जी सर्वतोभावेन अनिष्ट-निवारिणी एवं मंगलकारिणी हैं।अतः सर्वविध कल्याण की प्राप्ति हेतु इनका ध्यान इस प्रकार करना चाहिए ---
श्वेतहस्तिसमारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
----- अर्थात् जो श्वेत हस्ति पर सवार होती हैं ; श्वेत वस्त्र धारण करती हैं ; सदा पवित्र रहती हैं तथा महादेव को सदैव आनन्द प्रदान करती हैं ; वे माता महागौरी जी मेरे लिए शुभदायिनी हों।
Monday, 22 February 2016
माता कालरात्रि
मातेश्वरी दुर्गा जी के सप्तम स्वरूप को माता कालरात्रि के नाम से जाना जाता है।नवरात्र मे सप्तमी को इन्हीं के पूजन का विधान है।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से " कालस्य रात्रिः विनाशिका इति कालरात्रिः " --- अर्थात् जो सबको मारने वाले काल की भी रात्रि ( विनाशिका ) हैं।उन्हें कालरात्रि कहा जाता है।
इनका शरीर अत्यन्त कृष्ण वर्णीय एवं भयानक है।सिर पर बिखरे हुए बाल एवं गले मे विद्युत सदृश अत्यन्त देदीप्यमान माला सुशोभित है।इनके तीन नेत्र हैं ; जिनसे विद्युत ज्योति निकलती रहती है।इनकी नासिका से श्वास-प्रश्वास छोड़ने पर सहस्रों अग्नि-शिखायें निकलती रहती हैं।
इनके स्वरूप के विषय मे विद्वानों मे दो मत हैं।प्रथम मतानुसार इनके ऊपर वाले दक्षिण एवं वाम हस्त मे क्रमशः तलवार और प्रज्वलित मशाल है।नीचे वाले दायें और बायें हाथों मे क्रमशः वरमुद्रा तथा अभयमुद्रा है।इन हाथों से वे अपने भक्तों को अभीष्ट वर एवं अभय प्रदान करती हैं।द्वितीय मतानुसार ऊपर उठे हुए दक्षिण हस्त मे वरमुद्रा तथा निचले हस्त मे अभयमुद्रा है।ऊपर वाले वाम हस्त मे लोहे का काँटा तथा निचले हाथ मे खड्ग विराजमान है।
यद्यपि माता कालरात्रि का स्वरूप अत्यन्त भयानक है फिर भी ये अपने भक्तों का सदैव शुभ करने वाली हैं।इसलिए इन्हें शुभंकरी भी कहा जाता है।इनकी उपासना से मनुष्य समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है।इनके नामोच्चारण मात्र से भूत ; प्रेत ; दैत्य ; दानव ; राक्षस आदि समस्त आसुरी शक्तियाँ भयभीत होकर भाग जाती हैं।ये अपने भक्तों के ग्रहजन्य कष्टों को दूर करके उसके जीवन को मंगलमय बना देती हैं।उसे अग्नि ; जल ; शत्रु ; विषैले जीवों आदि से कोई भय नहीं रहता है।वह पूर्ण रूप से भयमुक्त होकर सानन्द जीवन व्यतीत करता है।साथ ही अन्त मे मोक्ष को प्राप्त होता है।
अतः ऐसी वरदायिनी एवं परम सुखदायिनी माता जी की उपासना अवश्य करनी चाहिए।इनका ध्यान करने के लिए यह मन्त्र बहुत उपयुक्त है ---
करालरूपा कालाब्जसमानाकृतिविग्रहा।
कालरात्रिः शुभं दद्याद् देवी चण्डाट्टहासिनी।।
------ अर्थात् जिनका रूप अत्यन्त विकराल है ; जिनकी आकृति एवं विग्रह कृष्ण कमल सदृश है ; वे कालरात्रि देवी मेरे लिए शुभ प्रदान करें।
Sunday, 21 February 2016
माता कात्यायनी
मातेश्वरी दुर्गा जी के षष्ठ स्वरूप का नाम कात्यायनी है।नवरात्र मे षष्ठी तिथि को इन्हीं का पूजन किया जाता है।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से " कतस्य गोत्रापत्यम् इति कात्यायनः ; कात्यायन + ङीप् = कात्यायनी " --- अर्थात् कत गोत्र मे उत्पन्न होने वाली स्त्री।वस्तुतः महर्षि कत के पुत्र कात्य कहलाये।आगे चलकर इन्हीं कात्य के गोत्र मे कात्यायन ऋषि का जन्म हुआ।महर्षि कात्यायन ने आद्या भगवती को पुत्री रूप मे प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया।माता जी प्रसन्न हो गयीं और बाद मे महर्षि के आश्रम मे प्रकट हुईं।महर्षि ने उन्हें पुत्री रूप मे स्वीकार कर लिया।इसीलिए इन्हें कात्यायनी देवी कहा जाता है।
ब्रज की गोपियों ने श्री कृष्ण जी को पति रूप मे प्राप्त करने के लिए हेमन्त ऋतु मे माता कात्यायनी की पूजा की थी।इससे प्रतीत होता है कि ये ब्रत की अधिष्ठात्री के रूप मे प्रतिष्ठित थीं।आज भी उस क्षेत्र मे शक्ति-उपासना की परम्परा विद्यमान है।
माता कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त भव्य ; दिव्य एवं स्वर्णिम आभा से युक्त है।इनके तीन नेत्र एवं आठ भुजायें हैं।सभी भुजाओं मे नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र सुशोभित हैं।कुछ स्थलों पर इन्हें चतुर्भुजी रूप मे प्रदर्शित किया गया है।इनके ऊपर और नीचे वाले दक्षिण हस्त क्रमशः अभय एवं वरमुद्रा मे स्थित हैं।ऊपर वाले वाम हस्त मे तलवार और नीचे वाले मे कमल-पुष्प सुशोभित है।ये सदैव सिंह पर आरूढ़ रहती हैं।
माता कात्यायनी जी अत्यन्त दयालु हैं।ये स्वल्प आराधना - वन्दना से भी प्रसन्न हो जाती हैं।इनकी उपासना से मनुष्य धर्म ; अर्थ ; काम और मोक्ष की प्राप्ति बड़ी आसानी से कर लेता है।उसके जन्म-जन्मान्तर के सभी रोग ; शोक ; पाप ; ताप ; दुःख ; दारिद्र्य ; भय आदि नष्ट हो जाते हैं।उसे सांसारिक एवं पारलौकिक दोनो प्रकार के सुख प्राप्त हो जाते हैं।
इनकी उपासना इस मन्त्र से करनी चाहिए --
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद् देवी दानवघातिनी।।
----- अर्थात् जिनका हाथ उज्ज्वल चन्द्रहास नामक तलवार से सुशोभित है तथा सिंह प्रवर जिनका वाहन है ; वे दानव-घातिनी माता कात्यायनी जी मेरे लिए मंगल प्रदान करें।
Saturday, 20 February 2016
स्कन्दमाता
परमेश्वरी दुर्गा जी के पञ्चम स्वरूप का नाम स्कन्दमाता है।नवरात्र मे पञ्चमी तिथि को इन्हीं की उपासना की जाती है।
इनके विषय मे दो मत विशेष प्रसिद्ध हैं।प्रथम मतानुसार माता जी की शक्ति से उत्पन्न होने वाले सनत्कुमार का दूसरा नाम स्कन्द है।अतः स्कन्द की माता होने के कारण इन्हें स्कन्दमाता कहा जाता है।द्वितीय मतानुसार शिव जी के पुत्र कुमार कार्तिकेय को स्कन्द भी कहा जाता है।अतः इन स्कन्द जी की माता होने के कारण इन्हें स्कन्दमाता कहा जाता है।
स्कन्दमाता का निवास अग्निमण्डल मे है।बालरूप स्कन्द जी इनकी गोद मे सदैव विराजमान रहते हैं।इससे इनका ममतामयी स्वरूप स्वयमेव स्पष्ट है।इनका शरीर अत्यन्त शुभ्रवर्ण का है।इनके तीन नेत्र एवं चार भुजायें हैं।ये ऊपर वाली दक्षिण भुजा से स्कन्द जी को पकड़े रहती हैं और नीचे वाली भुजा मे कमल सुशोभित है।इसी प्रकार ऊपर वाला वाम हस्त वरमुद्रा मे है तथा निचली भुजा मे कमल पुष्प है।ये सदैव कमलासन पर विराजमान रहती हैं।इसीलिए पद्मासना देवी के नाम से प्रसिद्ध हैं।इनका वाहन सिंह होने के कारण इन्हें सिंहवाहिनी भी कहा जाता है।
भगवती स्कन्दमाता जी अत्यन्त दयालु एवं भक्तवत्सला हैं।इनकी उपासना से मनुष्य की सभी कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।उसे भोग और मोक्ष दोनो की प्राप्ति हो जाती है।वह अलौकिक तेज से सम्पन्न ; विद्वान ; सुखी ; समृद्ध एवं यशस्वी हो जाता है।इनका ध्यान करने के लिए निम्नलिखित मन्त्र बहुत उपयुक्त है ----
सिंहासनगता नित्यं पद्माञ्चितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।
----- अर्थात् जो नित्य सिंहासन पर विराजमान रहती हैं और जिनके दोनो हाथ कमल-पुष्पों से सशोभित हैं ; वे यशस्विनी स्कन्दमाता मेरे लिए शुभदायिनी हों।
Friday, 19 February 2016
माता कूष्माण्डा
मातेश्वरी दुर्गा जी के चतुर्थ स्वरूप का नाम माता कूष्माण्डा है।नवरात्र मे चतुर्थी को इन्हीं की उपासना करनी चाहिए।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से " कुत्सितः ऊष्मा कूष्मा-- त्रिविधतापयुतः संसारः ; स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्याः सा कूष्माण्डा " --- अर्थात् आध्यात्मिक ; आधिदैविक तथा आधिभौतिक रूप त्रिविध तापों से युक्त संसार जिनके उदर मे स्थित है।उन्हें भगवती कूष्माण्डा कहा जाता है।वस्तुतः जब सृष्टि की संरचना नही हुई थी।चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार छाया हुआ था।उस समय इन परमेश्वरी ने ही अपने ईषत् हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी।इसीलिए इन्हें आद्या भगवती या आदिस्वरूपा भी कहा जाता है।दूसरे शब्दों मे कहा जा सकता है कि माता कूष्माण्डा अखिल विश्व का उत्पादन कर उसे अपने भीतर अवयव रूप से धारण करती हैं।
कूष्माण्ड का अर्थ कुम्हड़ा भी होता है --" कु ईषत् ऊष्मा अण्डेषु बीजेषु यस्य सः "।माता कूष्माण्डा को कुम्हड़े की बलि भी बहुत प्रिय है।इसीलिए इन्हें कूष्माण्डा कहा जाता है।
माता कूष्माण्डा का निवास सूर्यमण्डल के भीतर के लोक मे है।इनका तेज सूर्य के समान है।इन्हीं का तेज समस्त दिशाओं एवं शक्तियों मे व्याप्त है।माता कूष्माण्डा जी अष्टभुजी हैं।इनकी सात भुजाओं मे सप्तविध शस्त्रास्त्र सुशोभित हैं।अष्टम भुजा मे जपमालिका विद्यमान है।इनका शरीर अत्यन्त दिव्य ; भव्य एवं देदीप्यमान है।ये सदैव सिंह पर आसीन रहती हैं।
कूष्माण्डा जी अत्यन्त दयालु एवं भक्तवत्सला हैं।इनकी आराधना से मनुष्य समस्त रोग-शोक से मुक्त होकर परम तेजस्वी एवं यशस्वी बन जाता है।इनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये अत्यन्त अल्प सेवा भक्ति से ही प्रसन्न हो जाती हैं और अपने भक्तों की समस्त कामनायें पूर्ण कर देती हैं।अतः प्रत्येक आस्तिक व्यक्ति को चाहिए कि वह माता जी की अनुकम्पा प्राप्त करने का प्रयास अवश्य करे।
इनकी उपासना बहुत सरल एवं सुखदायिनी है।इनका ध्यान इस मन्त्र से करना चाहिए ---
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे।।
------ अर्थात् रुधिर से परिप्लुत और सुरा से परिपूर्ण कलश को दोनो करकमलों मे धारण करने वाली माता कूष्माण्डा जी मेरे लिए सदैव शुभदायिनी हों।