मातेश्वरी दुर्गा जी के चतुर्थ स्वरूप का नाम माता कूष्माण्डा है।नवरात्र मे चतुर्थी को इन्हीं की उपासना करनी चाहिए।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से " कुत्सितः ऊष्मा कूष्मा-- त्रिविधतापयुतः संसारः ; स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्याः सा कूष्माण्डा " --- अर्थात् आध्यात्मिक ; आधिदैविक तथा आधिभौतिक रूप त्रिविध तापों से युक्त संसार जिनके उदर मे स्थित है।उन्हें भगवती कूष्माण्डा कहा जाता है।वस्तुतः जब सृष्टि की संरचना नही हुई थी।चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार छाया हुआ था।उस समय इन परमेश्वरी ने ही अपने ईषत् हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी।इसीलिए इन्हें आद्या भगवती या आदिस्वरूपा भी कहा जाता है।दूसरे शब्दों मे कहा जा सकता है कि माता कूष्माण्डा अखिल विश्व का उत्पादन कर उसे अपने भीतर अवयव रूप से धारण करती हैं।
कूष्माण्ड का अर्थ कुम्हड़ा भी होता है --" कु ईषत् ऊष्मा अण्डेषु बीजेषु यस्य सः "।माता कूष्माण्डा को कुम्हड़े की बलि भी बहुत प्रिय है।इसीलिए इन्हें कूष्माण्डा कहा जाता है।
माता कूष्माण्डा का निवास सूर्यमण्डल के भीतर के लोक मे है।इनका तेज सूर्य के समान है।इन्हीं का तेज समस्त दिशाओं एवं शक्तियों मे व्याप्त है।माता कूष्माण्डा जी अष्टभुजी हैं।इनकी सात भुजाओं मे सप्तविध शस्त्रास्त्र सुशोभित हैं।अष्टम भुजा मे जपमालिका विद्यमान है।इनका शरीर अत्यन्त दिव्य ; भव्य एवं देदीप्यमान है।ये सदैव सिंह पर आसीन रहती हैं।
कूष्माण्डा जी अत्यन्त दयालु एवं भक्तवत्सला हैं।इनकी आराधना से मनुष्य समस्त रोग-शोक से मुक्त होकर परम तेजस्वी एवं यशस्वी बन जाता है।इनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये अत्यन्त अल्प सेवा भक्ति से ही प्रसन्न हो जाती हैं और अपने भक्तों की समस्त कामनायें पूर्ण कर देती हैं।अतः प्रत्येक आस्तिक व्यक्ति को चाहिए कि वह माता जी की अनुकम्पा प्राप्त करने का प्रयास अवश्य करे।
इनकी उपासना बहुत सरल एवं सुखदायिनी है।इनका ध्यान इस मन्त्र से करना चाहिए ---
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे।।
------ अर्थात् रुधिर से परिप्लुत और सुरा से परिपूर्ण कलश को दोनो करकमलों मे धारण करने वाली माता कूष्माण्डा जी मेरे लिए सदैव शुभदायिनी हों।
Friday, 19 February 2016
माता कूष्माण्डा
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